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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)
ब्रह्माजी
के द्वारा भगवान् की स्तुति
प्रपञ्चं
निष्प्रपञ्चोऽपि विडम्बयसि भूतले ।
प्रपन्नजनतानन्द
सन्दोहं प्रथितुं प्रभो ॥ ३७ ॥
जानन्त
एव जानन्तु किं बहूक्त्या न मे प्रभो ।
मनसो
वपुषो वाचो वैभवं तव गोचरः ॥ ३८ ॥
अनुजानीहि
मां कृष्ण सर्वं त्वं वेत्सि सर्वदृक् ।
त्वमेव
जगतां नाथो जगद् एतत् तवार्पितम् ॥ ३९ ॥
श्रीकृष्ण
वृष्णिकुलपुष्करजोषदायिन्
क्ष्मानिर्जरद्विजपशूदधिवृद्धिकारिन्
।
उद्धर्मशार्वरहर
क्षितिराक्षसध्रुग्
आकल्पमार्कमर्हन्
भगवन् नमस्ते ॥ ४० ॥
प्रभो
! आप विश्वके बखेड़े से सर्वथा रहित हैं, फिर भी अपने शरणागत
भक्तजनों को अनन्त आनन्द वितरण करनेके लिये पृथ्वीमें अवतार लेकर विश्वके समान ही
लीलाविलासका विस्तार करते हैं ॥ ३७ ॥ मेरे स्वामी ! बहुत कहनेकी आवश्यकता नहीं—जो लोग आपकी महिमा जानते हैं, वे जानते रहें;
मेरे मन, वाणी और शरीर तो आपकी महिमा जाननेमें
सर्वथा असमर्थ हैं ॥ ३८ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप सबके साक्षी हैं।
इसलिये आप सब कुछ जानते हैं। आप समस्त जगत्के स्वामी हैं। यह सम्पूर्ण प्रपञ्च
आपमें ही स्थित है। आपसे मैं और क्या कहूँ ? अब आप मुझे
स्वीकार कीजिये। मुझे अपने लोकमें जानेकी आज्ञा दीजिये ॥ ३९ ॥ सबके मन-प्राणको
अपनी रूप-माधुरी से आकर्षित करनेवाले श्यामसुन्दर ! आप यदुवंशरूपी कमलको विकसित
करनेवाले सूर्य हैं। प्रभो ! पृथ्वी, देवता, ब्राह्मण और पशुरूप समुद्रकी अभिवृद्धि करनेवाले चन्द्रमा भी आप ही हैं।
आप पाखण्डियोंके धर्मरूप रात्रिका घोर अन्धकार नष्ट करनेके लिये सूर्य और चन्द्रमा
दोनोंके ही समान हैं। पृथ्वीपर रहनेवाले राक्षसोंके नष्ट करनेवाले आप चन्द्रमा,
सूर्य आदि समस्त देवताओंके भी परम पूजनीय हैं। भगवन् ! मैं अपने
जीवनभर, महाकल्पपर्यन्त आपको नमस्कार ही करता रहूँ ॥ ४० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से