मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४९)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४९)

अन्नमय कोश

पाणिपादादिमान्देहो नात्मा व्यंगेऽपि जीवनात् ।
तत्तच्छक्तेरनाशाच्च न नियम्यो नियामकः ॥ १५८ ॥

(यह हाथ-पैरों वाला शरीर आत्मा नहीं हो सकता,क्योंकि उसके अंग-भंग होने पर भी अपनी शक्ति का नाश न होने के कारण पुरुष जीवित रहता है | इसके सिवा जो शरीर स्वयं शासित है , वह शासक आत्मा कभी नहीं हो सकता)

देहतद्धर्मतत्कर्मतदवस्थादिसाक्षिणः ।
स्वत एव स्वतः सिद्धं तद्वैलक्षण्यमात्मन: ॥ १५९ ॥

(देह, उसके धर्म, उसके कर्म तथा उसकी अवस्थाओं के साक्षी आत्मा की उससे पृथकता स्वयं ही स्वत:सिद्ध है)

कुल्यराशिर्मांसलिप्तो मलपूर्णोऽतिकश्मलः ।
कथं भवेदयं वेत्ता स्वयमेतद्विलक्षणः ॥ १६० ॥

(हड्डियों का समूह, मांस से लिथड़ा हुआ और मल से भरा हुआ यह अति कुत्सित देह, अपने से भिन्न अपना जानने वाला स्वयं ही कैसे हो सकता है ?)

त्वङ्मांसमेदोऽस्थिपुरीषराशा-
वहंमतिं मूढजनः करोति ।
विलक्षणं वेत्ति विचारशीलो
निजस्वरूपं परमार्थभूतम् ॥ १६१ ॥

(त्वचा, मांस, मेद, अस्थि और मल की राशिरूप इस देह में मूढजन ही अहंबुद्धि करते हैं | विचारशील तो अपने पारमार्थिक स्वरूप को इससे पृथक् ही जानते हैं)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४८)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४८)

अन्नमय कोश 

देहोऽयमन्नभवनोऽन्नमयस्तु कोश-
श्चान्नेन जीवति विनश्यति तद्विहीनः ।
त्वक्चर्ममांसरुधिरास्थिपुरीषराशि-
र्नायं स्वयं भवितुमर्हति नित्यशुद्धः ॥ १५६ ॥

(अन्न से उत्पन्न हुआ यह देह ही अन्नमय कोश है , जो अन्न से ही जीता है और उसके बिना नष्ट हो जाता है | यह त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर,अस्थि और मल आदि का समूह स्वयं नित्यशुद्ध आत्मा नहीं हो सकता)

पूर्वं जनेरपि मृतेरपि नायमस्ति
जातःक्षणां क्षणगुणोऽनियतस्वभावः ।
नैको जडश्च घटवत्परिदृश्यमानः
स्वात्मा कथं भवति भावविकारवेत्ता ॥ १५७ ॥

(यह जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात् भी नहीं रहता, क्षण में जन्म लेता है, क्षणिक गुण वाला है और अस्थिर-स्वभाव है; तथा अनेक तत्वों का संघात, जड और घट के समान दृश्य है, फिर यह भाव-विकारों का जानने वाला अपना आत्मा कैसे हो सकता है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४७)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४७)

आत्मानात्म - विवेक 

कोशैरन्नमयाद्यैः पञ्चभिरात्मा न संवृतो भाति ।
निजशक्तिसमुत्पन्नैः शैवालपटलैरिवाम्बु वापीस्थम् ॥ १५१ ॥

(अन्नमय आदि पाँच कोशों से आवृत हुआ आत्मा, अपनी ही शक्ति से उत्पन्न हुए शिवाल-पटल से ढँके हुए वापी के जल की भाँति नहीं भासता)

तच्छैवालापनये सम्यक् सलिलं प्रतीयते शुद्धम् ।
तृष्णासन्तापहरं सद्यः सौख्यप्रदं परं पुंसः ॥ १५२ ॥
पञ्चानामपि कोशानामपवादे विभात्ययं शुद्धः ।
नित्यानन्दैकरसः प्रत्यग्रूपः परः स्वयंज्योतिः ॥ १५३ ॥

(जिस प्रकार उस शिवाल के पूर्णतया दूर हो जाने पर मनुष्यों के तृषारूपी ताप को दूर करने वाला तथा उन्हें तत्काल ही परम सुख प्रदान करने वाला जल स्पष्ट प्रतीत होने लगता है उसी प्रकार पाँचों कोशों का अपवाद करने पर यह शुद्ध, नित्यानन्दैकरस-स्वरूप , अंतर्यामी, स्वयंप्रकाश परमात्मा भासता है)

आत्मानात्मविवेकः कर्तव्यो बन्धमुक्तये विदुषा ।
तेनैवानन्दी भवति स्वं विज्ञाय सच्चिदानन्दम् ॥ १५४ ॥

(बन्धन की निवृत्ति के लिए विद्वान् को आत्मा और अनात्मा का विवेक करना चाहिए | उसी से अपने-आप को सच्चिदानन्दरूप जानकार वह आनंदित हो जाता है)

मुञ्जादिषीकमिव दृश्यवर्गात्
प्रत्यंचमात्मानमसङ्गमक्रियम् ।
विविच्य तत्र प्रविलाप्य सर्वं
तदात्मना तिष्ठति यः स मुक्तः ॥ १५५ ॥

