बुधवार, 30 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह

ऋषिरुवाच ।
बाढमुद्वोढुकामोऽहं अप्रत्ता च तवात्मजा ।
आवयोः अनुरूपोऽसौ आद्यो वैवाहिको विधिः ॥ १५ ॥
कामः स भूयान् नरदेव तेऽस्याः
     पुत्र्याः समाम्नायविधौ प्रतीतः ।
क एव ते तनयां नाद्रियेत
     स्वयैव कान्त्या क्षिपतीमिव श्रियम् ॥ १६ ॥
यां हर्म्यपृष्ठे क्वणदङ्‌घ्रिशोभां
     विक्रीडतीं कन्दुकविह्वलाक्षीम् ।
विश्वावसुर्न्यपतत् स्वात् विमानात्
     विलोक्य सम्मोहविमूढचेताः ॥ १७ ॥
तां प्रार्थयन्तीं ललनाललामं
     असेवितश्रीचरणैरदृष्टाम् ।
वत्सां मनोरुच्चपदः स्वसारं
     को नानुमन्येत बुधोऽभियाताम् ॥ १८ ॥
अतो भजिष्ये समयेन साध्वीं
     यावत्तेजो बिभृयाद् आत्मनो मे ।
अतो धर्मान् पारमहंस्यमुख्यान्
     शुक्लप्रोक्तान् बहु मन्येऽविहिंस्रान् ॥ १९ ॥
यतोऽभवद्‌विश्वमिदं विचित्रं
     संस्थास्यते यत्र च वावतिष्ठते ।
प्रजापतीनां पतिरेष मह्यं
     परं प्रमाणं भगवान् अनन्तः ॥ २० ॥

श्रीकर्दम मुनिने कहा—ठीक है, मैं विवाह करना चाहता हूँ और आपकी कन्या का अभी किसी के साथ वाग्दान नहीं हुआ है, इसलिये हम दोनों का सर्वश्रेष्ठ ब्राह्म [*] विधि से विवाह होना उचित ही होगा ॥ १५ ॥ राजन् ! वेदोक्त विवाह-विधि में प्रसिद्ध जो ‘गृभ्णामि ते’ इत्यादि मन्त्रोंमें बताया हुआ काम (संतानोत्पादनरूप मनोरथ) है, वह आपकी इस कन्याके साथ हमारा सम्बन्ध होनेसे सफल होगा। भला, जो अपनी अङ्गकान्तिसे आभूषणादिकी शोभाको भी तिरस्कृत कर रही है, आपकी उस कन्याका कौन आदर न करेगा ? ॥ १६ ॥ एक बार यह अपने महलकी छतपर गेंद खेल रही थी। गेंदके पीछे इधर-उधर दौडऩेके कारण इसके नेत्र चञ्चल हो रहे थे तथा पैरोंके पायजेब मधुर झनकार करते जाते थे। उस समय इसे देखकर विश्वावसु गन्धर्व मोहवश अचेत होकर अपने विमानसे गिर पड़ा था ॥ १७ ॥ वही इस समय यहाँ स्वयं आकर प्रार्थना कर रही है; ऐसी अवस्थामें कौन समझदार पुरुष इसे स्वीकार न करेगा ? यह तो साक्षात् आप महाराज श्रीस्वायम्भुव मनु की दुलारी कन्या और उत्तानपाद की प्यारी बहिन है तथा यह रमणियोंमें रत्नके समान है। जिन लोगोंने कभी श्रीलक्ष्मीजीके चरणोंकी उपासना नहीं की है, उन्हें तो इसका दर्शन भी नहीं हो सकता ॥ १८ ॥ अत: मैं आपकी इस साध्वी कन्याको अवश्य स्वीकार करूँगा, किन्तु एक शर्तके साथ। जबतक इसके संतान न हो जायगी, तबतक मैं गृहस्थ-धर्मानुसार इसके साथ रहूँगा। उसके बाद भगवान्‌के बताये हुए संन्यासप्रधान हिंसारहित शम-दमादि धर्मोंको ही अधिक महत्त्व दूँगा ॥ १९ ॥ जिनसे इस विचित्र जगत् की उत्पत्ति हुई है, जिनमें यह लीन हो जाता है और जिनके आश्रयसे यह स्थित है—मुझे तो वे प्रजापतियोंके भी पति भगवान्‌ श्रीअनन्त ही सबसे अधिक मान्य हैं ॥ २० ॥
.......................................................
[*] मनुस्मृतिमें आठ प्रकारके विवाहोंका उल्लेख पाया जाता है—(१) ब्राह्म, (२) दैव, (३) आर्ष, (४) प्राजापत्य, (५) आसुर, (६) गान्धर्व, (७) राक्षस और (८) पैशाच। इनके लक्षण वहीं तीसरे अध्यायमें देखने चाहिये। इनमें पहला सबसे श्रेष्ठ माना गया है। इसमें पिता योग्य वरको कन्याका दान करता है।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह

स भवान् दुहितृस्नेह परिक्लिष्टात्मनो मम ।
श्रोतुमर्हसि दीनस्य श्रावितं कृपया मुने ॥ ८ ॥
प्रियव्रतोत्तानपदोः स्वसेयं दुहिता मम ।
अन्विच्छति पतिं युक्तं वयःशीलगुणादिभिः ॥ ९ ॥
यदा तु भवतः शील श्रुतरूपवयोगुणान् ।
अशृणोत् नारदाद् एषा त्वय्यासीत् कृतनिश्चया ॥ १० ॥
तत्प्रतीच्छ द्विजाग्र्येमां श्रद्धयोपहृतां मया ।
सर्वात्मनानुरूपां ते गृहमेधिषु कर्मसु ॥ ११ ॥
उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादो न शस्यते ।
अपि निर्मुक्तसङ्गस्य कामरक्तस्य किं पुनः ॥ १२ ॥
य उद्यतमनादृत्य कीनाशं अभियाचते ।
क्षीयते तद्यशः स्फीतं मानश्चावज्ञया हतः ॥ १३ ॥
अहं त्वाश्रृणवं विद्वन् विवाहार्थं समुद्यतम् ।
अतस्त्वं उपकुर्वाणः प्रत्तां प्रतिगृहाण मे ॥ १४ ॥

(मनुजी कर्दमजी से कहरहे हैं) मुने! इस कन्या के स्नेहवश मेरा चित्त बहुत चिन्ताग्रस्त हो रहा है; अत: मुझ दीनकी यह प्रार्थना आप कृपापूर्वक सुनें ॥ ८ ॥ यह मेरी कन्या—जो प्रियव्रत और उत्तानपादकी बहिन है—अवस्था, शील और गुण आदिमें अपने योग्य पतिको पानेकी इच्छा रखती है ॥ ९ ॥ जबसे इसने नारदजीके मुखसे आपके शील, विद्या, रूप, आयु और गुणोंका वर्णन सुना है, तभीसे यह आपको अपना पति बनानेका निश्चय कर चुकी है ॥ १० ॥ द्विजवर ! मैं बड़ी श्रद्धासे आपको यह कन्या समर्पित करता हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिये। यह गृहस्थोचित कार्योंके लिये सब प्रकार आपके योग्य है ॥ ११ ॥ जो भोग स्वत: प्राप्त हो जाय, उसकी अवहेलना करना विरक्त पुरुषको भी उचित नहीं है; फिर विषयासक्तकी तो बात ही क्या है ॥ १२ ॥ जो पुरुष स्वयं प्राप्त हुए भोगका निरादर कर फिर किसी कृपणके आगे हाथ पसारता है, उसका बहुत फैला हुआ यश भी नष्ट हो जाता है और दूसरोंके तिरस्कारसे मानभङ्ग भी होता है ॥ १३ ॥ विद्वन् ! मैंने सुना है, आप विवाह करनेके लिये उद्यत हैं। आपका ब्रह्मचर्य एक सीमातक है, आप नैष्ठिक ब्रह्मचारी तो हैं नहीं। इसलिये अब आप इस कन्याको स्वीकार कीजिये, मैं इसे आपको अर्पित करता हूँ ॥ १४ ॥

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सोमवार, 28 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह

मैत्रेय उवाच -
एवं आविष्कृताशेष गुणकर्मोदयो मुनिम् ।
सव्रीड इव तं सम्राड् उपारतमुवाच ह ॥ १ ॥

मनुरुवाच -
ब्रह्मासृजत्स्वमुखतो युष्मान् आत्मपरीप्सया ।
छन्दोमयस्तपोविद्या योगयुक्तानलम्पटान् ॥ २ ॥
तत्त्राणायासृजत् चास्मान् दोः सहस्रात्सहस्रपात् ।
हृदयं तस्य हि ब्रह्म क्षत्रमङ्गं प्रचक्षते ॥ ३ ॥
अतो ह्यन्योन्यमात्मानं ब्रह्म क्षत्रं च रक्षतः ।
रक्षति स्माव्ययो देवः स यः सदसदात्मकः ॥ ४ ॥
तव सन्दर्शनादेव च्छिन्ना मे सर्वसंशयाः ।
यत्स्वयं भगवान् प्रीत्या धर्ममाह रिरक्षिषोः ॥ ५ ॥
दिष्ट्या मे भगवान् दृष्टो दुर्दर्शो योऽकृतात्मनाम् ।
दिष्ट्या पादरजः स्पृष्टं शीर्ष्णा मे भवतः शिवम् ॥ ६ ॥
दिष्ट्या त्वयानुशिष्टोऽहं कृतश्चानुग्रहो महान् ।
अपावृतैः कर्णरन्ध्रैः जुष्टा दिष्ट्योशतीर्गिरः ॥ ७ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इस प्रकार जब कर्दमजीने मनुजीके सम्पूर्ण गुणों और कर्मोंकी श्रेष्ठताका वर्णन किया, तो उन्होंने उन निवृत्तिपरायण मुनिसे कुछ सकुचाकर कहा ॥ १ ॥

मनुजीने कहा—मुने ! वेदमूर्ति भगवान्‌ ब्रह्माने अपने वेदमय विग्रहकी रक्षाके लिये तप, विद्या और योगसे सम्पन्न तथा विषयोंमें अनासक्त आप ब्राह्मणोंको अपने मुखसे प्रकट किया है और फिर उन सहस्र चरणोंवाले विराट् पुरुषने आप लोगोंकी रक्षाके लिये ही अपनी सहस्रों भुजाओंसे हम क्षत्रियोंको उत्पन्न किया है। इस प्रकार ब्राह्मण उनके हृदय और क्षत्रिय शरीर कहलाते हैं ॥ २-३ ॥ अत: एक ही शरीरसे सम्बद्ध होनेके कारण अपनी-अपनी और एक दूसरेकी रक्षा करनेवाले उन ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी वास्तवमें श्रीहरि ही रक्षा करते हैं, जो समस्त कार्यकारणरूप होकर भी वास्तवमें निर्विकार हैं ॥ ४ ॥ आपके दर्शनमात्रसे ही मेरे सारे सन्देह दूर हो गये, क्योंकि आपने मेरी प्रशंसाके मिससे स्वयं ही प्रजापालनकी इच्छावाले राजाके धर्मोंका बड़े प्रेमसे निरूपण किया है ॥ ५ ॥ आपका दर्शन अजितेन्द्रिय पुरुषोंको बहुत दुर्लभ है; मेरा बड़ा भाग्य है, जो मुझे आपका दर्शन हुआ और मैं आपके चरणोंकी मङ्गलमयी रज अपने सिरपर चढ़ा सका ॥ ६ ॥ मेरे भाग्योदयसे ही आपने मुझे राजधर्मोंकी शिक्षा देकर मुझपर महान् अनुग्रह किया है और मैंने भी शुभ प्रारब्धका उदय होनेसे ही आपकी पवित्र वाणी कान खोलकर सुनी है ॥ ७ ॥

