॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०६)
प्रह्लादजी
का असुर-बालकों को उपदेश
न
ह्यच्युतं प्रीणयतो बह्वायासोऽसुरात्मजाः ।
आत्मत्वात्
सर्वभूतानां सिद्धत्वादिह सर्वतः ॥ १९ ॥
परावरेषु
भूतेषु ब्रह्मान्तस्थावरादिषु ।
भौतिकेषु
विकारेषु भूतेष्वथ महत्सु च ॥ २० ॥
गुणेषु
गुणसाम्ये च गुणव्यतिकरे तथा ।
एक
एव परो ह्यात्मा भगवान् ईश्वरोऽव्ययः ॥ २१ ॥
प्रत्यगात्मस्वरूपेण
दृश्यरूपेण च स्वयम् ।
व्याप्यव्यापकनिर्देश्यो
हि,
अनिर्देश्योऽविकल्पितः ॥ २२ ॥
मित्रो
! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये कोई बहुत परिश्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता।
क्योंकि वे समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और सर्वत्र सब की सत्ता के रूप में
स्वयंसिद्ध वस्तु हैं ॥ १९ ॥ ब्रह्मा से लेकर तिनके तक छोटे-बड़े समस्त
प्राणियोंमें,
पञ्चभूतों से बनी हुई वस्तुओं में,पञ्चभूतों में,
सूक्ष्म तन्मात्राओं में, महत्तत्त्व में,
तीनों गुणों में और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति में एक ही अविनाशी
परमात्मा विराजमान हैं। वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और
ऐश्वर्यों की खान हैं ॥ २०-२१ ॥ वे ही अन्तर्यामी द्रष्टा के रूप में हैं और वे ही
दृश्य जगत् के रूपमें भी हैं । सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होने पर भी
द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापक के रूप में उनका
निर्वचन किया जाता है। वस्तुत: उनमें एक भी विकल्प नहीं है ॥ २२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से