सोमवार, 16 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

श्रीशुक उवाच
ते नागराजमामन्त्र्य फलभागेन वासुकिम्
परिवीय गिरौ तस्मिन्नेत्रमब्धिं मुदान्विताः ॥ १
आरेभिरे सुसंयत्ता अमृतार्थं कुरूद्वह
हरिः पुरस्ताज्जगृहे पूर्वं देवास्ततोऽभवन् ॥ २
तन्नैच्छन्दैत्यपतयो महापुरुषचेष्टितम्
न गृह्णीमो वयं पुच्छमहेरङ्गममङ्गलम् ॥ ३
स्वाध्यायश्रुतसम्पन्नाः प्रख्याता जन्मकर्मभिः
इति तूष्णीं स्थितान्दैत्यान्विलोक्य पुरुषोत्तमः
स्मयमानो विसृज्याग्रं पुच्छं जग्राह सामरः ॥ ४
कृतस्थानविभागास्त एवं कश्यपनन्दनाः
ममन्थुः परमं यत्ता अमृतार्थं पयोनिधिम् ॥ ५

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! देवता और असुरोंने नागराज वासुकिको यह वचन देकर कि समुद्रमन्थनसे प्राप्त होनेवाले अमृत में तुम्हारा भी हिस्सा रहेगा, उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके बाद उन लोगों ने वासुकि नाग को नेती के समान मन्दराचल में लपेटकर भलीभाँति उद्यत हो बड़े उत्साह और आनन्द से अमृत के लिये समुद्रमन्थन प्रारम्भ किया। उस समय पहले-पहल अजित भगवान्‌ वासुकि के मुख की ओर लग गये, इसलिये देवता भी उधर ही आ जुटे ॥ १-२ ॥ परंतु भगवान्‌ की यह चेष्टा दैत्यसेनापतियों को पसंद न आयी। उन्होंने कहा कि पूँछ तो साँपका अशुभ अङ्ग है, हम उसे नहीं पकड़ेंगे ॥ ३ ॥ हमने वेद-शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है, ऊँचे वंश में हमारा जन्म हुआ है और वीरता के बड़े-बड़े काम हमने किये हैं। हम देवताओं से किस बातमें कम हैं ?’ यह कहकर वे लोग चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनकी यह मनोवृत्ति देखकर भगवान्‌ ने मुसकराकर वासुकि का मुँह छोड़ दिया और देवताओं के साथ उन्होंने पूँछ पकड़ ली ॥ ४ ॥ इस प्रकार अपना-अपना स्थान निश्चित करके देवता और असुर अमृतप्राप्ति के लिये पूरी तैयारी से समुद्रमन्थन करने लगे ॥ ५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




रविवार, 15 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट१०)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट१०)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

ततस्ते मन्दरगिरिं ओजसोत्पाट्य दुर्मदाः ।
नदन्त उदधिं निन्युः शक्ताः परिघबाहवः ॥ ३३ ॥
दूरभारोद्वहश्रान्ताः शक्रवैरोचनादयः ।
अपारयन्तस्तं वोढुं विवशा विजहुः पथि ॥ ३४ ॥
निपतन्स गिरिस्तत्र बहून् अमरदानवान् ।
चूर्णयामास महता भारेण कनकाचलः ॥ ३५ ॥
तांस्तथा भग्नमनसो भग्नबाहूरुकन्धरान् ।
विज्ञाय भगवान् तत्र बभूव गरुडध्वजः ॥ ३६ ॥
गिरिपातविनिष्पिष्टान् विलोक्यामरदानवान् ।
ईक्षया जीवयामास निर्जरान् निर्व्रणान्यथा ॥ ३७ ॥
गिरिं चारोप्य गरुडे हस्तेनैकेन लीलया ।
आरुह्य प्रययावब्धिं सुरासुरगणैर्वृतः ॥ ३८ ॥
अवरोप्य गिरिं स्कन्धात् सुपर्णः पततां वरः ।
ययौ जलान्त उत्सृज्य हरिणा स विसर्जितः ॥ ३९ ॥