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रविवार, 27 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

कर्दमजी की तपस्या और भगवान्‌ का वरदान

गृहीतार्हणमासीनं संयतं प्रीणयन् मुनिः ।
स्मरन् भगवदादेशं इत्याह श्लक्ष्णया गिरा ॥ ४९ ॥
नूनं चङ्क्रमणं देव सतां संरक्षणाय ते ।
वधाय चासतां यस्त्वं हरेः शक्तिर्हि पालिनी ॥ ५० ॥
योऽर्केन्दु अग्नीन्द्रवायूनां यमधर्मप्रचेतसाम् ।
रूपाणि स्थान आधत्से तस्मै शुक्लाय ते नमः ॥ ५१ ॥
न यदा रथमास्थाय जैत्रं मणिगणार्पितम् ।
विस्फूर्जत् चण्डकोदण्डो रथेन त्रासयन् अघान् ॥ ५२ ॥
स्वसैन्यचरणक्षुण्णं वेपयन् मण्डलं भुवः ।
विकर्षन् बृहतीं सेनां पर्यटसि अंशुमानिव ॥ ५३ ॥
तदैव सेतवः सर्वे वर्णाश्रमनिबन्धनाः ।
भगवद् रचिता राजन् भिद्येरन् बत दस्युभिः ॥ ५४ ॥
अधर्मश्च समेधेत लोलुपैर्व्यङ्कुशैर्नृभिः ।
शयाने त्वयि लोकोऽयं दस्युग्रस्तो विनङ्क्ष्यति ॥ ५५ ॥
अथापि पृच्छे त्वां वीर यदर्थं त्वं इहागतः ।
तद्वयं निर्व्यलीकेन प्रतिपद्यामहे हृदा ॥ ५६ ॥

जब मनुजी उनकी पूजा ग्रहण कर स्वस्थ-चित्तसे आसनपर बैठ गये, तब मुनिवर कर्दम ने भगवान्‌की आज्ञाका स्मरण कर उन्हें मधुर वाणीसे प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहा— ॥ ४९ ॥ ‘देव ! आप भगवान्‌ विष्णुकी पालनशक्तिरूप हैं, इसलिये आपका घूमना-फिरना नि:सन्देह सज्जनोंकी रक्षा और दुष्टोंके संहारके लिये ही होता है ॥ ५० ॥ आप साक्षात् विशुद्ध विष्णुस्वरूप हैं तथा भिन्न-भिन्न कार्योंके लिये सूर्य, चन्द्र, अग्रि, इन्द्र, वायु, यम, धर्म और वरुण आदि रूप धारण करते हैं; आपको नमस्कार है ॥ ५१ ॥ आप मणियोंसे जड़े हुए जयदायक रथपर सवार हो, अपने प्रचण्ड धनुषकी टङ्कार करते हुए उस रथकी घरघराहटसे ही पापियोंको भयभीत कर देते हैं और अपनी सेनाके चरणोंसे रौंदे हुए भूमण्डलको कँपाते अपनी उस विशाल सेनाको साथ लेकर पृथ्वीपर सूर्यके समान विचरते हैं। यदि आप ऐसा न करें तो चोर-डाकू भगवान्‌की बनायी हुई वर्णाश्रमधर्मकी मर्यादाको तत्काल नष्ट कर दें तथा विषयलोलुप निरङ्कुश मानवोंद्वारा सर्वत्र अधर्म फैल जाय। यदि आप संसारकी ओरसे निश्चिन्त हो जायँ तो यह लोक दुराचारियोंके पंजेमें पडक़र नष्ट हो जाय ॥ ५२—५५ ॥ तो भी वीरवर ! मैं आपसे पूछता हूँ कि इस समय यहाँ आपका आगमन किस प्रयोजनसे हुआ है ? मेरे लिये जो आज्ञा होगी, उसे मैं निष्कपट भावसे सहर्ष स्वीकार करूँगा ॥ ५६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शनिवार, 26 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

कर्दमजी की तपस्या और भगवान्‌ का वरदान

प्रविश्य तत्तीर्थवरं आदिराजः सहात्मजः ।
ददर्श मुनिमासीनं तस्मिन् हुतहुताशनम् ॥ ४५ ॥
विद्योतमानं वपुषा तपसि उग्रयुजा चिरम् ।
नातिक्षामं भगवतः स्निग्धापाङ्गावलोकनात् ।
तद्व्याहृतामृतकला पीयूषश्रवणेन च ॥ ४६ ॥
प्रांशुं पद्मपलाशाक्षं जटिलं चीरवाससम् ।
उपसंश्रित्य मलिनं यथार्हणं असंस्कृतम् ॥ ४७ ॥
अथोटजमुपायातं नृदेवं प्रणतं पुरः ।
सपर्यया पर्यगृह्णात् प्रतिनन्द्यानुरूपया ॥ ४८ ॥

आदिराज महाराज मनु ने उस उत्तम तीर्थ में कन्या के सहित पहुँचकर देखा कि मुनिवर कर्दम अग्रिहोत्र से निवृत्त होकर बैठे हुए हैं ॥ ४५ ॥ बहुत दिनों तक उग्र तपस्या करने के कारण वे शरीर से बड़े तेजस्वी दीख पड़ते थे तथा भगवान्‌ के स्नेहपूर्ण चितवन के दर्शन और उनके उच्चारण किये हुए कर्णामृतरूप सुमधुर वचनों को सुनने से, इतने दिनों तक तपस्या करनेपर भी वे विशेष दुर्बल नहीं जान पड़ते थे ॥ ४६ ॥ उनका शरीर लंबा था, नेत्र कमलदलके समान विशाल और मनोहर थे, सिरपर जटाएँ सुशोभित थीं और कमरमें चीर-वस्त्र थे। वे निकटसे देखनेपर बिना सानपर चढ़ी हुई महामूल्य मणिके समान मलिन जान पड़ते थे ॥ ४७ ॥ महाराज स्वायम्भुवमनु को अपनी कुटी में आकर प्रणाम करते देख उन्होंनें उन्हें आशीर्वाद से प्रसन्न किया और यथोचित आतिथ्य की रीति से उनका स्वागत-सत्कार किया ॥ ४८ ॥

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शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

कर्दमजी की तपस्या और भगवान्‌ का वरदान

यस्मिन्भगवतो नेत्रान् न्यपतन् अश्रुबिन्दवः ।
कृपया सम्परीतस्य प्रपन्नेऽर्पितया भृशम् ॥ ३८ ॥
तद्वै बिन्दुसरो नाम सरस्वत्या परिप्लुतम् ।
पुण्यं शिवामृतजलं महर्षिगणसेवितम् ॥ ३९ ॥
पुण्यद्रुमलताजालैः कूजत् पुण्यमृगद्विजैः ।
सर्वर्तुफलपुष्पाढ्यं वनराजिश्रियान्वितम् ॥ ४० ॥
मत्त-द्विजगणैर्घुष्टं मत्तभ्रमर विभ्रमम् ।
मत्त-बर्हिनटाटोपं आह्वयन् मत्तकोकिलम् ॥ ४१ ॥
कदम्ब चम्पकाशोक करञ्ज बकुलासनैः ।
कुन्दमन्दारकुटजैः चूतपोतैः अलङ्कृतम् ॥ ४२ ॥
कारण्डवैः प्लवैर्हंसैः कुररैः जलकुक्कुटैः ।
सारसैः चक्रवाकैश्च चकोरैः वल्गु कूजितम् ॥ ४३ ॥
तथैव हरिणैः क्रोडैः श्वावित् गवय कुञ्जरैः ।
गोपुच्छैः हरिभिः मर्कैः नकुलैः नाभिभिर्वृतम् ॥ ४४ ॥

सरस्वतीके जलसे भरा हुआ यह बिन्दुसरोवर वह स्थान है, जहाँ अपने शरणागत भक्त कर्दमके प्रति उत्पन्न हुई अत्यन्त करुणाके वशीभूत हुए भगवान्‌के नेत्रोंसे आँसुओंकी बूँदें गिरी थीं। यह तीर्थ बड़ा पवित्र है, इसका जल कल्याणमय और अमृतके समान मधुर है तथा महर्षिगण सदा इसका सेवन करते हैं ॥ ३८-३९ ॥ उस समय बिन्दु-सरोवर पवित्र वृक्ष-लताओंसे घिरा हुआ था, जिनमें तरह-तरहकी बोली बोलनेवाले पवित्र मृग और पक्षी रहते थे, वह स्थान सभी ऋतुओंके फल और फूलोंसे सम्पन्न था और सुन्दर वनश्रेणी भी उसकी शोभा बढ़ाती थी ॥ ४० ॥ वहाँ झुंड-के-झुंड मतवाले पक्षी चहक रहे थे, मतवाले भौंरे मँडरा रहे थे, उन्मत्त मयूर अपने पिच्छ फैला-फैलाकर नटकी भाँति नृत्य कर रहे थे और मतवाले कोकिल कुहू-कुहू करके मानो एक दूसरेको बुला रहे थे ॥ ४१ ॥ वह आश्रम कदम्ब, चम्पक, अशोक, करञ्ज, बकुल, असन, कुन्द, मन्दार, कुटज और नये-नये आमके वृक्षोंसे अलंकृत था ॥ ४२ ॥ वहाँ जलकाग, बत्तख आदि जलपर तैरनेवाले पक्षी हंस, कुरर, जलमुर्ग, सारस, चकवा और चकोर मधुर स्वरसे कलरव कर रहे थे ॥ ४३ ॥ हरिन, सूअर, स्याही, नीलगाय, हाथी, लँगूर, सिंह, वानर, नेवले और कस्तूरीमृग आदि पशुओंसे भी वह आश्रम घिरा हुआ था ॥ ४४ ॥

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गुरुवार, 24 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

कर्दमजी की तपस्या और भगवान्‌ का वरदान

मैत्रेय उवाच -

एवं तं अनुभाष्याथ भगवान् प्रत्यगक्षजः ।
जगाम बिन्दुसरसः सरस्वत्या परिश्रितात् ॥ ३३ ॥
निरीक्षतस्तस्य ययावशेष
     सिद्धेश्वराभिष्टुतसिद्धमार्गः ।
आकर्णयन् पत्ररथेन्द्रपक्षैः
     उच्चारितं स्तोममुदीर्णसाम ॥ ३४ ॥
अथ सम्प्रस्थिते शुक्ले कर्दमो भगवान् ऋषिः ।
आस्ते स्म बिन्दुसरसि तं कालं प्रतिपालयन् ॥ ३५ ॥
मनुः स्यन्दनमास्थाय शातकौम्भपरिच्छदम् ।
आरोप्य स्वां दुहितरं सभार्यः पर्यटन् महीम् ॥ ३६ ॥
तस्मिन् सुधन्वन्नहनि भगवान् यत्समादिशत् ।
उपायादाश्रमपदं मुनेः शान्तव्रतस्य तत् ॥ ३७ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! कर्दमऋषि से इस प्रकार सम्भाषण करके, इन्द्रियोंके अन्तर्मुख होनेपर प्रकट होनेवाले श्रीहरि सरस्वती नदीसे घिरे हुए बिन्दुसर-तीर्थसे (जहाँ कर्दमऋषि तप कर रहे थे) अपने लोकको चले गये ॥ ३३ ॥ भगवान्‌के सिद्धमार्ग (वैकुण्ठमार्ग) की सभी सिद्धेश्वर प्रशंसा करते हैं। वे कर्दमजीके देखते-देखते अपने लोकको सिधार गये। उस समय गरुडजीके पक्षोंसे जो साम की आधारभूता ऋचाएँ निकल रही थीं, उन्हें वे सुनते जाते थे॥३४॥
विदुरजी ! श्रीहरिके चले जानेपर भगवान्‌ कर्दम उनके बताये हुए समयकी प्रतीक्षा करते हुए बिन्दुसरोवरपर ही ठहरे रहे ॥ ३५ ॥ वीरवर ! इधर मनुजी भी महारानी शतरूपाके साथ सुवर्णजटित रथपर सवार होकर तथा उसपर अपनी कन्याको भी बिठाकर पृथ्वीपर विचरते हुए, जो दिन भगवान्‌ने बताया था, उसी दिन शान्तिपरायण महर्षि कर्दमके उस आश्रमपर पहुँचे ॥ ३६-३७ ॥ 