(जो पुरुष अपने असंग और अक्रिय प्रत्यगात्मा को मूँज में से सींक के समान दृश्यवर्ग से पृथक् करके आत्मभाव में ही स्थित रहता है, वही मुक्त है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४६)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४६)

आत्मानात्म - विवेक 

नास्त्रैर्न शस्त्रैरनिलेन वह्निना 
छेत्तुं न शक्यो न च कर्मकोटिभिः ।
विवेकविज्ञानमहासिना विना 
धातुः प्रसादेन सितेन मञ्जुना ॥ १४९ ॥

(यह बन्धन विधाता की विशुद्ध कृपा से प्राप्त हुए विवेक-विज्ञान-रूप शुभ्र और मंजुल महाखड्ग के बिना और किसी अस्त्र, शस्त्र, वायु, अग्नि अथवा करोड़ों कर्मकलापों से भी नहीं काटा जा सकता)

श्रुतिप्रमाणैकमतेः स्वधर्म-
निष्ठा तयैवात्मविशुद्धिरस्य ।
विशुद्धबुद्धैः परमात्मवेदनं 
तेनैव संसारसमूलनाशः ॥ १५० ॥

जिसका श्रुतिप्रामाण्य में दृढ निश्चय होता है, उसी की स्वधर्म में निष्ठा होती है और उसी से उसकी चित्तशुद्धि हो जाती है ; जिसका चित्त शुद्ध होता है उसी को परमात्मा का ज्ञान होता है और इस ज्ञान से ही संसाररूपी वृक्ष का समूल नाश होता है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४५)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४५)

बन्ध निरूपण 

बीजं संसृतिभूमिजस्य तु तमो देहात्मधीरङ्कुरो 
रागः पल्लवमम्बु कर्म तु वपुः स्कन्धोऽसवः शाखिकाः ।
अग्राणीन्द्रिसंहतिश्च विषयाः पुष्पाणि दुःखं फलं 
नानाकर्मसमुद्भवं बहुविधं भोक्तात्र जीवः खगः ॥ १४७ ॥

(संसाररूपी वृक्ष का बीज अज्ञान है, देहात्म -बुद्धि उसका अंकुर है, राग पत्ते हैं, कर्म जल है, शरीर स्तंभ (तना) है, प्राण शाखाएं हैं, इन्द्रियाँ उपशाखाएँ (गुद्दे ) हैं, विषय पुष्प हैं और नाना प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हुआ दु:ख फल है तथा जीवरूपी पक्षी ही इनका भोक्ता है)

अज्ञानमूलोऽयमनात्मबन्धो 
नैसर्गिकोऽनादिरनन्त ईरितः ।
जन्माप्ययव्याधिजरादिदुःख-
प्रवाहपातं जनयत्यमुष्य ॥ १४८ ॥

(यह अज्ञानजनित अनात्म-बन्धन स्वाभाविक तथा अनादि और अनंत कहा गया है | यही जीव के जीवन, मरण, व्याधि और जरा(वृद्धावस्था) आदि दु:खों का प्रवाह उत्पन्न कर देता है)

नारायण ! नारायण !!

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---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४४)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४४)

आवरणशक्ति और विक्षेपशक्ति 

कवलितदिननाथे दुर्दिने सान्द्रमेघै
र्व्यथयति हिमझञ्झावायुरुग्रोयथैतान् ।
अविरततमसात्मन्यावृते मूढबुद्धिं 
क्षपयति बहुदुःखैस्तीव्रविक्षेपशक्तिः ॥ १४५ ॥

(जिस प्रकार किसी दुर्दिन में [जिस दिन आंधी, मेघ आदि का विशेष उत्पात हो] सघन मेघों के द्वारा सूर्यदेव के आच्छादित होने पर अति भयंकर और ठण्डी ठण्डी आंधी सबको खिन्न कर देती है, उसी प्रकार बुद्धि के निरन्तर तमोगुण से आवृत होने पर मूढ़ पुरुष को विक्षेप-शक्ति नाना प्रकार के दु:खों से सन्तप्त करती है)

एताभ्यामेव शक्तिभ्यां बन्धः पुंसः समागतः ।
याभ्यां विमोहितो देहं मत्वात्मानं भ्रमत्ययम् ॥ १४६ ॥

(इन दोनों [आवरण और विक्षेप] शक्तियों से ही पुरुष को बन्धन की प्राप्ति हुई है और इन्हीं से मोहित होकर यह देह को आत्मा मानकर संसार-चक्र में भ्रमता रहता है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४३)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४३)

अध्यास

अखण्डनित्याद्वयबोधशक्त्या 
स्फुरन्तमात्मानमनन्तवैभवम् 
समावृणोत्यावृतिशक्तिरेषा 
तमोमयी राहुरिवार्कविम्बम् ॥ १४१ ॥

(अखण्ड, नित्य और अद्वय बोध-शक्ति से स्फुरित होते हुए अखण्डैश्वर्यसम्पन्न आत्मतत्त्व को यह तमोमयी आवरणशक्ति इस प्रकार ढँक लेती है जैसे सूर्यमंडल को राहु)

तिरोभूत स्वात्मन्यमलतरतेजोवत पुमा-
ननात्मानं मोहादहमिति शरीरं कलयति ।
ततः कामक्रोधप्रभृतिभिरमुं बन्धनगुणैः 
परं विक्षेपाख्या रजस उरुशक्तिर्व्यथयति ॥ १४२ ॥