इसके बाद उन्होंने अपनी शक्तिसे मन्दराचलको उखाड़ लिया और ललकारते तथा गरजते हुए उसे समुद्रतटकी ओर ले चले। उनकी भुजाएँ परिघके समान थीं, शरीरमें शक्ति थी और अपने-अपने बलका घमंड तो था ही ॥ ३३ ॥ परंतु एक तो वह मन्दरपर्वत ही बहुत भारी था और दूसरे उसे ले जाना भी बहुत दूर था। इससे इन्द्र, बलि आदि सब-के-सब हार गये। जब ये किसी प्रकार भी मन्दराचलको आगे न ले जा सके, तब विवश होकर उन्होंने उसे रास्तेमें ही पटक दिया ॥ ३४ ॥ वह सोनेका पर्वत मन्दराचल बड़ा भारी था। गिरते समय उसने बहुत-से देवता और दानवोंको चकनाचूर कर डाला ॥ ३५ ॥
उन देवता और असुरोंके हाथ, कमर और कंधे टूट ही गये थे, मन भी टूट गया। उनका उत्साह भंग हुआ देख गरुड़पर चढ़े हुए भगवान्‌ सहसा वहीं प्रकट हो गये ॥ ३६ ॥ उन्होंने देखा कि देवता और असुर पर्वतके गिरनेसे पिस गये हैं। अत: उन्होंने अपनी अमृतमयी दृष्टिसे देवताओंको इस प्रकार जीवित कर दिया, मानो उनके शरीरमें बिलकुल चोट ही न लगी हो ॥ ३७ ॥ इसके बाद उन्होंने खेल-ही-खेलमें एक हाथसे उस पर्वतको उठाकर गरुड़पर रख लिया और स्वयं भी सवार हो गये। फिर देवता और असुरोंके साथ उन्होंने समुद्रतटकी यात्रा की ॥ ३८ ॥ पक्षिराज गरुडऩे समुद्रके तटपर पर्वतको उतार दिया। फिर भगवान्‌ के विदा करनेपर गरुडज़ी वहाँसे चले गये ॥ ३९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे मंदराचल आनयनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०९)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०९)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