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बुधवार, 23 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

कर्दमजी की तपस्या और भगवान्‌ का वरदान

समाहितं ते हृदयं यत्र इमान् परिवत्सरान् ।
सा त्वां ब्रह्मन् नृपवधूः काममाशु भजिष्यति ॥ २८ ॥
या ते आत्मभृतं वीर्यं नवधा प्रसविष्यति ।
वीर्ये त्वदीये ऋषय आधास्यन्ति अञ्जसात्मनः ॥ २९ ॥
त्वं च सम्यग् अनुष्ठाय निदेशं मे उशत्तमः ।
मयि तीर्थीकृताशेष क्रियार्थो मां प्रपत्स्यसे ॥ ३० ॥
कृत्वा दयां च जीवेषु दत्त्वा चाभयमात्मवान् ।
मय्यात्मानं सह जगद् द्रक्ष्यस्यात्मनि चापि माम् ॥ ३१ ॥
सहाहं स्वांशकलया त्वद्वीर्येण महामुने ।
तव क्षेत्रे देवहूत्यां प्रणेष्ये तत्त्वसंहिताम् ॥ ३२ ॥

(श्रीभगवान्‌ कर्दमजी से कह रहे हैं) ब्रह्मन् ! गत अनेकों वर्षोंसे तुम्हारा चित्त जैसी भार्याके लिये समाहित रहा है, अब शीघ्र ही वह राजकन्या तुम्हारी वैसी ही पत्नी होकर यथेष्ट सेवा करेगी ॥ २८ ॥ वह तुम्हारा वीर्य अपने गर्भमें धारणकर उससे नौ कन्याएँ उत्पन्न करेगी और फिर तुम्हारी उन कन्याओं से लोकरीति के अनुसार मरीचि आदि ऋषिगण पुत्र उत्पन्न करेंगे ॥ २९ ॥ तुम भी मेरी आज्ञा का अच्छी तरह पालन करने से शुद्धचित्त हो, फिर अपने सब कर्मों का फल मुझे अर्पण कर मुझको ही प्राप्त होओगे ॥ ३० ॥ जीवों पर दया करते हुए तुम आत्मज्ञान प्राप्त करोगे और फिर सबको अभयदान दे अपने सहित सम्पूर्ण जगत् को मुझ में और मुझको अपनेमें स्थित देखोगे ॥ ३१ ॥ महामुने ! मैं भी अपने अंश-कलारूपसे तुम्हारे वीर्यद्वारा तुम्हारी पत्नी देवहूतिके गर्भमें अवतीर्ण होकर सांख्यशास्त्रकी रचना करूँगा ॥ ३२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

कर्दमजी की तपस्या और भगवान्‌ का वरदान

ऋषिरुवाच ।
इत्यव्यलीकं प्रणुतोऽब्जनाभः
     तं आबभाषे वचसामृतेन ।
सुपर्णपक्षोपरि रोचमानः
     प्रेमस्मित उद्‌वीक्षणविभ्रमद्भ्रूःप ॥ २२ ॥

श्रीभगवानुवाच -
विदित्वा तव चैत्यं मे पुरैव समयोजि तत् ।
यदर्थं आत्मनियमैः त्वयैवाहं समर्चितः ॥ २३ ॥
न वै जातु मृषैव स्यात् प्रजाध्यक्ष मदर्हणम् ।
भवद्विधेष्वतितरां मयि सङ्गृभितात्मनाम् ॥ २४ ॥
प्रजापतिसुतः सम्राट् मनुर्विख्यातमङ्गलः ।
ब्रह्मावर्तं योऽधिवसन् शास्ति सप्तार्णवां महीम् ॥ २५ ॥
स चेह विप्र राजर्षिः महिष्या शतरूपया ।
आयास्यति दिदृक्षुस्त्वां परश्वो धर्मकोविदः ॥ २६ ॥
आत्मजां असितापाङ्गीं वयःशीलगुणान्विताम् ।
मृगयन्तीं पतिं दास्यति अनुरूपाय ते प्रभो ॥ २७ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—भगवान्‌की भौंहें प्रणय मुसकानभरी चितवनसे चञ्चल हो रही थीं, वे गरुडजीके कंधेपर विराजमान थे। जब कर्दमजीने इस प्रकार निष्कपटभावसे उनकी स्तुति की तब वे उनसे अमृतमयी वाणीसे कहने लगे ॥ २२ ॥
श्रीभगवान्‌ने कहा—जिसके लिये तुमने आत्मसंयमादिके द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे हृदयके उस भावको जानकर मैंने पहलेसे ही उसकी व्यवस्था कर दी है ॥ २३ ॥ प्रजापते ! मेरी आराधना तो कभी भी निष्फल नहीं होती; फिर जिनका चित्त निरन्तर एकान्तरूपसे मुझमें ही लगा रहता है, उन तुम-जैसे महात्माओंके द्वारा की हुई उपासनाका तो और भी अधिक फल होता है ॥ २४ ॥ प्रसिद्ध यशस्वी सम्राट् स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्तमें रहकर सात समुद्रवाली सारी पृथ्वीका शासन करते हैं ॥ २५ ॥ विप्रवर ! वे परम धर्मज्ञ महाराज महारानी शतरूपाके साथ तुमसे मिलनेके लिये परसों यहाँ आयेंगे ॥ २६ ॥ उनकी एक रूप-यौवन, शील और गुणोंसे सम्पन्न श्यामलोचना कन्या इस समय विवाहके योग्य है। प्रजापते ! तुम सर्वथा उसके योग्य हो, इसलिये वे तुम्हींको वह कन्या अर्पण करेंगे ॥ २७ ॥ 

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सोमवार, 21 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

कर्दमजी की तपस्या और भगवान्‌ का वरदान

एकः स्वयं सन्जगतः सिसृक्षया
     अद्वितीययात्मन् अधि योगमायया ।
सृजस्यदः पासि पुनर्ग्रसिष्यसे
     यथोर्णनाभिः भगवन् स्वशक्तिभिः ॥ १९ ॥
नैतद्बदताधीश पदं तवेप्सितं
     यन्मायया नस्तनुषे भूतसूक्ष्मम् ।
अनुग्रहायास्त्वपि यर्हि मायया
     लसत्तुलस्या तनुवा विलक्षितः ॥ २० ॥
तं त्वानुभूत्योपरतक्रियार्थं
     स्वमायया वर्तितलोकतन्त्रम् ।
नमाम्यभीक्ष्णं नमनीयपाद
     सरोजमल्पीयसि कामवर्षम् ॥ २१ ॥

भगवन् ! जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही जालेको फैलाती, उसकी रक्षा करती और अन्तमें उसे निगल जाती है—उसी प्रकार आप अकेले ही जगत् की रचना करनेके लिये अपनेसे अभिन्न अपनी योगमायाको स्वीकारकर उससे अभिव्यक्त हुई अपनी सत्त्वादि शक्तियों-द्वारा स्वयं ही इस जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं ॥ १९ ॥ प्रभो ! इस समय आपने हमें अपनी तुलसीमालामण्डित, मायासे परिच्छिन्न-सी दिखायी देने वाली सगुणमूर्तिसे दर्शन दिया है। आप हम भक्तोंको जो शब्दादि विषय-सुख प्रदान करते हैं, वे मायिक होनेके कारण यद्यपि आपको पसंद नहीं हैं, तथापि परिणाममें हमारा शुभ करनेके लिये वे हमें प्राप्त हों— ॥ २० ॥ नाथ ! आप स्वरूपसे निष्क्रिय होनेपर भी मायाके द्वारा सारे संसारका व्यवहार चलानेवाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करनेवालेपर भी समस्त अभिलषित वस्तुओंकी वर्षा करते रहते हैं। आपके चरणकमल वन्दनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ २१ ॥ ।

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रविवार, 20 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

कर्दमजी की तपस्या और भगवान्‌ का वरदान

प्रजापतेस्ते वचसाधीश तन्त्या
     लोकः किलायं कामहतोऽनुबद्धः ।
अहं च लोकानुगतो वहामि
     बलिं च शुक्लानिमिषाय तुभ्यम् ॥ १६ ॥
लोकांश्च लोकानुगतान् पशूंश्च
     हित्वा श्रितास्ते चरणातपत्रम् ।
परस्परं त्वद्गुशणवादसीधु
     पीयूषनिर्यापितदेहधर्माः ॥ १७ ॥
न तेऽजराक्षभ्रमिरायुरेषां
     त्रयोदशारं त्रिशतं षष्टिपर्व ।
षण्नेम्यनन्तच्छदि यत्त्रिणाभि
     करालस्रोतो जगदाच्छिद्य धावत् ॥ १८ ॥

सर्वेश्वर ! आप सम्पूर्ण लोकोंके अधिपति हैं। नाना प्रकारकी कामनाओंमें फँसा हुआ यह लोक आपकी वेद-वाणीरूप डोरीमें बँधा है। धर्ममूर्ते ! उसीका अनुगमन करता हुआ मैं भी कालरूप आपको आज्ञापालनरूप पूजोपहारादि समर्पित करता हूँ ॥ १६ ॥ प्रभो ! आपके भक्त विषयासक्त लोगों और उन्हींके मार्गका अनुसरण करनेवाले मुझ-जैसे कर्मजड पशुओंको कुछ भी न गिनकर आपके चरणोंकी छत्रछायाका ही आश्रय लेते हैं तथा परस्पर आपके गुणगानरूप मादक सुधाका ही पान करके अपने क्षुधा-पिपासादि देहधर्मोंको शान्त करते रहते हैं ॥ १७ ॥ प्रभो ! यह कालचक्र बड़ा प्रबल है। साक्षात् ब्रह्म ही इसके घूमनेकी धुरी है, अधिक माससहित तेरह महीने अरे हैं, तीन सौ साठ दिन जोड़ हैं, छ: ऋतुएँ नेमि (हाल) हैं, अनन्त क्षण-पल आदि इसमें पत्राकार धाराएँ हैं तथा तीन चातुर्मास्य इसके आधारभूत नाभि हैं। यह अत्यन्त वेगवान् संवत्सररूप कालचक्र चराचर जगत् की आयुका छेदन करता हुआ घूमता रहता है, किन्तु आपके भक्तोंकी आयुका ह्रास नहीं कर सकता ॥ १८ ॥ 

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शनिवार, 19 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