(अति निर्मल तेजोमय आत्मतत्त्व के तिरोभूत (अदृश्य) होने पर पुरुष अनात्मदेह को ही मोह से ‘मैं हूँ’ –ऐसा मनाने लगता है | तब रजोगुण की विक्षेप नाम वाली अति प्रबल शक्ति काम-क्रोधादि अपने बन्धनकारी गुणों से इसको व्यथित करने लगती है)

महामोहग्राहग्रसनगलितात्मावगमनो 
धियो नानावस्थाः स्वयमभिनयंस्तद्गुणतया ।
अपारे संसारे विषयविषपूरे जलनिधौ 
निमज्योन्मज्यायं भ्रमति कुमतिः कुत्सितगतिः ॥ १४३ ॥

(तब यह नाना प्रकार की नीच गतियोंवाला कुमति विषयरूपी विष से भरे हुए इस अपार संसार-समुद्र में डूबता-उछलता महामोहरूप ग्राह के पंजे में पड़कर आत्मज्ञान के नष्ट हो जाने से बुद्धि के गुणों का अभिमानी होकर उसकी नाना अवस्थाओं का अभिनय(नाट्य) करता हुआ भ्रमता रहता है)

भानुप्रभासञ्जनिताभ्रपङ्क्ति-
र्भानुं तिरोधाय विजृम्भते यथा ।
आत्मोदिताहङ्कृतिरात्मतत्त्वं 
तथा तिरोधाय विजृम्भते स्वयम् ॥ १४४ ॥

(जिस प्रकार सूर्य के तेज से उत्पन्न हुई मेघमाला सूर्य ही को ढँककर स्वयं फैल जाती है, उसी प्रकार आत्मा से प्रकट हुआ अहंकार आत्मा को ही आच्छादित करके स्वयं स्थित हो जाता है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४२)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४२)

अध्यास

अत्रानात्मन्यहमिति मतिर्बन्ध एषोऽस्य पुंसः
प्राप्तोऽज्ञानाज्जननमरणक्लेशसम्पातहेतुः ।
येनैवायं वपुरिदमसत्सत्यमित्यात्मबुद्ध्या
पुष्यत्युक्षत्यवति विषयैस्तन्तुभिः कोशकृद्वत् ॥ १३९ ॥

(पुरुष का अनात्म-वस्तुओं में ‘अहम्’- इस आत्मबुद्धि का होना ही जन्म-मरणरूपी क्लेशों की प्राप्ति कराने वाला अज्ञान से प्राप्त हुआ बन्धन है; जिसके कारण यह जीव असत् शरीर को सत्य समझकर इसमें आत्मबुद्धि हो जाने से, तन्तुओं से रेशम के कीड़े के समान, इसका विषयों द्वारा पोषण, मार्जन और रक्षण करता रहता है)

अतस्मिंस्तद्बुद्धिः प्रभवति विमूढस्य तमसा
विवेकाभावाद्वै स्फुरति भुजगे रज्जुधिषणा ।
ततोऽनर्थव्रातो निपतति समादातुरधिक-
स्ततो योऽसद्ग्राहः स हि भवति बन्धः श्रुणु सखे ॥ १४० ॥

(मूढ़ पुरुष को तमोगुण के कारण ही अन्य में अन्य-बुद्धि होती है, विवेक न होने से ही रज्जु में सर्प-बुद्धि होती है; ऐसी बुद्धि वाले को ही नाना प्रकार के अनर्थों का समूह आ घेरता है, अत: हे मित्र ! सुन , यह जो असद्ग्राह (असत् को सत्य मानना) है , वही बन्धन है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४१)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४१)

आत्म निरूपण

अत्रैव सत्त्वात्मनि धीगुहाया-
मव्याकृताकाश उरुप्रकाशः ।
आकाश उच्चै रविवत्प्रकाशते
स्वतेजसा विश्वमिदं प्रकाशयन् ॥ १३४ ॥

(इस सत्त्वात्मा अर्थात् बुद्धिरूप गुहा में स्थित अव्यक्ताकाश के भीतर एक परमप्रकाशमय आकाश सूर्य के समान अपने तेज से इस सम्पूर्ण जगत् को देदीप्यमान करता हुआ बड़ी तीव्रता से प्रकाशमान हो रहा है)

ज्ञाता मनोऽहङ्कृतिविक्रियाणां
देहेन्द्रियप्राणकृतक्रियाणाम् ।
अयोऽग्निवत्ताननुवर्तमानो
न वेष्टते नो विकरोति किञ्चन ॥ १३५ ॥

(वह मन और अहंकाररूप विचारों का तथा देह,इन्द्रिय और प्राणों की क्रियाओं का ज्ञाता है | तथा तपाए हुए लोहपिण्ड के समान उनका अनुवर्तन करता हुआ भी न कुछ चेष्टा करता है और न विकार को ही प्राप्त होता है)

न जायते नो म्रियते न वर्धते
न क्षीयते नो विकरोति नित्यः ।
विलीयमानेऽपि वपुष्यमुष्मिन्
न लीयते कुम्भ इवाम्बरं स्वयम् ॥ १३६ ॥

(वह न जन्मता है, न मरता है, न बढता है, न घटता है और न विकार को प्राप्त होता है | वह नित्य है और शरीर के लीन होने पर भी घट के टूटने पर घटाकाश के समान लीन नहीं होता)

प्रकृतिविकृतिभिन्नः शुद्धबोधस्वभावः
सदसदिदमशेषं भासयन्निर्विशेषः ।
विलसति परमात्मा जाग्रदादिष्ववस्था-
स्वहमहमिति साक्षात् साक्षिरूपेण बुद्घेः ॥ १३७ ॥