श्रीशुक उवाच -

इति देवान् समादिश्य भगवान् पुरुषोत्तमः ।
तेषामन्तर्दधे राजन् स्वच्छन्दगतिरीश्वरः ॥ २६ ॥
अथ तस्मै भगवते नमस्कृत्य पितामहः ।
भवश्च जग्मतुः स्वं स्वं धामोपेयुर्बलिं सुराः ॥ २७ ॥
दृष्ट्वा अरीनप्यसंयत्तान् जातक्षोभान् स्वनायकान् ।
न्यषेधद् दैत्यराट् श्लोक्यः सन्धिविग्रहकालवित् ॥ २८ ॥
ते वैरोचनिमासीनं गुप्तं चासुरयूथपैः ।
श्रिया परमया जुष्टं जिताशेषमुपागमन् ॥ २९ ॥
महेन्द्रः श्लक्ष्णया वाचा सान्त्वयित्वा महामतिः ।
अभ्यभाषत तत्सर्वं शिक्षितं पुरुषोत्तमात् ॥ ३० ॥
तदरोचत दैत्यस्य तत्रान्ये येऽसुराधिपाः ।
शम्बरोऽरिष्टनेमिश्च ये च त्रिपुरवासिनः ॥ ३१ ॥
ततो देवासुराः कृत्वा संविदं कृतसौहृदाः ।
उद्यमं परमं चक्रुः अमृतार्थे परंतप ॥ ३२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! देवताओंको यह आदेश देकर पुरुषोत्तम भगवान्‌ उनके बीचमें ही अन्तर्धान हो गये। वे सर्वशक्तिमान् एवं परम स्वतन्त्र जो ठहरे। उनकी लीलाका रहस्य कौन समझे ॥ २६ ॥ उनके चले जानेपर ब्रह्मा और शङ्करने फिरसे भगवान्‌ को नमस्कार किया और वे अपने-अपने लोकोंको चले गये, तदनन्तर इन्द्रादि देवता राजा बलिके पास गये ॥ २७ ॥ देवताओंको बिना अस्त्र-शस्त्रके सामने आते देख दैत्यसेनापतियों के मनमें बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने देवताओंको पकड़ लेना चाहा। परंतु दैत्यराज बलि सन्धि और विरोधके अवसरको जाननेवाले एवं पवित्र कीर्तिसे सम्पन्न थे। उन्होंने दैत्योंको वैसा करनेसे रोक दिया ॥ २८ ॥ इसके बाद देवतालोग बलिके पास पहुँचे। बलिने तीनों लोकोंको जीत लिया था। वे समस्त सम्पत्तियोंसे सेवित एवं असुर-सेनापतियोंसे सुरक्षित होकर अपने राजसिंहासनपर बैठे हुए थे ॥ २९ ॥ बुद्धिमान् इन्द्रने बड़ी मधुर वाणीसे समझाते हुए राजा बलिसे वे सब बातें कहीं, जिनकी शिक्षा स्वयं भगवान्‌ने उन्हें दी थी ॥ ३० ॥ वह बात दैत्यराज बलिको जँच गयी। वहाँ बैठे हुए दूसरे सेनापति शम्बर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरनिवासी असुरोंको भी यह बात बहुत अच्छी लगी ॥ ३१ ॥ तब देवता और असुरोंने आपसमें सन्धि समझौता करके मित्रता कर ली और परीक्षित्‌ ! वे सब मिलकर अमृत मन्थनके लिये पूर्ण उद्योग करने लगे ॥ ३२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




शनिवार, 14 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०८)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०८)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

यूयं तदनुमोदध्वं यदिच्छन्ति असुराः सुराः ।
न संरम्भेण सिध्यन्ति सर्वार्थाः सान्त्वया यथा ॥ २४ ॥
न भेतव्यं कालकूटाद् विषात् जलधिसम्भवात् ।
लोभः कार्यो न वो जातु रोषः कामस्तु वस्तुषु ॥ २५ ॥

(श्रीभगवान्‌ कह  रहे हैं) देवताओ ! असुरलोग तुमसे जो-जो चाहें, सब स्वीकार कर लो। शान्ति से सब काम बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता ॥ २४ ॥ पहले समुद्र से कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं। और किसी भी वस्तु के लिये कभी भी लोभ न करना। पहले तो किसी वस्तु की कामना ही नहीं करनी चाहिये, परंतु यदि कामना हो और वह पूरी न हो , तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिये ॥ २५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०७)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