कर्दमजी की तपस्या और भगवान्‌ का वरदान

ऋषिरुवाच -

जुष्टं बताद्याखिलसत्त्वराशेः
     सांसिध्यमक्ष्णोस्तव दर्शनान्नः ।
यद्दर्शनं जन्मभिरीड्य सद्‌भिः
     आशासते योगिनो रूढयोगाः ॥ १३ ॥
ये मायया ते हतमेधसस्त्वत्
     पादारविन्दं भवसिन्धुपोतम् ।
उपासते कामलवाय तेषां
     रासीश कामान् निरयेऽपि ये स्युः ॥ १४ ॥
तथा स चाहं परिवोढुकामः
     समानशीलां गृहमेधधेनुम् ।
उपेयिवान् मूलमशेषमूलं
     दुराशयः कामदुघाङ्‌घ्रिपस्य ॥ १५ ॥

कर्दमजीने कहा—स्तुति करनेयोग्य परमेश्वर ! आप सम्पूर्ण सत्त्वगुणके आधार हैं। योगिजन उत्तरोत्तर शुभ योनियोंमें जन्म लेकर अन्तमें योगस्थ होनेपर आपके दर्शनोंकी इच्छा करते हैं;
आज आपका वही दर्शन पाकर हमें नेत्रों का फल मिल गया ॥ १३ ॥ आपके चरणकमल भवसागरसे पार जानेके लिये जहाज हैं। जिनकी बुद्धि आपकी मायासे मारी गयी है, वे ही उन तुच्छ क्षणिक विषय-सुखोंके लिये, जो नरकमें भी मिल सकते हैं, उन चरणोंका आश्रय लेते हैं; किन्तु स्वामिन् ! आप तो उन्हें वे विषय-भोग भी दे देते हैं ॥ १४ ॥ प्रभो ! आप कल्पवृक्ष हैं। आपके चरण समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं। मेरा हृदय काम कलुषित है। मैं भी अपने अनुरूप स्वभाववाली और गृहस्थधर्मके पालनमें सहायक शीलवती कन्यासे विवाह करनेके लिये आपके चरणकमलोंकी शरणमें आया हूँ ॥ १५ ॥ 

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शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

कर्दमजी की तपस्या और भगवान्‌ का वरदान

मैत्रेय उवाच -

प्रजाः सृजेति भगवान् कर्दमो ब्रह्मणोदितः ।
सरस्वत्यां तपस्तेपे सहस्राणां समा दश ॥ ६ ॥
ततः समाधियुक्तेन क्रियायोगेन कर्दमः ।
सम्प्रपेदे हरिं भक्त्या प्रपन्नवरदाशुषम् ॥ ७ ॥
तावत्प्रसन्नो भगवान् पुष्कराक्षः कृते युगे ।
दर्शयामास तं क्षत्तः शाब्दं ब्रह्म दधद्वपुः ॥ ८ ॥
स तं विरजमर्काभं सितपद्मोत्पलस्रजम् ।
स्निग्धनीलालकव्रात वक्त्राब्जं विरजोऽम्बरम् ॥ ९ ॥
किरीटिनं कुण्डलिनं शङ्खचक्रगदाधरम् ।
श्वेतोत्पलक्रीडनकं मनःस्पर्शस्मितेक्षणम् ॥ १० ॥
विन्यस्तचरणाम्भोजं अंसदेशे गरुत्मतः ।
दृष्ट्वा खेऽवस्थितं वक्षः श्रियं कौस्तुभकन्धरम् ॥ ११ ॥
जातहर्षोऽपतन्मूर्ध्ना क्षितौ लब्धमनोरथः ।
गीर्भिस्त्वभ्यगृणात्प्रीति स्वभावात्मा कृताञ्जलिः ॥ १२ ॥

मैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! जब ब्रह्माजी ने भगवान्‌ कर्दम को आज्ञा दी कि तुम संतान की उत्पत्ति करो तो उन्होंने दस हजार वर्षोंतक सरस्वती नदीके तीरपर तपस्या की ॥ ६ ॥ वे एकाग्र चित्त से प्रेमपूर्वक पूजनोपचारद्वारा शरणागतवरदायक श्रीहरि की आराधना करने लगे ॥ ७ ॥ तब सत्ययुग के आरम्भ में कमलनयन भगवान्‌ श्रीहरि ने उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर उन्हें अपने शब्दब्रह्ममय स्वरूप से मूर्तिमान् होकर दर्शन दिये ॥ ८ ॥ भगवान्‌की वह भव्य मूर्ति सूर्यके समान तेजोमयी थी। वे गलेमें श्वेत कमल और कुमुदके फूलोंकी माला धारण किये हुए थे, मुखकमल नीली और चिकनी अलकावलीसे सुशोभित था। वे निर्मल वस्त्र धारण किये हुए थे ॥ ९ ॥ सिरपर झिलमिलाता हुआ सुवर्णमय मुकुट, कानोंमें जगमगाते हुए कुण्डल और कर-कमलोंमें शङ्ख, चक्र, गदा आदि आयुध विराजमान थे। उनके एक हाथमें क्रीडाके लिये श्वेत कमल सुशोभित था। प्रभुकी मधुर मुसकानभरी चितवन चित्तको चुराये लेती थी ॥ १० ॥ उनके चरणकमल गरुडजीके कंधोंपर विराजमान थे तथा वक्ष:स्थलमें श्रीलक्ष्मीजी और कण्ठमें कौस्तुभमणि सुशोभित थी। प्रभुकी इस आकाशस्थित मनोहर मूर्तिका दर्शन करके कर्दमजी को बड़ा हर्ष हुआ, मानो उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। उन्होंने सानन्द हृदयसे पृथ्वीपर सिर टेककर भगवान्‌ को साष्टाङ्ग प्रणाम किया और फिर प्रेमप्रवण चित्तसे हाथ जोडक़र सुमधुर वाणीसे वे उनकी स्तुति करने लगे ॥ ११-१२ ॥

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गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

कर्दमजी की तपस्या और भगवान्‌ का वरदान

विदुर उवाच ।

स्वायम्भुवस्य च मनोः अंशः परमसम्मतः ।
कथ्यतां भगवन्यत्र मैथुनेनैधिरे प्रजाः ॥ १ ॥
प्रियव्रतोत्तानपादौ सुतौ स्वायम्भुवस्य वै ।
यथाधर्मं जुगुपतुः सप्तद्वीपवतीं महीम् ॥ २ ॥
तस्य वै दुहिता ब्रह्मन् देवहूतीति विश्रुता ।
पत्नीव प्रजापतेरुक्ता कर्दमस्य त्वयानघ ॥ ३ ॥
तस्यां स वै महायोगी युक्तायां योगलक्षणैः ।
ससर्ज कतिधा वीर्यं तन्मे शुश्रूषवे वद ॥ ४ ॥
रुचिर्यो भगवान् ब्रह्मन् दक्षो वा ब्रह्मणः सुतः ।
यथा ससर्ज भूतानि लब्ध्वा भार्यां च मानवीम् ॥ ५ ॥

विदुरजीने पूछा—भगवन् ! स्वायम्भुव मनुका वंश बड़ा आदरणीय माना गया है। उसमें मैथुन- धर्म के द्वारा प्रजा की वृद्धि हुई थी। अब आप मुझे उसीकी कथा सुनाइये ॥ १ ॥ ब्रह्मन् ! आपने कहा था कि स्वायम्भुव मनुके पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपादने सातों द्वीपोंवाली पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन किया था तथा उनकी पुत्री, जो देवहूति नामसे विख्यात थी, कर्दमप्रजापति को ब्याही गयी थी ॥ २-३ ॥ देवहूति योगके लक्षण यमादिसे सम्पन्न थी, उससे महायोगी कर्दमजीने कितनी सन्तानें उत्पन्न कीं ? वह सब प्रसङ्ग आप मुझे सुनाइये, मुझे उसके सुननेकी बड़ी इच्छा है ॥ ४ ॥ इसी प्रकार भगवान्‌ रुचि और ब्रह्माजी के पुत्र दक्षप्रजापति ने भी मनुजी की कन्याओं का पाणिग्रहण करके उन से किस प्रकार क्या-क्या सन्तान उत्पन्न की, यह सब चरित भी मुझे सुनाइये ॥ ५ ॥

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बुधवार, 16 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

स आत्मानं मन्यमानः कृतकृत्यमिवात्मभूः ।
तदा मनून् ससर्जान्ते मनसा लोकभावनान् ॥ ४९ ॥
तेभ्यः सोऽसृजत्स्वीयं पुरं पुरुषमात्मवान् ।
तान् दृष्ट्वा ये पुरा सृष्टाः प्रशशंसुः प्रजापतिम् ॥ ५० ॥
अहो एतत् जगत्स्रष्टः सुकृतं बत ते कृतम् ।
प्रतिष्ठिताः क्रिया यस्मिन् साकं अन्नमदाम हे ॥ ५१ ॥
तपसा विद्यया युक्तो योगेन सुसमाधिना ।
ऋषीन् ऋषिः हृषीकेशः ससर्जाभिमताः प्रजाः ॥ ५२ ॥
तेभ्यश्चैकैकशः स्वस्य देहस्यांशमदादजः ।
यत्तत् समाधियोगर्द्धि तपोविद्याविरक्तिमत् ॥ ५३ ॥

एक बार ब्रह्माजीने अपनेको कृतकृत्य-सा अनुभव किया। उस समय अन्तमें उन्होंने अपने मनसे मनुओंकी सृष्टि की। ये सब प्रजाकी वृद्धि करनेवाले हैं ॥ ४९ ॥ मनस्वी ब्रह्माजीने उनके लिये अपना पुरुषाकार शरीर त्याग दिया। मनुओंको देखकर उनसे पहले उत्पन्न हुए देवता-गन्धर्वादि ब्रह्माजी की स्तुति करने लगे ॥ ५० ॥ वे बोले, ‘विश्वकर्ता ब्रह्माजी ! आपकी यह (मनुओंकी) सृष्टि बड़ी ही सुन्दर है। इसमें अग्रिहोत्र आदि सभी कर्म प्रतिष्ठित हैं। इसकी सहायतासे हम भी अपना अन्न (हविर्भाग) ग्रहण कर सकेंगे’ ॥ ५१ ॥
फिर आदिऋषि ब्रह्माजी ने इन्द्रियसंयमपूर्वक तप, विद्या, योग और समाधि से सम्पन्न हो अपनी प्रिय सन्तान ऋषिगण की रचना की और उनमें से प्रत्येक को अपने समाधि, योग, ऐश्वर्य, तप, विद्या और वैराग्यमय शरीर का अंश दिया ॥ ५२-५३ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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मंगलवार, 15 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

ऊर्जस्वन्तं मन्यमान आत्मानं भगवानजः ।
साध्यान् गणान् पितृगणान् परोक्षेणासृजत्प्रभुः ॥ ४२ ॥
ते आत्मसर्गं तं कायं पितरः प्रतिपेदिरे ।
साध्येभ्यश्च पितृभ्यश्च कवयो यद्वितन्वते ॥ ४३ ॥
सिद्धान् विद्याधरांश्चैव तिरोधानेन सोऽसृजत् ।
तेभ्योऽददात् तं आत्मानं अन्तर्धानाख्यमद्भुृतम् ॥ ४४ ॥
स किन्नरान् किम्पुरुषान् प्रत्यात्म्येनासृजत्प्रभुः ।
मानयन् नात्मनात्मानं आत्माभासं विलोकयन् ॥ ४५ ॥
ते तु तज्जगृहू रूपं त्यक्तं यत्परमेष्ठिना ।
मिथुनीभूय गायन्तः तं एवोषसि कर्मभिः ॥ ४६ ॥
देहेन वै भोगवता शयानो बहुचिन्तया ।
सर्गेऽनुपचिते क्रोधात् उत्ससर्ज ह तद्वपुः ॥ ४७ ॥
येऽहीयन्तामुतः केशा अहयस्तेऽङ्‌ग जज्ञिरे ।
सर्पाः प्रसर्पतः क्रूरा नागा भोगोरुकन्धराः ॥ ४८ ॥