(प्रकृति और उसके विकारों से भिन्न, शुद्ध ज्ञानस्वरूप , वह निर्विशेष परमात्मा सत्-असत् सबको प्रकाशित करता हुआ जाग्रत् आदि अवस्थाओं में अहंभाव से स्फुरित होता हुआ बुद्धि के साक्षीरूप से साक्षात् विराजमान है)

नियमितमनसामुं त्वं स्वमात्मानमत्म-
न्ययमहमिति साक्षाद्विद्धि बुद्धिप्रसादत् ।
जनिमरणतरङ्गापारसंसारसिन्धु
प्रतर भव कृर्तार्थो ब्रह्मरूपेण संस्थः ॥ १३८ ॥

(तू इस आत्मा को संयतचित्त होकर बुद्धि के प्रसन्न होने पर ‘यह मैं हूँ’—ऐसा अपने अंत:करण में साक्षात् अनुभव कर | और [इसप्रकार] जन्म-मरणरूपी तरंगों वाले इस अपार संसार-सागर को पार कर तथा ब्रह्मरूप से स्थित होकर कृतार्थ हो जा)

नारायण ! नारायण !!

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मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४०)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४०)

आत्म निरूपण 

अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः ।
यद्विज्ञाय नरो बन्धान्मुक्तः कैवल्यमश्नुते ॥ १२६ ॥

(अब मैं तुझे परमात्मा का स्वरूप बताता हूँ जिसे जानकार मनुष्य बन्धन से छूटकर कैवल्यपद प्राप्त करता है)

अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यमहंप्रत्ययलम्बनः ।
अवस्थात्रयसाक्षी सन्पञ्चकोशविलक्षणः ॥ १२७ ॥

(अहं-प्रत्यय की आधार कोई स्वयं नित्य पदार्थ है, जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी होकर भी पञ्चकोशातीत है)

यो विजनाति सकलं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ।
बुद्धितद्वृत्तिसद्भावनमभावमहमित्ययम् ॥ १२८ ॥

(जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में बुद्धि और उसकी वृत्तियों के होने और न होने को ‘अहंभाव’ से स्थित हुआ जानता है)

यः पश्यति स्वयं सर्वं यं न पश्यति कश्चन ।
यश्चेतयति बद्ध्यादिं न तु यं चेतयत्ययम् ॥ १२९ ॥

(जो स्वयं सबको देखता है किन्तु जिसको कोई नहीं देख सकता, जो बुद्धि आदि को प्रकाशित करता है, किन्तु जिसको बुद्धि आदि प्रकाशित नहीं कर सकते)

येन विश्वमिदं व्यापतं यन्न व्याप्नोति किञ्चन ।
आभारूपमिदं सर्वं यं भान्तमनुभात्ययम् ॥ १३० ॥

(जिसने सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किया हुआ है, किन्तु जिस को कोई व्याप्त नहीं कर सकता तथा जिसके भासने पर यह आभासरूप सारा जगत भासित हो रहा है)

यस्य सन्निधिमात्रेण देहेन्द्रियमनोधियः ।
विषयेषु स्वकीयेषु वर्तन्ते प्रेरिता इव ॥ १३१ ॥

( जिसकी सन्निधिमात्र से देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि प्रेरित हुए- से अपने अपने विषयों में बर्तते हैं )

अहङ्कारादिदेहान्ता विषयाश्च सुखादयः ।
वेद्यन्ते घटवद्येन नित्यबोधस्वरूपिणा ॥ १३२ ॥

(अहंकार से लेकर देहपर्यन्त और सुख आदि समस्त विषय जिस नित्यज्ञानस्वरूप के द्वारा घट के समान जाने जाते हैं)

एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो 
निरन्तराखण्डसुखानुभूतिः ।
सदैकरूपः प्रतिबोधमात्रो 
येनेषिता वागसवश्चरन्ति ॥ १३३ ॥

(यही नित्य अखण्डानन्दानुभवरूप अंतरात्मा पुराणपुरुष है, जो सदा एकरूप और बोधमात्र है तथा जिसकी प्रेरणा से वागादि इन्द्रियाँ और प्राणादि चलते हैं )

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३९)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३९)

अनात्म निरूपण 

देहेन्द्रियप्राणमनोऽहमादयः
सर्व विकारा विषयाः सुखादय ।
व्योमादिभूतान्यकिलं च विश्व-
मव्यक्तपर्यन्तमिदं ह्यनात्मा ॥ १२४ ॥

(देह, इन्द्रिय, प्राण, मन और अहंकार आदि सारे विकार , सुखादि सम्पूर्ण विषय, आकाशादि भूत और अव्यक्त पर्यन्त निखिल विश्व- ये सभी अनात्मा है)

माया मायाकार्यं सर्वं महदादि देहपर्यन्तम् ।
असदिदमनात्मकं त्वं विद्धि मरुमरीचिकाकल्पम् ॥ १२५ ॥

(माया और महत्तत्व से लेकर देहपर्यन्त माया के सम्पूर्ण कार्यों को तू मरुमरीचिका के समान असत् और अनात्मक जान)


नारायण ! नारायण !!