श्रीभगवानुवाच -

हन्त ब्रह्मन् अहो शम्भो हे देवा मम भाषितम् ।
श्रृणुतावहिताः सर्वे श्रेयो वः स्याद् यथा सुराः ॥ १८ ॥
यात दानवदैतेयैः तावत् सन्धिर्विधीयताम् ।
कालेनानुगृहीतैस्तैः यावद् वो भव आत्मनः ॥ १९ ॥
अरयोऽपि हि सन्धेयाः सति कार्यार्थगौरवे ।
अहिमूषिकवद् देवा ह्यर्थस्य पदवीं गतैः ॥ २० ॥
अमृतोत्पादने यत्‍नः क्रियतां अविलम्बितम् ।
यस्य पीतस्य वै जन्तुः मृत्युग्रस्तोऽमरो भवेत् ॥ २१ ॥
क्षिप्त्वा क्षीरोदधौ सर्वा वीरुत्तृणलतौषधीः ।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम् ॥ २२ ॥
सहायेन मया देवा निर्मन्थध्वमतन्द्रिताः ।
क्लेशभाजो भविष्यन्ति दैत्या यूयं फलग्रहाः ॥ २३ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहाब्रह्मा, शङ्कर और देवताओ ! तुमलोग सावधान होकर मेरी सलाह सुनो। तुम्हारे कल्याण का यही उपाय है ॥ १८ ॥ इस समय असुरों पर कालकी कृपा है। इसलिये जब तक तुम्हारे अभ्युदय और उन्नतिका समय नहीं आता, तबतक तुम दैत्य और दानवों के पास जाकर उनसे सन्धि कर लो ॥ १९ ॥ देवताओ ! कोई बड़ा कार्य करना हो तो शत्रुओंसे भी मेल-मिलाप कर लेना चाहिये। यह बात अवश्य है कि काम बन जानेपर उनके साथ साँप और चूहेवाला बर्ताव कर सकते हैं [*] ॥२०॥ तुमलोग बिना विलम्बके अमृत निकालनेका प्रयत्न करो। उसे पी लेनेपर मरनेवाला प्राणी भी अमर हो जाता है ॥ २१ ॥ पहले क्षीरसागरमें सब प्रकारके घास, तिनके, लताएँ और ओषधियाँ डाल दो। फिर तुमलोग मन्दराचलकी मथानी और वासुकि नागकी नेती बनाकर मेरी सहायतासे समुद्रका मन्थन करो। अब आलस्य और प्रमादका समय नहीं है। देवताओ ! विश्वास रखोदैत्योंको तो मिलेगा केवल श्रम और क्लेश, परंतु फल मिलेगा तुम्हीं लोगोंको ॥ २२-२३ ॥
..............................................
[*] किसी मदारी की पिटारी में साँप तो पहले से था ही, संयोगवश उसमें एक चूहा भी जा घुसा। चूहे के भयभीत होनेपर साँपने उसे प्रेम से समझाया कि तुम पिटारी में छेद कर दो, फिर हम दोनों भाग निकलेंगे। पहले तो साँप की इस बातपर चूहे को विश्वास न हुआ, परंतु पीछे उसने पिटारी में छेद कर दिया। इस प्रकार काम बन जाने पर साँप चूहे को निगल गया और पिटारी से निकल भागा।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

श्रीशुक उवाच

एवं विरिञ्चादिभिरीडितस्तद्
     विज्ञाय तेषां हृदयं तथैव ।
जगाद जीमूतगभीरया गिरा
     बद्धाञ्जलीन् संवृतसर्वकारकान् ॥ १६ ॥
एक एवेश्वरस्तस्मिन् सुरकार्ये सुरेश्वरः ।
विहर्तुकामस्तानाह समुद्रोन्मथनादिभिः ॥ १७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंब्रह्मा आदि देवताओं ने इस प्रकार स्तुति करके अपनी सारी इन्द्रियाँ रोक लीं और सब बड़ी सावधानी के साथ हाथ जोडक़र खड़े हो गये। उनकी स्तुति सुनकर और उसी प्रकार उनके हृदय की बात जानकर भगवान्‌ मेघ के समान गम्भीर वाणी से बोले ॥ १६ ॥ परीक्षित्‌ ! समस्त देवताओंके तथा जगत् के एकमात्र स्वामी भगवान्‌ अकेले ही उनका सब कार्य करने में समर्थ थे, फिर भी समुद्र-मन्थन आदि लीलाओंके द्वारा विहार करनेकी इच्छासे वे देवताओं को सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगे ॥ १७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

स त्वं विधत्स्वाखिललोकपाला
     वयं यदर्थास्तव पादमूलम् ।
समागतास्ते बहिरन्तरात्मन्
     किं वान्यविज्ञाप्यमशेषसाक्षिणः ॥ १४ ॥
अहं गिरित्रश्च सुरादयो ये
     दक्षादयोऽग्नेरिव केतवस्ते ।
किं वा विदामेश पृथग्विभाता
     विधत्स्व शं नो द्विजदेवमंत्रम् ॥ १५ ॥