फिर भगवान्‌ ब्रह्मा ने भावना की कि मैं तेजोमय हूँ और अपने अदृश्य रूपसे साध्यगण एवं पितृगणको उत्पन्न किया ॥ ४२ ॥ पितरोंने अपनी उत्पत्तिके स्थान उस अदृश्य शरीरको ग्रहण कर लिया। इसीको लक्ष्यमें रखकर पण्डितजन श्राद्धादिके द्वारा पितर और साध्यगणों को क्रमश: कव्य (पिण्ड) और हव्य अर्पण करते हैं ॥ ४३ ॥
अपनी तिरोधानशक्तिसे ब्रह्माजीने सिद्ध और विद्याधरोंकी सृष्टि की और उन्हें अपना वह अन्तर्धाननामक अद्भुत शरीर दिया ॥ ४४ ॥ एक बार ब्रह्माजीने अपना प्रतिबिम्ब देखा। तब अपने को बहुत सुन्दर मानकर उस प्रतिबिम्ब से किन्नर और किम्पुरुष उत्पन्न किये ॥ ४५ ॥ उन्होंने ब्रह्माजी के त्याग देनेपर उनका वह प्रतिबिम्ब-शरीर ग्रहण किया। इसीलिये ये सब उष:कालमें अपनी पत्नियोंके साथ मिलकर ब्रह्माजीके गुण-कर्मादिका गान किया करते हैं ॥४६॥
एक बार ब्रह्माजी सृष्टिकी वृद्धि न होनेके कारण बहुत चिन्तित होकर हाथ-पैर आदि अवयवोंको फैलाकर लेट गये और फिर क्रोधवश उस भोगमय शरीरको त्याग दिया ॥ ४७ ॥ उससे जो बाल झडक़र गिरे, वे अहि हुए तथा उसके हाथ-पैर सिकोडक़र चलनेसे क्रूरस्वभाव सर्प और नाग हुए, जिनका शरीर फणरूपसे कंधेके पास बहुत फैला होता है ॥ ४८ ॥

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सोमवार, 14 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

प्रहस्य भावगम्भीरं जिघ्रन्ति आत्मानमात्मना ।
कान्त्या ससर्ज भगवान् गन्धर्वाप्सरसां गणान् ॥ ३८ ॥
विससर्ज तनुं तां वै ज्योत्स्नां कान्तिमतीं प्रियाम् ।
ते एव चाददुः प्रीत्या विश्वावसुपुरोगमाः ॥ ३९ ॥
सृष्ट्वा भूतपिशाचांश्च भगवान् आत्मतन्द्रिणा ।
दिग्वाससो मुक्तकेशान् वीक्ष्य चामीलयद् दृशौ ॥ ४० ॥
जगृहुस्तद्विसृष्टां तां जृम्भणाख्यां तनुं प्रभोः ।
निद्रां इन्द्रियविक्लेदो यया भूतेषु दृश्यते ।
येनोच्छिष्टान्धर्षयन्ति तमुन्मादं प्रचक्षते ॥ ४१ ॥

तदनन्तर ब्रह्माजीने गम्भीर भावसे हँसकर अपनी कान्तिमयी मूर्तिसे, जो अपने सौन्दर्यका मानो आप ही आस्वादन करती थी, गन्धर्व और अप्सराओं को उत्पन्न किया ॥ ३८ ॥ उन्होंने ज्योत्स्ना (चन्द्रिका)-रूप अपने उस कान्तिमय प्रिय शरीरको त्याग दिया। उसीको विश्वावसु आदि गन्धर्वोंने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया ॥ ३९ ॥
इसके पश्चात् भगवान्‌ ब्रह्माने अपनी तन्द्रासे भूत-पिशाच उत्पन्न किये। उन्हें दिगम्बर (वस्त्रहीन) और बाल बिखेरे देख उन्होंने आँखें मूँद लीं ॥ ४० ॥ ब्रह्माजीके त्यागे हुए उस जँभाईरूप शरीरको भूत-पिशाचोंने ग्रहण किया। इसीको निद्रा भी कहते हैं, जिससे जीवोंकी इन्द्रियोंमें शिथिलता आती देखी जाती है। यदि कोई मनुष्य जूठे मुहँ सो जाता है तो उसपर भूत-पिशाचादि आक्रमण करते हैं; उसीको उन्माद कहते हैं ॥ ४१ ॥

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रविवार, 13 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

तां क्वणच्चरणाम्भोजां मदविह्वल लोचनाम् ।
काञ्चीकलापविलसद् दुकूलत् छन्न रोधसम् ॥ २९ ॥
अन्योन्यश्लेषयोत्तुङ्‌ग निरन्तरपयोधराम् ।
सुनासां सुद्विजां स्निग्ध हासलीलावलोकनाम् ॥ ३० ॥
गूहन्तीं व्रीडयात्मानं नीलालकवरूथिनीम् ।
उपलभ्यासुरा धर्म सर्वे सम्मुमुहुः स्त्रियम् ॥ ३१ ॥
अहो रूपमहो धैर्यं अहो अस्या नवं वयः ।
मध्ये कामयमानानां अकामेव विसर्पति ॥ ३२ ॥
वितर्कयन्तो बहुधा तां सन्ध्यां प्रमदाकृतिम् ।
अभिसम्भाव्य विश्रम्भात् पर्यपृच्छन् कुमेधसः ॥ ३३ ॥
कासि कस्यासि रम्भोरु को वार्थस्तेऽत्र भामिनि ।
रूपद्रविणपण्येन दुर्भगान्नो विबाधसे ॥ ३४ ॥
या वा काचित्त्वमबले दिष्ट्या सन्दर्शनं तव ।
उत्सुनोषीक्षमाणानां कन्दुकक्रीडया मनः ॥ ३५ ॥
नैकत्र ते जयति शालिनि पादपद्मं
     घ्नन्त्या मुहुः करतलेन पतत्पतङ्‌गम् ।
मध्यं विषीदति बृहत्स्तनभारभीतं
     शान्तेव दृष्टिरमला सुशिखासमूहः ॥ ३६ ॥
इति सायन्तनीं सन्ध्यां असुराः प्रमदायतीम् ।
प्रलोभयन्तीं जगृहुः मत्वा मूढधियः स्त्रियम् ॥ ३७ ॥

(ब्रह्माजीका छोड़ा हुआ वह शरीर एक सुन्दरी स्त्री—संध्यादेवीके रूपमें परिणत हो गया।) उसके चरणकमलों के पायजेब झङ्कृत हो रहे थे। उसकी आँखें मतवाली हो रही थीं और कमर करधनी की लड़ों से सुशोभित सजीली साड़ी से ढकी हुई थी ॥ २९ ॥ उसके उभरे हुए स्तन इस प्रकार एक दूसरेसे सटे हुए थे कि उनके बीचमें कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। उसकी नासिका और दन्तावली बड़ी ही सुघड़ थी तथा वह मधुर-मधुर मुसकराती हुई असुरोंकी ओर हाव-भावपूर्ण दृष्टिसे देख रही थी ॥ ३० ॥ वह नीली-नीली अलकावलीसे सुशोभित सुकुमारी मानो लज्जाके मारे अपने अञ्चलमें ही सिमिटी जाती थी। विदुरजी ! उस सुन्दरीको देखकर सब-के-सब असुर मोहित हो गये ॥ ३१ ॥ ‘अहो ! इसका कैसा विचित्र रूप, कैसा अलौकिक धैर्य और कैसी नयी अवस्था है। देखो, हम कामपीडि़तोंके बीचमें यह कैसी बेपरवाह-सी विचर रही है’ ॥ ३२ ॥
इस प्रकार उन कुबुद्धि दैत्योंने स्त्रीरूपिणी संध्याके विषयमें तरह-तरहके तर्क-वितर्क करके फिर उसका बहुत आदर करते हुए प्रेमपूर्वक पूछा— ॥ ३३ ॥ ‘सुन्दरि ! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो ? भामिनि ! यहाँ तुम्हारे आनेका क्या प्रयोजन है ? तुम अपने अनूप रूपका यह बेमोल सौदा दिखाकर हम अभागोंको क्यों तरसा रही हो ॥ ३४ ॥ अबले ! तुम कोई भी क्यों न हो, हमें तुम्हारा दर्शन हुआ—यह बड़े सौभाग्यकी बात है। तुम अपनी गेंद उछाल-उछालकर तो हम दर्शकोंके मनको मथे डालती हो ॥ ३५ ॥ सुन्दरि ! जब तुम उछलती हुई गेंदपर अपनी हथेलीकी थपकी मारती हो, तब तुम्हारा चरण-कमल एक जगह नहीं ठहरता; तुम्हारा कटिप्रदेश स्थूल स्तनोंके भारसे थक-सा जाता है और तुम्हारी निर्मल दृष्टिसे भी थकावट झलकने लगती है। अहो ! तुम्हारा केशपाश कैसा सुन्दर है’ ॥ ३६ ॥ इस प्रकार स्त्रीरूपसे प्रकट हुई उस सायंकालीन सन्ध्याने उन्हें अत्यन्त कामासक्त कर दिया और उन मूढ़ोंने उसे कोई रमणीरत्न समझकर ग्रहण कर लिया ॥ ३७ ॥

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शनिवार, 12 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

देवताः प्रभया या या दीव्यन् प्रमुखतोऽसृजत् ।
ते अहार्षुर्देवयन्तो विसृष्टां तां प्रभामहः ॥ २२ ॥
देवोऽदेवाञ्जघनतः सृजति स्मातिलोलुपान् ।
ते एनं लोलुपतया मैथुनायाभिपेदिरे ॥ २३ ॥
ततो हसन् स भगवान् असुरैर्निरपत्रपैः ।
अन्वीयमानस्तरसा क्रुद्धो भीतः परापतत् ॥ २४ ॥
स उपव्रज्य वरदं प्रपन्नार्तिहरं हरिम् ।
अनुग्रहाय भक्तानां अनुरूपात्मदर्शनम् ॥ २५ ॥
पाहि मां परमात्मंस्ते प्रेषणेनासृजं प्रजाः ।
ता इमा यभितुं पापा उपाक्रामन्ति मां प्रभो ॥ २६ ॥
त्वमेकः किल लोकानां क्लिष्टानां क्लेशनाशनः ।
त्वमेकः क्लेशदस्तेषां अनासन्न पदां तव ॥ २७ ॥
सोऽवधार्यास्य कार्पण्यं विविक्ताध्यात्मदर्शनः ।
विमुञ्चात्मतनुं घोरां इत्युक्तो विमुमोच ह ॥ २८ ॥

फिर ब्रह्माजीने सात्त्विकी प्रभा से देदीप्यमान होकर मुख्य-मुख्य देवताओं की रचना की। उन्होंने क्रीडा करते हुए, ब्रह्माजी के त्यागनेपर, उनका वह दिनरूप प्रकाशमय शरीर ग्रहण कर लिया ॥ २२ ॥ इसके पश्चात् ब्रह्माजीने अपने जघनदेश से कामासक्त असुरों को उत्पन्न किया। वे अत्यन्त कामलोलुप होनेके कारण उत्पन्न होते ही मैथुनके लिये ब्रह्माजीकी ओर चले ॥ २३ ॥ यह देखकर पहले तो वे हँसे; किन्तु फिर उन निर्लज्ज असुरोंको अपने पीछे लगा देख भयभीत और क्रोधित होकर बड़े जोरसे भागे ॥ २४ ॥ तब उन्होंने भक्तोंपर कृपा करनेके लिये उनकी भावनाके अनुसार दर्शन देनेवाले, शरणागतवत्सल वरदायक श्रीहरिके पास जाकर कहा— ॥ २५ ॥ ‘परमात्मन् ! मेरी रक्षा कीजिये; मैंने तो आपकी ही आज्ञासे प्रजा उत्पन्न की थी, किन्तु यह तो पाप में प्रवृत्त होकर मुझको ही तंग करने चली है ॥ २६ ॥ नाथ ! एकमात्र आप ही दुखी जीवों का दु:ख दूर करनेवाले हैं और जो आपकी चरण-शरणमें नहीं आते, उन्हें दु:ख देनेवाले भी एकमात्र आप ही हैं’ ॥ २७ ॥ प्रभु तो प्रत्यक्षवत् सबके हृदयकी जाननेवाले हैं। उन्होंने ब्रह्माजीकी आतुरता देखकर कहा—‘तुम अपने इस कामकलुषित शरीरको त्याग दो।’ भगवान्‌के यों कहते ही उन्होंने वह शरीर भी छोड़ दिया ॥ २८ ॥

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शुक्रवार, 11 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

सोऽनुविष्टो भगवता यः शेते सलिलाशये ।
लोकसंस्थां यथा पूर्वं निर्ममे संस्थया स्वया ॥ १७ ॥
ससर्ज च्छाययाविद्यां पञ्चपर्वाणमग्रतः ।
तामिस्रं अन्धतामिस्रं तमो मोहो महातमः ॥ १८ ॥
विससर्जात्मनः कायं नाभिनन्दन् तमोमयम् ।
जगृहुर्यक्षरक्षांसि रात्रिं क्षुत्तृट्समुद्भवाम् ॥ १९ ॥
क्षुत्तृड्भ्यां उपसृष्टास्ते तं जग्धुमभिदुद्रुवुः ।
मा रक्षतैनं जक्षध्वं इति ऊचुः क्षुत्तृडर्दिताः ॥ २० ॥
देवस्तानाह संविग्नो मा मां जक्षत रक्षत ।
अहो मे यक्षरक्षांसि प्रजा यूयं बभूविथ ॥ २१ ॥

जब ब्रह्माण्डके गर्भरूप जलमें शयन करनेवाले श्रीनारायणदेव ने ब्रह्माजी के अन्त:करण में प्रवेश किया, तब वे पूर्वकल्पोंमें अपने ही द्वारा निश्चित की हुई नाम-रूपमयी व्यवस्थाके अनुसार लोकोंकी रचना करने लगे ॥ १७ ॥ सबसे पहले उन्होंने अपनी छायासे तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और महामोह—यों पाँच प्रकारकी अविद्या उत्पन्न की ॥ १८ ॥ ब्रह्माजीको अपना वह तमोमय शरीर अच्छा नहीं लगा, अत: उन्होंने उसे त्याग दिया। तब, जिससे भूख-प्यासकी उत्पत्ति होती है—ऐसे रात्रिरूप उस शरीरको उसीसे उत्पन्न हुए यक्ष और राक्षसोंने ग्रहण कर लिया ॥ १९ ॥ उस समय भूख-प्याससे अभिभूत होकर वे ब्रह्माजीको खानेको दौड़ पड़े और कहने लगे—‘इसे खा जाओ, इसकी रक्षा मत करो’, क्योंकि वे भूख-प्याससे व्याकुल हो रहे थे ॥ २० ॥ ब्रह्माजीने घबराकर उनसे कहा—‘अरे यक्ष-राक्षसो ! तुम मेरी सन्तान हो; इसलिये मुझे भक्षण मत करो, मेरी रक्षा करो !’ (उनमेंसे जिन्होंने कहा ‘खा जाओ’, वे यक्ष हुए और जिन्होंने कहा ‘रक्षा मत करो’, वे राक्षस कहलाये) ॥ २१ ॥

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गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

मैत्रेय उवाच –

दैवेन दुर्वितर्क्येण परेणानिमिषेण च ।
जातक्षोभाद् भगवतो महान् आसीद्‌ गुणत्रयात् ॥ १२ ॥
रजःप्रधानान् महतः त्रिलिङ्‌गो दैवचोदितात् ।
जातः ससर्ज भूतादिः वियदादीनि पञ्चशः ॥ १३ ॥
तानि चैकैकशः स्रष्टुं असमर्थानि भौतिकम् ।
संहत्य दैवयोगेन हैमं अण्डं अवासृजन् ॥ १४ ॥
सोऽशयिष्टाब्धिसलिले आण्डकोशो निरात्मकः ।
साग्रं वै वर्षसाहस्रं अन्ववात्सीत् तं ईश्वरः ॥ १५ ॥
तस्य नाभेरभूत्पद्मं सहस्रार्कोरुदीधिति ।
सर्वजीवनिकायौको यत्र स्वयं अभूत्स्वराट् ॥ १६ ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! जिसकी गति को जानना अत्यन्त कठिन है—उस जीवों के प्रारब्ध, प्रकृति के नियन्ता पुरुष और काल—इन तीन हेतुओं से तथा भगवान्‌ की सन्निधि से त्रिगुणमय प्रकृति में क्षोभ होने पर उससे महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ॥ १२ ॥ दैव की प्रेरणा से रज:प्रधान महत्तत्त्वसे  वैकारिक (सात्त्विक), राजस और तामस—तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ। उसने आकाशादि पाँच-पाँच तत्त्वोंके अनेक वर्ग[*] प्रकट किये ॥ १३ ॥ वे सब अलग-अलग रहकर भूतोंके कार्यरूप ब्रह्माण्डकी रचना नहीं कर सकते थे; इसलिये उन्होंने भगवान्‌की शक्तिसे परस्पर संगठित होकर एक सुवर्णवर्ण अण्डकी रचना की ॥ १४ ॥ वह अण्ड चेतनाशून्य अवस्थामें एक हजार वर्षोंसे भी अधिक समयतक कारणाब्धिके जलमें पड़ा रहा। फिर उसमें श्रीभगवान्‌ने प्रवेश किया ॥ १५ ॥ उसमें अधिष्ठित होनेपर उनकी नाभिसे सहस्र सूर्योंके समान अत्यन्त देदीप्यमान एक कमल प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण जीव-समुदायका आश्रय था। उसीसे स्वयं ब्रह्माजीका भी आविर्भाव हुआ है ॥ १६ ॥
.................................................................
[*] पञ्चतन्मात्र, पञ्च महाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और उनके पाँच-पाँच देवता—इन्हीं छ: वर्गोंका यहाँ संकेत समझना चाहिये।

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बुधवार, 9 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

सूत उवाच –

हरेर्धृतक्रोडतनोः स्वमायया
     निशम्य गोरुद्धरणं रसातलात् ।
लीलां हिरण्याक्षमवज्ञया हतं
     सञ्जातहर्षो मुनिमाह भारतः ॥ ८ ॥

विदुर उवाच –

प्रजापतिपतिः सृष्ट्वा प्रजासर्गे प्रजापतीन् ।
किं आरभत मे ब्रह्मन् प्रब्रूह्यव्यक्तमार्गवित् ॥ ९ ॥
ये मरीच्यादयो विप्रा यस्तु स्वायम्भुवो मनुः ।
ते वै ब्रह्मण आदेशात् कथं एतद् अभावयन् ॥ १० ॥
सद्वितीयाः किमसृजन् स्वतन्त्रा उत कर्मसु ।
आहो स्वित्संहताः सर्व इदं स्म समकल्पयन् ॥ ११ ॥

सूतजीने कहा—मुनिगण ! अपनी मायासे वराहरूप धारण करनेवाले श्रीहरिकी रसातलसे पृथ्वीको निकालने और खेलमें ही तिरस्कारपूर्वक हिरण्याक्षको मार डालनेकी लीला सुनकर विदुरजीको बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने मुनिवर मैत्रेयजीसे कहा ॥ ८ ॥
विदुरजीने कहा—ब्रह्मन् ! आप परोक्ष विषयोंको भी जाननेवाले हैं; अत: यह बतलाइये कि प्रजापतियोंके पति श्रीब्रह्माजीने मरीचि आदि प्रजापतियोंको उत्पन्न करके फिर सृष्टिको बढ़ानेके लिये क्या किया ॥ ९ ॥ मरीचि आदि मुनीश्वरोंने और स्वायम्भुव मनुने भी ब्रह्माजीकी आज्ञासे किस प्रकार प्रजाकी वृद्धि की ? ॥ १० ॥ क्या उन्होंने इस जगत् को पत्नियों के सहयोग से उत्पन्न किया या अपने-अपने कार्य में स्वतन्त्र रहकर,अथवा सब ने एक साथ मिलकर इस जगत् की रचना की ? ॥ ११ ॥

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मंगलवार, 8 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

शौनक उवाच –

महीं प्रतिष्ठामध्यस्य सौते स्वायम्भुवो मनुः ।
कानि अन्वतिष्ठद् द्वाराणि मार्गाय अवर जन्मनाम् ॥ १ ॥
क्षत्ता महाभागवतः कृष्णस्यैकान्तिकः सुहृत् ।
यस्तत्याजाग्रजं कृष्णे सापत्यं अघवानिति ॥ २ ॥
द्वैपायनादनवरो महित्वे तस्य देहजः ।
सर्वात्मना श्रितः कृष्णं तत्परांश्चाप्यनुव्रतः ॥ ३ ॥
किं अन्वपृच्छन् मैत्रेयं विरजास्तीर्थसेवया ।
उपगम्य कुशावर्त आसीनं तत्त्ववित्तमम् ॥ ४ ॥
तयोः संवदतोः सूत प्रवृत्ता ह्यमलाः कथाः ।
आपो गाङ्‌गा इवाघघ्नीः हरेः पादाम्बुजाश्रयाः ॥ ५ ॥
ता नः कीर्तय भद्रं ते कीर्तन्योदारकर्मणः ।
रसज्ञः को नु तृप्येत हरिलीलामृतं पिबन् ॥ ६ ॥
एवं उग्रश्रवाः पृष्ट ऋषिभिः नैमिषायनैः ।
भगवति अर्पिताध्यात्मः तान् आह श्रूयतामिति ॥ ७ ॥