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अनात्म निरूपण 

देहेन्द्रियप्राणमनोऽहमादयः 
सर्व विकारा विषयाः सुखादय ।
व्योमादिभूतान्यकिलं च विश्व-
मव्यक्तपर्यन्तमिदं ह्यनात्मा ॥ १२४ ॥

(देह, इन्द्रिय, प्राण, मन और अहंकार आदि सारे विकार , सुखादि सम्पूर्ण विषय, आकाशादि भूत और अव्यक्त पर्यन्त निखिल विश्व- ये सभी अनात्मा है)

माया मायाकार्यं सर्वं महदादि देहपर्यन्तम् ।
असदिदमनात्मकं त्वं विद्धि मरुमरीचिकाकल्पम् ॥ १२५ ॥

(माया और महत्तत्व से लेकर देहपर्यन्त माया के सम्पूर्ण कार्यों को तू मरुमरीचिका के समान असत् और अनात्मक जान)


नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३८)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३८)

कारण शरीर 

अव्यक्तमेतत्त्रिगुणैर्निरुक्तं
तत्कारणं नाम शरीरमात्मनः ।
सुषुप्तिरेतस्य विभक्त्यवस्था
प्रलीनसर्वेन्द्रियबुद्धिवृत्तिः ॥ १२२ ॥

(इस प्रकार तीनों गुणों के निरूपण से यह अव्यक्त का वर्णन हुआ | यही आत्मा का कारण-शरीर है | इसकी अभिव्यक्ति की अवस्था सुषुप्ति है, जिसमें बुद्धि की सम्पूर्ण वृत्तियाँ लीन हो जाती हैं)

सर्वप्रकारप्रमितिप्रशान्ति-
र्बीजात्मनावस्थितिरेव बुद्धेः ।
सुषुप्तिरेतस्य किल प्रतीतिः
किञ्चिन्न वेद्मीति जगत्प्रसिद्धे ॥ १२३ ॥

(जहां सब प्रकार की प्रमा (ज्ञान) शान्त हो जाती है और बुद्धि बीजरूप से ही स्थिर रहती है, वह सुषुप्ति अवस्था है , इसकी प्रतीति ‘मैं कुछ नहीं जानता’ – ऐसी लोक-प्रसिद्ध उक्ति से होती है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३७)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३७)

सत्त्वगुण

सत्त्वं विशुद्धं जलवत्तथापि
ताभ्यां मिलित्वा सरणाय कल्पते ।
यत्रात्मबिम्बः प्रतिबिम्बितः सन्
प्रकाशयत्यर्क इवाखिलं जडम् ॥ ११९ ॥

(सत्त्वगुण जल के समान शुद्ध है, तथापि रज और तम से मिलने पर वह भी पुरुष की प्रवृत्ति का कारण होता है; इसमें प्रतिबिंबित होकर आत्मबिम्ब सूर्य के समान समस्त जड पदार्थों को प्रकाशित करता है)

मिश्रस्य सत्त्वस्य भवन्ति धर्मा-
स्त्वमानिताद्या नियमा यमाद्याः ।
श्रद्धा च भक्तिश्च मुमुक्षुता च
दैवी च सम्पत्तिरसन्निवृत्तिः ॥ १२० ॥

(अमानित्व आदि यम-नियमादि, श्रद्धा,भक्ति, मुमुक्षता, दैवी-सम्पत्ति तथा असत् का त्याग- ये मिश्र (रज-तम से मिले हुए) सत्त्वगुण के धर्म हैं)

विशुद्धसत्त्वस्य गुणाः प्रसादः
स्वात्मनुभूतिः परमा प्रशान्तिः ।
तृप्तिः प्रहर्षः परमात्मनिष्ठा
यया सदानन्दरसं समृच्छति ॥ १२१ ॥

(प्रसन्नता,आत्मानुभव, परमशांति, तृप्ति ,आत्यन्तिक आनन्द और परमात्मा में स्थिति- ये विशुद्ध सत्त्वगुण के धर्म हैं, जिनसे मुमुक्षु नित्यानन्दरस को प्राप्त करता है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३६)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३६)

तमोगुण

अभावना वा विपरीतभावना-
सम्भावना विप्रतिपत्तिरस्याः ।
संसर्गयुक्तं न विमुञ्चति ध्रुवं
विक्षेपशक्तिः क्षपयत्यजस्रम् ॥ ११७ ॥

(तमोगुण की इस आवरण-शक्ति के संसर्ग से युक्त पुरुष को अभावना, विपरीतभावना, असम्भावना और विप्रतिपत्ति – ये तमोगुण की शक्तियां नहीं छोडतीं और विक्षेप-शक्ति भी उसे निरन्तर डावाँडोल ही रखती है) #

अज्ञानमालस्यजडत्वनिद्रा
प्रमादमूढत्वमुखास्तमोगुणाः ।
एतैः प्रयुक्तो न हि वेति किञ्चि-
न्निद्रालुवत्स्तम्भवदेव तिष्ठति ॥ ११८ ॥

(अज्ञान, आलस्य, जडता, निद्रा, प्रमाद, मूढता आदि तम के गुण हैं | इनसे युक्त हुआ पुरुष कुछ नहीं समझता; वह निद्रालु या स्तम्भ के समान [जडवत्] रहता है)
................................................

#‘ ब्रह्म नहीं है’-जिससे ऐसा ज्ञान हो वह ‘अभावना’ कहलाती है | ‘मैं शरीर हूँ’-यह ‘विपरीत भावना’ है | किसी के होने में संदेह – ‘असम्भावना’ है और ‘है या नहीं’-इस तरह के संशय को ‘विप्रतिपत्ति’ कहते हैं | ‘प्रपञ्च का व्यवहार’ ही माया के ‘विक्षेप-शक्ति’ है |

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३५)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३५)

तमोगुण

एषावृतिर्नाम तमोगुणस्य
शक्तिर्यया वस्त्वभासतेऽन्यथा ।
सैषा निदानं पुरुष्य संसृते-
र्विक्षेपशक्तेः प्रसरस्य हेतुः ॥ ११५ ॥

(जिसके कारण वस्तु कुछ-की-कुछ प्रतीत होने लगती है वह तमोगुण की आवरणशक्ति है | यही पुरुष के (जन्म-मरण-रूप) संसार का आदि-कारण है और यही विक्षेपशक्ति के प्रसार का भी हेतु है)

प्रज्ञावानपि पण्डितोऽपि चतुरोऽप्यत्सन्तसूक्ष्मार्थदृक्
व्यालीढस्तमसा न वेत्ति बहुधा सम्बोधितोऽपि स्फुटम् ।
भ्रान्त्यारोपितमेव साधु कलयत्यालम्बते तद्गुणान्
हन्तासौ प्रबला दुरन्ततमसः शक्तिर्महत्यावृतिः ॥ ११६॥

(तम से ग्रस्त हुआ पुरुष अति बुद्धिमान्, विद्वान, चतुर और शास्त्र के अत्यन्त सूक्ष्म अर्थों को देखने वाला भी हो तो भी वह नाना प्रकार समझाने से भी अच्छी तरह नहीं समझता; वह भ्रम से आरोपित किये हुए पदार्थों को ही सत्य समझता है और उन्हीं के गुणों का आश्रय लेता है | अहो ! दुरन्त तमोगुण की यह महती आवरण-शक्ति बड़ी ही प्रबल है)

नारायण ! नारायण !!

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---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३४)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३४)

रजोगुण

विक्षेपशक्ती रजसः क्रियात्मिका
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।
रागदयोऽस्याः प्रभवन्ति नित्यं
दुःखादयो ये मनसोविकाराः ॥ ११३ ॥

(क्रियारूपा विक्षेपशक्ति रजोगुण की है जिससे सनातनकाल से समस्त क्रियाएँ होती आई हैं और जिससे रागादि और दु:खादि, जो मन के विकार हैं, सदा उत्पन्न होते हैं)

कामः क्रोधो लोभदम्भाद्यसूया-
हङ्कारेर्ष्यामत्सराद्यास्तु घोराः ।
धर्मा एते राजसाः पुम्प्रवृत्ति-
र्यस्मादेषा तद्रजो बन्धहेतुः ॥ ११४ ॥

(काम, क्रोध, लोभ, दंभ, असूया [गुणों में दोष ढूँढना], अभिमान, ईर्ष्या और मत्सर –ये घोर धर्म रजोगुण के ही हैं | अत: जिसके कारण जीव कर्मों में प्रवृत्त होता है , वह रजोगुण ही उसके बन्धन का हेतु है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३३)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३३)

माया निरूपण

अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति-
रनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा ।
कार्यानुमेया सुधियैव माया
यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते ॥ ११० ॥

(जो अव्यक्त नाम वाली त्रिगुणात्मिका अनादि अविद्या परमेश्वर की पराशक्ति है, वही माया है; जिससे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है | बुद्धिमान जन इसके कार्य से ही इसका अनुमान करते हैं)

सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो
भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मका नो ।
साङ्गाप्यनङ्गाप्युभयात्मिका नो
महाद्भुतानिर्वचनीयरूपा ॥ १११ ॥

(वह न सत् है न असत् है और न [सदसत् ] उभयरूप है; न भिन्न है न अभिन्न है और न [भिन्नाभिन्न] उभयरूप है, न अंगसहित है न अंगरहित है और न [साङ्गानंग] उभयात्मिका ही है; किन्तु अत्यन्त अद्भुत और अनिर्वचनीयरूपा [जो कही न जा सके ऐसी] है)

शुद्धाद्वयब्रह्मविबोधनाश्य
सर्पभ्रमो रज्जुविवेकतो यथा ।
रजस्तमः सत्त्वमिति प्रसिद्धा
गुणास्तदीयाः प्रथितैः स्वकार्यैः ॥ ११२ ॥

(रज्जु के ज्ञान से सर्प-भ्रम समान वह अद्वितीय शुद्ध ब्रह्म के ज्ञान से नष्ट होने वाली है | अपने अपने प्रसिद्ध कार्यों के कारण सत्त्व, रज और तम—ये उसके तीन गुण प्रसिद्ध हैं)

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३२)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३२)

प्रेम की आत्मार्थता 

आत्मार्थत्वेन हि प्रेयान् विषयो न स्वतः प्रियः ।
स्वत एव हि सर्वेषामात्मा प्रियतमो यतः ॥ १०८ ॥

(विषय स्वत: प्रिय नहीं होते, किन्तु आत्मा के लिए ही प्रिय होते हैं, क्योंकि स्वत: प्रियतम तो सबका आत्मा ही है)

तत आत्मा सदानन्दो नास्य दुःखं कदाचन ।
यत्सुषुप्तौ निर्विषय आत्मानन्दोऽनुभूयते ।
श्रुतिः प्रयक्षमैतिह्यमनुमानं च जाग्रति ॥ १०९ ॥

(इसलिए आत्मा सदा आनंदस्वरूप है, इसमें दु:ख कभी नहीं है | तभी सुषुप्ति में विषयों का भाव रहते हुए भी आत्मानंद का अनुभव होता है | इसमें विषय, श्रुति, प्रत्यक्षा, ऐतिह्य (इतिहास) और अनुमान- प्रमाण जागृत [मौजूद] हैं)

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३१)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३१)

प्राण के धर्म

उच्छ्‌वासनिःश्वासविजृम्भणक्षुत्
प्रस्पन्दनाद्युत्क्रमणादिकाः क्रियाः ।
प्राणादिकर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः
प्राणस्य धर्मावशनापिपासे ॥ १०४ ॥

(श्वास,प्रश्वास, जम्हाई,छींक,काँपना और उछलना आदि क्रियाओं को तत्त्वज्ञ प्राणादि का धर्म बतलाते हैं तथा क्षुधा-पिपासा भी प्राण ही के धर्म हैं)

अहंकार

अन्तः करणमेतेषु चक्षुरादिषु वर्ष्मणि ।
अहमित्यभिमानेन तिष्ठत्याभासतेजसा ॥ १०५ ॥

(शरीर के अंदर इन चक्षु आदि इन्द्रियों (इन्द्रिय के गोलकों) –में चिदाभास के तेज से व्याप्त हुआ अंत:करण “मैं-पन” का अभिमान करता हुआ स्थिर रहता है)

अहङ्कारः स विज्ञेयः कर्ता भोक्ताभिमान्ययम् ।
सत्त्वादिगुणयोगेन चावस्थात्रयमश्नुते ॥ १०६ ॥

(इसीको अहंकार जानना चाहिए | यही करता,भोक्ता तथा मैं-पन का अभिमान करने वाला है और यही सत्त्व आदि गुणों के योग से तीनों अवस्थाओं को प्राप्त होता है)

विषयाणामानुकूल्ये सुखी दुःखी विपर्यये ।
सुखं दुःखं च तद्धर्मः सदानन्दस्य नात्मनः ॥ १०७ ॥

(विषयों की अनुकूलता से यह सुखी और प्रतिकूलता से दु:खी होता है | सुख और दु:ख इस अहंकार के ही धर्म हैं, नित्यानन्दस्वरूप आत्मा के नहीं)

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३०)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३०)

सूक्ष्म शरीर 

धीमात्रकोपाधिरशेषसाक्षी
न लिप्यते तत्कृतकर्मलेशैः ।
यस्मादसङ्गस्तत एव कर्मभि-
र्न लिप्यते किञ्चिदुपाधिना कृतैः ॥ १०१ ॥

(बुद्धि ही जिसकी उपाधि है ऐसा वह सर्वसाक्षी उस(बुद्धि)- के किये हुए कर्मों से तनिक भी लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह असंग है अत: उपाधिकृत कर्मों से तनिक भी लिप्त नहीं हो सकता)

सर्वव्यापृतिकरणं लिंगमिदं स्याच्चिदात्मनः पुंसः ।
वास्यादिकमिव तक्ष्णस्तेनैवात्मा भवत्यसङ्गोयम् ॥ १०२ ॥

(यह लिंगदेह चिदात्मा पुरुष के सम्पूर्ण व्यापारों का करण है,जिस प्रकार बढ़ई का बसोला होता है | इसीलिए यह आत्मा असंग है)

अन्धत्वमन्दत्वपटुत्वधर्माः
सैगुण्यवैगुण्यवशाद्धि चक्षुषः ।
बाधिर्यमूकत्वमुखास्तथैव
श्रोत्रादिधर्मा न तु वेत्तुरात्मनः ॥ १०३ ॥

(नेत्रों के सदोष अथवा निर्दोष होने से प्राप्त हुए अंधापन,धुँधला अथवा स्पष्ट देखना आदि नेत्रों के ही धर्म हैं; इसी प्रकार बहरापन,गूँगापन आदि भी श्रोत्रादि के ही धर्म हैं; सर्वसाक्षी आत्मा के नहीं)

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२९)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२९)

सूक्ष्म शरीर

वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च
प्राणादिपञ्चाभ्रमुखानि पञ्च ।
बुद्ध्याद्यविद्यापि च कामकर्मणी
पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः ॥ ९८ ॥

(वागादि पांच कर्मेन्द्रियाँ,श्रवणादि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ,प्राणादि पांच प्राण, आकाशादि पांच भूत, बुद्धि आदि अंत:करण-चतुष्टय, अविद्या तथा काम और कर्म यह पुर्यष्टक अथवा सूक्ष्म शरीर कहलाता है)

इदं शरीरं श्रृणु सूक्ष्मसंज्ञितं
लिङ्गं त्वपञ्चीकृतभूतसम्भवम् ।
सवासनं कर्मफलानुभावकं
स्वाज्ञानतोऽनादिरुपाधिरात्मनः ॥ ९९ ॥

(यह सूक्ष्म अथवा लिंगशरीर अपञ्चीकृत भूतों से उत्पन्न हुआ है; यह वासनायुक्त होकर कर्म फलों का अनुभव कराने वाला है | और स्वस्वरूप का ज्ञान न होने के कारण आत्मा की अनादि उपाधि है)

स्वप्नो भवत्यस्य विभक्त्यवस्था
स्वमात्रशेषेण विभाति यत्र ।
स्वप्ने तु बुद्धिः स्वयमेव जाग्रत्-
कालीननानाविधवासनाभिः ।
कर्त्रादिभावं प्रतिपद्य राजते
यत्र स्वयंज्योतिरयं परात्मा ॥ १०० ॥

(स्वप्न इसकी अभिव्यक्ति की अवस्था है , जहां यह स्वयं ही बचा हुआ भासता है | स्वप्न में जहां यह स्वयंप्रकाश परात्मा शुद्ध चेतन ही [भिन्न भिन्न पदार्थों के रूप में] भासता है, बुद्धि जाग्रत्- कालीन नाना प्रकार की वासनाओं से, कर्ता आदि भावों को प्राप्त होकर स्वयं ही प्रतीत होने लगती है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२८)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२८)

दस इन्द्रियाँ 

बुद्धीन्द्रियाणि श्रवणं त्वगक्षि 
घ्राणं च जिह्वा विषयावबोधनात् ।
वाक्पाणिपादं गुदमप्युपस्थः 
कर्मेन्द्रियाणि प्रवणेन कर्मसु ॥ ९४ ॥

(श्रवण, त्वचा, नेत्र,घ्राण और जिह्वा–ये पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनसे विषय का ज्ञान होता है; तथा वाक्, पाणि, पाद, गुदा और उपस्थ-ये कर्मेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनका कर्मों की ओर झुकाव होता है )


अंत:करण चतुष्टय:

निगद्यतेऽन्तःकरणं मनोधी-
रहंकृतिश्चित्तमिति स्ववृत्तिभिः ।
मनस्तु सङ्कल्पविकल्पनादिभि-
र्बुद्धिः पदार्थाध्यवसायधर्मतः ॥ ९५ ॥
अत्राभिमानादहमित्यहङ्कृतिः 
स्वार्थानुसन्धानगुणेन चित्तम् ॥ ९६ ॥

(अपनी वृत्तियों के कारण अंत:करण मन,बुद्धि, चित्त और अहंकार [इन चार नामों से] कहा जाता है | संकल्प-विकल्प के कारण मन, पदार्थ का निश्चय करने के कारण बुद्धि, ‘अहम्-अहम्’ (मैं-मैं) ऐसा अभिमान करने से अहंकार, और अपना इष्ट चिंतन के कारण यह चित्त कहलाता है) 

पञ्चप्राण 

प्राणापानव्यानोदानसमाना भवत्यसौ प्राणः ।
स्वयमेव वृत्तिभेदाद्विकृतिभेदात्सुवर्णसलिलादिवत् ॥ ९७ ॥

(अपने विकारों के कारण सुवर्ण और जल आदिके समान स्वयं प्राण ही वृत्तिभेद से प्राण,अपान,व्यान,उदान और समान – इन पांच नामों वाला होता है)

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२७)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२७)

स्थूल शरीर 

त्वङ्मांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंकुलम् ।
पूर्णं मूत्रपुरीषाभ्यां स्थूलं निन्द्यमिदं वपुः ॥ ८९ ॥

(त्वचा,मांस,रक्त,स्नायु (नस),मेद मज्जा और अस्थियों का समूह तथा मल-मूत्र से भरा हुआ यह स्थूल देह अति निंदनीय है)

पञ्चीकृतेभ्यो भूतेभ्यः स्थूलेभ्यः पूर्वकर्मणा ।
समुत्पन्नमिदं स्थूलं भोगायतनमात्मनः ।
अवस्था जागरस्तस्य स्थूलार्थानुभवो यतः ॥ ९० ॥

(पंचीकृत स्थूल भूतों से पूर्व-कर्मानुसार उत्पन्न हुआ यह शरीर आत्मा का स्थोल भोगायतन है; इसकी [प्रतीति की] अवस्था जाग्रत् है, जिसमें कि स्थूल पदार्थों का अनुभव होता है )

बाह्येन्द्रियैः स्थूलपदार्थसेवां
स्रक्चन्दनस्त्र्यादिविचित्ररूपाम् ।
करोति जीवः स्वयमेतदात्मना
तस्मात्प्रशस्तिर्वपुषोऽस्य जागरे ॥ ९१ ॥

(इससे तादात्म्य को प्राप्त होकर ही जीव माला , चन्दन तथा स्त्री अदि नाना प्रकार के स्थूल पदार्थों को बाह्येंद्रियों से सेवन कर्ता है, इसलिए जाग्रत-अवस्था में इस स्थूल देह की प्रधानता है)

सर्वोऽपि बाह्यसंसारः पुरुषस्य यदाश्रयः ।
विद्धि देहमिदं स्थूलं गृहवद्गृहमेधिनः ॥ ९२ ॥

(जिसके आश्रय से जीव को सम्पूर्ण बाह्य जगत् प्रतीत होता है, गृहस्थ के घर के तुल्य उसे ही स्थूल देह जानो)

स्थूलस्य सम्भवजरामरणानि धर्माः
स्थौल्यादयो बहुविधाः शिशुताद्यवस्था ।
वर्णाश्रमादिनियमा बहुधा यमाः स्युः
पूजावमानबहुमानमुखा विशेषाः ॥ ९३ ॥

(स्थूल देह के ही जन्म, जरा, मरण, तथा स्थूलता आदि धर्म हैं; बालकपन आदि नाना प्रकार की अवस्थाएं हैं; वर्णाश्रमादि अनेक प्रकार के नियम और यम हैं; तथा इसी की पूजा, मान अपमान आदि विशेषताएं हैं)

नारायण ! नारायण !!

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०८) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन काल...