आप ही हमारे बाहर और भीतर के आत्मा हैं। हम सब लोकपाल जिस उद्देश्य से आपके चरणों की शरणमें आये हैं, उसे आप कृपा करके पूर्ण कीजिये। आप सबके साक्षी हैं, अत: इस विषय में हम लोग आपसे और क्या निवेदन करें ॥ १४ ॥ प्रभो ! मैं शङ्कर जी, अन्य देवता, ऋषि और दक्ष आदि प्रजापतिसब-के-सब अग्नि से  अलग हुई चिनगारी की तरह आपके ही अंश हैं और अपनेको आपसे अलग मानते हैं। ऐसी स्थितिमें प्रभो ! हमलोग समझ ही क्या सकते हैं। ब्राह्मण और देवताओंके कल्याणके लिये जो कुछ करना आवश्यक हो, उसका आदेश आप ही दीजिये और आप वैसा स्वयं कर भी लीजिये ॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



गुरुवार, 12 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

यथाग्निमेधस्यमृतं च गोषु
     भुव्यन्नमम्बूद्यमने च वृत्तिम् ।
योगैर्मनुष्या अधियन्ति हि त्वां
     गुणेषु बुद्ध्या कवयो वदन्ति ॥ १२ ॥
तं त्वां वयं नाथ समुज्जिहानं
     सरोजनाभातिचिरेप्सितार्थम् ।
दृष्ट्वा गता निर्वृतमद्य सर्वे
     गजा दवार्ता इव गाङ्‌गमम्भः ॥ १३ ॥

जैसे मनुष्य युक्तिके द्वारा लकड़ीसे आग, गौसे अमृतके समान दूध, पृथ्वीसे अन्न तथा जल और व्यापारसे अपनी आजीविका प्राप्त कर लेते हैंवैसे ही विवेकी पुरुष भी अपनी शुद्ध बुद्धिसे भक्तियोग, ज्ञानयोग आदिके द्वारा आपको इन विषयोंमें ही प्राप्त कर लेते हैं और अपनी अनुभूतिके अनुसार आपका वर्णन भी करते हैं ॥ १२ ॥ कमलनाभ ! जिस प्रकार दावाग्नि से झुलसता हुआ हाथी गङ्गाजल में डुबकी लगाकर सुख और शान्ति का अनुभव करने लगता है, वैसे ही आपके आविर्भावसे हमलोग परम सुखी और शान्त हो गये हैं। स्वामी ! हमलोग बहुत दिनोंसे आपके दर्शनोंके लिये अत्यन्त लालायित हो रहे थे ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना

त्वय्यग्र आसीत् त्वयि मध्य आसीत्
     त्वय्यन्त आसीत् इदमात्मतंत्रे ।
त्वं आदिरन्तो जगतोऽस्य मध्यं
     घटस्य मृत्स्नेव परः परस्मात् ॥ १० ॥
त्वं माययात्माश्रयया स्वयेदं
     निर्माय विश्वं तदनुप्रविष्टः ।
पश्यन्ति युक्ता मनसा मनीषिणो
     गुणव्यवायेऽप्यगुणं विपश्चितः ॥ ११ ॥

आपमें ही पहले यह जगत् लीन था, मध्यमें भी यह आपमें ही स्थित है और अन्तमें भी यह पुन: आपमें ही लीन हो जायगा। आप स्वयं कार्य-कारणसे परे परम स्वतन्त्र हैं। आप ही इस जगत्के आदि, अन्त और मध्य हैंवैसे ही जैसे घड़ेका आदि, मध्य और अन्त मिट्टी है ॥ १० ॥ आप अपने ही आश्रय रहनेवाली अपनी मायासे इस संसारकी रचना करते हैं और इसमें फिरसे प्रवेश करके अन्तर्यामीके रूपमें विराजमान होते हैं। इसीलिये विवेकी और शास्त्रज्ञ पुरुष बड़ी सावधानीसे अपने मनको एकाग्र करके इन गुणोंकी, विषयोंकी भीड़में भी आपके निर्गुण स्वरूपका ही साक्षात्कार करते हैं ॥ ११ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...