शौनकजी कहते हैं—सूतजी ! पृथ्वीरूप आधार पाकर स्वायंभुव मनुने आगे होनेवाली सन्ततिको उत्पन्न करनेके लिये किन-किन उपायोंका अवलम्बन किया ? ॥ १ ॥ विदुरजी बड़े ही भगवद्भक्त और भगवान्‌ श्रीकृष्णके अनन्य सुहृद् थे। इसीलिये उन्होंने अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रको, उनके पुत्र दुर्योधनके सहित, भगवान्‌ श्रीकृष्णका अनादर करनेके कारण अपराधी समझकर त्याग दिया था ॥ २ ॥ वे महर्षि द्वैपायनके पुत्र थे और महिमामें उनसे किसी प्रकार कम नहीं थे तथा सब प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णके आश्रित और कृष्णभक्तोंके अनुगामी थे ॥ ३ ॥ तीर्थसेवनसे उनका अन्त:करण और भी शुद्ध हो गया था। उन्होंने कुशावर्तक्षेत्र (हरिद्वार) में बैठे हुए तत्त्वज्ञानियोंमें श्रेष्ठ मैत्रेयजी के पास जाकर और क्या पूछा ? ॥ ४ ॥ सूतजी ! उन दोनोंमें वार्तालाप होनेपर श्रीहरिके चरणोंसे सम्बन्ध रखनेवाली बड़ी पवित्र कथाएँ हुई होंगी, जो उन्हीं चरणोंसे निकले हुए गङ्गाजलके समान सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली होंगी ॥ ५ ॥ सूतजी ! आपका मङ्गल हो, आप हमें भगवान्‌ की वे पवित्र कथाएँ सुनाइये। प्रभुके उदार चरित्र तो कीर्तन करने योग्य होते हैं। भला, ऐसा कौन रसिक होगा, जो श्रीहरिके लीलामृतका पान करते-करते तृप्त हो जाय ॥ ६ ॥नैमिषारण्यवासी मुनियोंके इस प्रकार पूछनेपर उग्रश्रवा सूतजीने भगवान्‌में चित्त लगाकर उनसे कहा—‘सुनिये’ ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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सोमवार, 7 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

हिरण्याक्ष-वध

सूत उवाच –

इति कौषारवाख्यातां आश्रुत्य भगवत्कथाम् ।
क्षत्तानन्दं परं लेभे महाभागवतो द्विज ॥ ३३ ॥
अन्येषां पुण्यश्लोकानां उद्दामयशसां सताम् ।
उपश्रुत्य भवेन्मोदः श्रीवत्साङ्‌कस्य किं पुनः ॥ ३४ ॥
यो गजेन्द्रं झषग्रस्तं ध्यायन्तं चरणाम्बुजम् ।
क्रोशन्तीनां करेणूनां कृच्छ्रतोऽमोचयद्द्रुतम् ॥ ३५ ॥
तं सुखाराध्यमृजुभिः अनन्यशरणैर्नृभिः ।
कृतज्ञः को न सेवेत दुराराध्यं असाधुभिः ॥ ३६ ॥
यो वै हिरण्याक्षवधं महाद्भुयतं
     विक्रीडितं कारणसूकरात्मनः ।
श्रृणोति गायत्यनुमोदतेऽञ्जसा
     विमुच्यते ब्रह्मवधादपि द्विजाः ॥ ३७ ॥
एतन् महापुण्यमलं पवित्रं
     धन्यं यशस्यं पदमायुराशिषाम् ।
प्राणेन्द्रियाणां युधि शौर्यवर्धनं
     नारायणोऽन्ते गतिरङ्‌ग श्रृण्वताम् ॥ ३८ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! मैत्रेयजीके मुखसे भगवान्‌की यह कथा सुनकर परम भागवत विदुरजीको बड़ा आनन्द हुआ ॥ ३३ ॥ जब अन्य पवित्रकीर्ति और परम यशस्वी महापुरुषोंका चरित्र सुननेसे ही बड़ा आनन्द होता है, तब श्रीवत्सधारी भगवान्‌की ललित-ललाम लीलाओंकी तो बात ही क्या है ॥ ३४ ॥ जिस समय ग्राह के पकडऩे पर गजराज प्रभु के चरणों का ध्यान करने लगे और उनकी हथिनियाँ दु:खसे चिग्घाडऩे लगीं, उस समय जिन्होंने उन्हें तत्काल दु:ख से छुड़ाया और जो सब ओर से निराश होकर अपनी शरणमें आये हुए सरलहृदय भक्तों से सहज में ही प्रसन्न हो जाते हैं, किन्तु दुष्ट पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुराराध्य हैं—उनपर जल्दी प्रसन्न नहीं होते, उन प्रभुके उपकारोंको जाननेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उनका सेवन न करेगा ? ॥ ३५-३६ ॥ शौनकादि ऋषियो ! पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये वराहरूप धारण करनेवाले श्रीहरिकी इस हिरण्याक्ष-वध नामक परम अद्भुत लीलाको जो पुरुष सुनता, गाता अथवा अनुमोदन करता है, वह ब्रह्महत्या-जैसे घोर पापसे भी सहजमें ही छूट जाता है ॥ ३७ ॥ यह चरित्र अत्यन्त पुण्यप्रद, परम पवित्र, धन और यशकी प्राप्ति करानेवाला आयुवर्धक और कामनाओंकी पूर्ति करनेवाला तथा युद्धमें प्राण और इन्द्रियोंकी शक्ति बढ़ानेवाला है। जो लोग इसे सुनते हैं, उन्हें अन्तमें श्रीभगवान्‌का आश्रय प्राप्त होता है। ॥ ३८ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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रविवार, 6 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

हिरण्याक्ष-वध

देवा ऊचुः –

नमो नमस्तेऽखिलयज्ञतन्तवे
     स्थितौ गृहीतामलसत्त्वमूर्तये ।
दिष्ट्या हतोऽयं जगतामरुन्तुदः
     त्वत् पादभक्त्या वयमीश निर्वृताः ॥ ३० ॥

मैत्रेय उवाच -

एवं हिरण्याक्षमसह्यविक्रमं
     स सादयित्वा हरिरादिसूकरः ।
जगाम लोकं स्वमखण्डितोत्सवं
     समीडितः पुष्करविष्टरादिभिः ॥ ३१ ॥
मया यथानूक्तमवादि ते हरेः
     कृतावतारस्य सुमित्र चेष्टितम् ।
यथा हिरण्याक्ष उदारविक्रमो
     महामृधे क्रीडनवन्निराकृतः ॥ ३२ ॥

देवतालोग कहने लगे—प्रभो ! आपको बारंबार नमस्कार है। आप सम्पूर्ण यज्ञोंका विस्तार करनेवाले हैं तथा संसारकी स्थितिके लिये शुद्धसत्त्वमय मङ्गलविग्रह प्रकट करते हैं। बड़े आनन्दकी बात है कि संसारको कष्ट देनेवाला यह दुष्ट दैत्य मारा गया। अब आपके चरणोंकी भक्तिके प्रभावसे हमें भी सुख-शान्ति मिल गयी ॥ ३० ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इस प्रकार महापराक्रमी हिरण्याक्षका वध करके भगवान्‌ आदिवराह अपने अखण्ड आनन्दमय धामको पधार गये। उस समय ब्रह्मादि देवता उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ ३१ ॥ भगवान्‌ अवतार लेकर जैसी लीलाएँ करते हैं और जिस प्रकार उन्होंने भीषण संग्राममें खिलौनेकी भाँति महापराक्रमी हिरण्याक्षका वध कर डाला, मित्र विदुरजी ! वह सब चरित जैसा मैंने गुरुमुखसे सुना था, तुम्हें सुना दिया ॥ ३२ ॥

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शनिवार, 5 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

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हिरण्याक्ष-वध

विनष्टासु स्वमायासु भूयश्चाव्रज्य केशवम् ।
रुषोपगूहमानोऽमुं ददृशेऽवस्थितं बहिः ॥ २४ ॥
तं मुष्टिभिर्विनिघ्नन्तं वज्रसारैः अधोक्षजः ।
करेण कर्णमूलेऽहन् यथा त्वाष्ट्रं मरुत्पतिः ॥ २५ ॥
स आहतो विश्वजिता ह्यवज्ञया
     परिभ्रमद्‌गात्र उदस्तलोचनः ।
विशीर्णबाह्वङ्‌‌घ्रिशिरोरुहोऽपतद्
     यथा नगेन्द्रो लुलितो नभस्वता ॥ २६ ॥
क्षितौ शयानं तमकुण्ठवर्चसं
     करालदंष्ट्रं परिदष्टदच्छदम् ।
अजादयो वीक्ष्य शशंसुरागता
     अहो इमं को नु लभेत संस्थितिम् ॥ २७ ॥
यं योगिनो योगसमाधिना रहो
     ध्यायन्ति लिङ्‌गादसतो मुमुक्षया ।
तस्यैष दैत्यऋषभः पदाहतो
     मुखं प्रपश्यन् तनुमुत्ससर्ज ह ॥ २८ ॥
एतौ तौ पार्षदावस्य शापाद् यातौ असद्‌गतिम् ।
पुनः कतिपयैः स्थानं प्रपत्स्येते ह जन्मभिः ॥ २९ ॥

अपना माया-जाल नष्ट हो जाने पर वह दैत्य फिर भगवान्‌ के पास आया। उसने उन्हें क्रोध से दबाकर चूर-चूर करने की इच्छा से भुजाओं में भर लिया, किन्तु देखा कि वे तो बाहर ही खड़े हैं ॥ २४ ॥ अब वह भगवान्‌ को वज्र के समान कठोर मुक्कों से  मारने लगा । तब इन्द्र ने जैसे वृत्रासुरपर प्रहार किया था, उसी प्रकार भगवान्‌ ने उसकी कनपटी पर एक तमाचा मारा॥२५॥ विश्वविजयी भगवान्‌ ने यद्यपि बड़ी उपेक्षा से तमाचा मारा था, तो भी उसकी चोटसे हिरण्याक्ष का शरीर घूमने लगा, उसके नेत्र बाहर निकल आये तथा हाथ-पैर और बाल छिन्न-भिन्न हो गये और वह निष्प्राण होकर आँधी से उखड़े हुए विशाल वृक्ष के समान पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ २६ ॥ हिरण्याक्ष का तेज अब भी मलिन नहीं हुआ था। उस कराल दाढ़ोंवाले दैत्य को दाँतों से होठ चबाते पृथ्वी पर पड़ा देख वहाँ युद्ध देखने के लिये आये हुए ब्रह्मादि देवता उसकी प्रशंसा करने लगे कि ‘अहो ! ऐसी अलभ्य मृत्यु किसको मिल सकती है ॥ २७ ॥ अपनी मिथ्या उपाधि से छूटने के लिये जिनका योगिजन समाधियोग के द्वारा एकान्त में ध्यान करते हैं, उन्हींके चरण-प्रहार से उनका मुख देखते-देखते इस दैत्यराज ने अपना शरीर त्यागा ॥ २८ ॥ ये हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु भगवान्‌ के ही पार्षद हैं। इन्हें शापवश यह अधोगति प्राप्त हुई है। अब कुछ जन्मों में ये फिर अपने स्थानपर पहुँच जायँगे’ ॥ २९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

हिरण्याक्ष-वध

तेनेत्थमाहतः क्षत्तः भगवान् आदिसूकरः ।
नाकम्पत मनाक्क्वापि स्रजा हत इव द्विपः ॥ १६ ॥
अथोरुधासृजन् मायां योगमायेश्वरे हरौ ।
यां विलोक्य प्रजास्त्रस्ता मेनिरेऽस्योपसंयमम् ॥ १७ ॥
प्रववुर्वायवश्चण्डाः तमः पांसवमैरयन् ।
दिग्भ्यो निपेतुर्ग्रावाणः क्षेपणैः प्रहिता इव ॥ १८ ॥
द्यौर्नष्टभगणाभ्रौघैः सविद्युत् स्तनयित्नु भिः ।
वर्षद्‌भिः पूयकेशासृग् विण्मूत्रास्थीनि चासकृत् ॥ १९ ॥
गिरयः प्रत्यदृश्यन्त नानायुधमुचोऽनघ ।
दिग्वाससो यातुधान्यः शूलिन्यो मुक्तमूर्धजाः ॥ २० ॥
बहुभिर्यक्षरक्षोभिः पत्त्यश्व रथकुञ्जरैः ।
आततायिभिरुत्सृष्टा हिंस्रा वाचोऽतिवैशसाः ॥ २१ ॥
प्रादुष्कृतानां मायानां आसुरीणां विनाशयत् ।
सुदर्शनास्त्रं भगवान् प्रायुङ्‌क्त दयितं त्रिपात् ॥ २२ ॥
तदा दितेः समभवत् सहसा हृदि वेपथुः ।
स्मरन्त्या भर्तुः आदेशं स्तनात् च असृक् प्रसुस्रुवे ॥ २३ ॥

