सोमवार, 31 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान्‌ का युद्ध

एषा घोरतमा सन्ध्या लोकच्छम्बट्करी प्रभो ।
उपसर्पति सर्वात्मन् सुराणां जयमावह ॥ २६ ॥
अधुनैषोऽभिजिन्नाम योगो मौहूर्तिको ह्यगात् ।
शिवाय नस्त्वं सुहृदां आशु निस्तर दुस्तरम् ॥ २७ ॥
दिष्ट्या त्वां विहितं मृत्युं अयं आसादितः स्वयम् ।
विक्रम्यैनं मृधे हत्वा लोकान् आधेहि शर्मणि ॥ २८ ॥

(श्रीब्रह्माजी कहते हैं) ‘प्रभो ! देखिये, लोकों का संहार करनेवाली संन्ध्या की भयङ्कर वेला आना ही चाहती है। सर्वात्मन् ! आप उससे पहले ही इस असुर को मारकर देवताओं को विजय प्रदान कीजिये ॥ २६ ