॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०५)
प्रह्लादजी
का असुर-बालकों को उपदेश
कुटुम्बपोषाय
वियन् निजायुः
न बुध्यतेऽर्थं विहतं प्रमत्तः ।
सर्वत्र
तापत्रयदुःखितात्मा
निर्विद्यते न स्वकुटुम्बरामः ॥ १४ ॥
वित्तेषु
नित्याभिनिविष्टचेता
विद्वांश्च दोषं परवित्तहर्तुः ।
प्रेत्येह
चाथाप्यजितेन्द्रियस्तद्
अशान्तकामो हरते कुटुम्बी ॥ १५ ॥
विद्वानपीत्थं
दनुजाः कुटुम्बं
पुष्णन् स्वलोकाय न कल्पते वै ।
यः
स्वीयपारक्यविभिन्नभावः
तमः प्रपद्येत यथा विमूढः ॥ १६ ॥
यतो
न कश्चित् क्व च कुत्रचिद् वा
दीनः स्वमात्मानमलं समर्थः ।
विमोचितुं
कामदृशां विहार
क्रीडामृगो यन्निगडो विसर्गः ॥ १७ ॥
ततो
विदूरात् परिहृत्य दैत्या
दैत्येषु सङ्गं विषयात्मकेषु ।
उपेत
नारायणमादिदेवं
स मुक्तसङ्गैः इषितोऽपवर्गः ॥ १८ ॥
यह
मेरा कुटुम्ब है,
इस भाव से उस में वह इतना रम जाता है कि उसी के पालन-पोषण के लिये अपनी
अमूल्य आयु को गवाँ देता है और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवन का वास्तविक
उद्देश्य नष्ट हो रहा है। भला, इस प्रमाद की भी कोई सीमा है।
यदि इन कामों में कुछ सुख मिले तो भी एक बात है; परंतु यहाँ
तो जहाँ-जहाँ वह जाता है, वहीं-वहीं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप उसके हृदय को जलाते ही रहते हैं। फिर भी वैराग्य का
उदय नहीं होता। कितनी विडम्बना है ! कुटुम्ब की ममता के फेर में पडक़र वह इतना
असावधान हो जाता है, उसका मन धनके चिन्तन में सदा इतना लवलीन
रहता है कि वह दूसरे का धन चुराने के लौकिक-पारलौकिक दोषों को जानता हुआ भी
कामनाओं को वश में न कर सकने के कारण इन्द्रियों के भोग की लालसा से चोरी कर ही
बैठता है ॥ १४-१५ ॥ भाइयो ! जो इस प्रकार अपने कुटुम्बियों के पेट पालने में ही
लगा रहता है—कभी भगवद्भजन नहीं करता—वह
विद्वान् हो, तो भी उसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती।
क्योंकि अपने पराये का भेद-भाव रहने के कारण उसे भी अज्ञानियों के समान ही
तम:प्रधान गति प्राप्त होती है ॥ १६ ॥ जो कामिनियों के मनोरञ्जनका सामान—उनका क्रीडामृग बन रहा है और जिसने अपने पैरों में सन्तान की बेड़ी जकड़
ली है, वह बेचारा गरीब—चाहे कोई भी हो,
कहीं भी हो—किसी भी प्रकारसे अपना उद्धार नहीं
कर सकता ॥ १७ ॥ इसलिये, भाइयो ! तुमलोग विषयासक्त दैत्यों का
सङ्ग दूर से ही छोड़ दो और आदिदेव भगवान् नारायण की शरण ग्रहण करो ! क्योंकि
जिन्होंने संसार की आसक्ति छोड़ दी है, उन महात्माओं के वे
ही परम प्रियतम और परम गति हैं ॥ १८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से