विदुरजी ! जैसे हाथीपर पुष्पमाला की चोट का कोई असर नहीं होता, उसी प्रकार उसके इस प्रकार घूँसा मारने से भगवान्‌ आदिवराह तनिक भी टस-से-मस नहीं हुए ॥ १६ ॥ तब वह महामायावी दैत्य मायापति श्रीहरिपर अनेक प्रकारकी मायाओंका प्रयोग करने लगा, जिन्हें देखकर सभी प्रजा बहुत डर गयी और समझने लगी कि अब संसारका प्रलय होनेवाला है ॥ १७ ॥ बड़ी प्रचण्ड आँधी चलने लगी, जिसके कारण धूलसे सब ओर अन्धकार छा गया। सब ओरसे पत्थरोंकी वर्षा होने लगी, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो किसी क्षेपणयन्त्र (गुलेल) से फेंके जा रहे हों ॥ १८ ॥ बिजलीकी चमचमाहट और कडक़के साथ बादलोंके घिर आनेसे आकाशमें सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह छिप गये तथा उनसे निरन्तर पीब, केश, रुधिर, विष्ठा, मूत्र और हड्डियोंकी वर्षा होने लगी ॥ १९ ॥ विदुरजी ! ऐसे-ऐसे पहाड़ दिखायी देने लगे, जो तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र बरसा रहे थे। हाथमें त्रिशूल लिये बाल खोले नंगी राक्षसियाँ दीखने लगीं ॥ २० ॥ बहुत-से पैदल, घुड़सवार रथी और हाथियोंपर चढ़े सैनिकोंके साथ आततायी यक्ष-राक्षसोंका ‘मारो-मारो, काटो-काटो’ ऐसा अत्यन्त क्रूर और हिंसामय कोलाहल सुनायी देने लगा ॥ २१ ॥ इस प्रकार प्रकट हुए उस आसुरी माया-जाल का नाश करनेके लिये यज्ञमूर्ति भगवान्‌ वराह ने अपना प्रिय सुदर्शनचक्र छोड़ा ॥ २२ ॥ उस समय अपने पति का कथन स्मरण हो आनेसे दिति का हृदय सहसा काँप उठा और उसके स्तनों से रक्त बहने लगा ॥ २३ ॥ 

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गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

हिरण्याक्ष-वध

स्वपौरुषे प्रतिहते हतमानो महासुरः ।
नैच्छद्‌गदां दीयमानां हरिणा विगतप्रभः ॥ १२ ॥
जग्राह त्रिशिखं शूलं ज्वलज्ज्वलनलोलुपम् ।
यज्ञाय धृतरूपाय विप्रायाभिचरन् यथा ॥ १३ ॥
तदोजसा दैत्यमहाभटार्पितं
     चकासदन्तःख उदीर्णदीधिति ।
चक्रेण चिच्छेद निशातनेमिना
     हरिर्यथा तार्क्ष्यपतत्रमुज्झितम् ॥ १४ ॥
वृक्णे स्वशूले बहुधारिणा हरेः
     प्रत्येत्य विस्तीर्णमुरो विभूतिमत् ।
प्रवृद्धरोषः स कठोरमुष्टिना
     नदन् प्रहृत्यान्तरधीयतासुरः ॥ १५ ॥

अपने उद्यमको इस प्रकार व्यर्थ हुआ देख उस महादैत्य का घमंड ठंडा पड़ गया और उसका तेज नष्ट हो गया। अब की बार भगवान्‌ के देने पर उसने उस गदाको लेना न चाहा ॥ १२ ॥ किन्तु जिस प्रकार कोई ब्राह्मणके ऊपर निष्फल अभिचार (मारणादि प्रयोग) करे—मूठ आदि चलाये, वैसे ही उसने श्रीयज्ञपुरुषपर प्रहार करनेके लिये एक प्रज्वलित अग्नि के समान लपलपाता हुआ त्रिशूल लिया ॥ १३ ॥ महाबली हिरण्याक्षका अत्यन्त वेगसे छोड़ा हुआ वह तेजस्वी त्रिशूल आकाशमें बड़ी तेजीसे चमकने लगा। तब भगवान्‌ने उसे अपनी तीखी धारवाले चक्रसे इस प्रकार काट डाला, जैसे इन्द्रने गरुडजीके छोड़े हुए तेजस्वी पंखको काट डाला था [*] ॥ १४ ॥ भगवान्‌ के चक्रसे अपने त्रिशूल के बहुत-से टुकड़े हुए देखकर उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसने पास आकर उनके विशाल वक्ष:स्थलपर, जिसपर श्रीवत्सका चिह्न सुशोभित है, कसकर घूँसा मारा और फिर बड़े जोर से गरजकर अन्तर्धान हो गया ॥ १५ ॥
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[*] एक बार गरुडजी अपनी माता विनता को सर्पों की माता कद्रू के दासीपने से मुक्त करने के लिये देवताओं के पाससे अमृत छीन लाये थे। तब इन्द्रने उनके ऊपर अपना वज्र छोड़ा। इन्द्र का वज्र कभी व्यर्थ नहीं जाता, इसलिये उसका मान रखने के लिये गरुडजी ने अपना एक पर गिरा दिया। उसे उस वज्र ने काट डाला।

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बुधवार, 2 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

हिरण्याक्ष-वध

स तं निशाम्यात्तरथाङ्‌गमग्रतो
     व्यवस्थितं पद्मपलाशलोचनम् ।
विलोक्य चामर्ष परिप्लुतेन्द्रियो
     रुषा स्वदन्तच्छदमादशच्छ्वसन् ॥ ७ ॥
करालदंष्ट्रश्चक्षुर्भ्यां सञ्चक्षाणो दहन्निव ।
अभिप्लुत्य स्वगदया हतोऽसीत्याहनद् हरिम् ॥ ८ ॥
पदा सव्येन तां साधो भगवान् यज्ञसूकरः ।
लीलया मिषतः शत्रोः प्राहरद् वातरंहसम् ॥ ९ ॥
आह चायुधमाधत्स्व घटस्व त्वं जिगीषसि ।
इत्युक्तः स तदा भूयः ताडयन् व्यनदद् भृशम् ॥ १० ॥
तां स आपततीं वीक्ष्य भगवान् समवस्थितः ।
जग्राह लीलया प्राप्तां गरुत्मानिव पन्नगीम् ॥ ११ ॥

जब हिरण्याक्ष ने देखा कि कमल-दल-लोचन श्रीहरि उसके सामने चक्र लिये खड़े हैं, तब उसकी सारी इन्द्रियाँ क्रोधसे तिलमिला उठीं और वह लंबी साँसें लेता हुआ अपने दाँतों से होठ चबाने लगा ॥ ७ ॥ उस समय वह तीखी दाढ़ोंवाला दैत्य, अपने नेत्रों से इस प्रकार उनकी ओर घूरने लगा मानो वह भगवान्‌ को भस्म कर देगा । उसने उछलकर ‘ले, अब तू नहीं बच सकता’ इस प्रकार ललकारते हुए श्रीहरि पर गदा से प्रहार किया ॥ ८ ॥ साधुस्वभाव विदुरजी ! यज्ञमूर्ति श्रीवराहभगवान्‌ ने शत्रु के देखते-देखते लीला से ही अपने बायें पैर से उसकी वह वायु के समान वेगवाली गदा पृथ्वी पर गिरा दी और उससे कहा, ‘अरे दैत्य ! तू मुझे जीतना चाहता है, इसलिये अपना शस्त्र उठा ले और एक बार फिर वार कर।’ भगवान्‌ के इस प्रकार कहने पर उसने फिर गदा चलायी और बड़ी भीषण गर्जना करने लगा ॥ ९-१० ॥ गदा को अपनी ओर आते देखकर भगवान्‌ ने, जहाँ खड़े थे वहीं से, उसे आते ही अनायास इस प्रकार पकड़ लिया, जैसे गरुड साँपिन को पकड़ ले ॥ ११ ॥

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मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

हिरण्याक्ष-वध

मैत्रेय उवाच –

अवधार्य विरिञ्चस्य निर्व्यलीकामृतं वचः ।
प्रहस्य प्रेमगर्भेण तदपाङ्‌गेन सोऽग्रहीत् ॥ १ ॥
ततः सपत्नंर मुखतः चरन्तं अकुतोभयम् ।
जघानोत्पत्य गदया हनौ अवसुरमक्षजः ॥ २ ॥
सा हता तेन गदया विहता भगवत्करात् ।
विघूर्णित अपतद् रेजे तदद्भुकतं इवाभवत् ॥ ३ ॥
स तदा लब्धतीर्थोऽपि न बबाधे निरायुधम् ।
मानयन् स मृधे धर्मं विष्वक्सेनं प्रकोपयन् ॥ ४ ॥
गदायां अपविद्धायां हाहाकारे विनिर्गते ।
मानयामास तद् धर्मं सुनाभं चास्मरद्विभुः ॥ ५ ॥
तं व्यग्रचक्रं दितिपुत्राधमेन
     स्वपार्षदमुख्येन विषज्जमानम् ।
चित्रा वाचोऽतद्विदां खेचराणां
     तत्रास्मासन् स्वस्ति तेऽमुं जहीति ॥ ६ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! ब्रह्माजी के ये कपटरहित अमृतमय वचन सुनकर भगवान्‌ ने उनके भोलेपनपर मुसकराकर अपने प्रेमपूर्ण कटाक्षके द्वारा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली ॥ १ ॥ फिर उन्होंने झपटकर अपने सामने निर्भय विचरते हुए शत्रुकी ठुड्डीपर गदा मारी। किन्तु हिरण्याक्षकी गदासे टकराकर वह गदा भगवान्‌के हाथसे छूट गयी और चक्कर काटती हुई जमीनपर गिरकर सुशोभित हुई। किन्तु यह बड़ी अद्भुत-सी घटना हुई ॥ २-३ ॥ उस समय शत्रुपर वार करनेका अच्छा अवसर पाकर भी हिरण्याक्ष ने उन्हें निरस्त्र देखकर युद्धधर्म का पालन करते हुए उनपर आक्रमण नहीं किया। उसने भगवान्‌ का क्रोध बढ़ाने के लिये ही ऐसा किया था ॥ ४ ॥ गदा गिर जाने पर और लोगों का हाहाकार बंद हो जाने पर प्रभु ने उसकी धर्मबुद्धि की प्रशंसा की और अपने सुदर्शनचक्र का स्मरण किया ॥ ५ ॥ चक्र तुरंत ही उपस्थित होकर भगवान्‌ के हाथमें घूमने लगा। किन्तु वे अपने प्रमुख पार्षद दैत्याधम हिरण्याक्ष के साथ विशेषरूप से क्रीडा करने लगे। उस समय उनके प्रभाव को न जाननेवाले देवताओंके ये विचित्र वचन सुनायी देने लगे—‘प्रभो ! आपकी जय हो; इसे और न खेलाइये, शीघ्र ही मार डालिये’ ॥ ६ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...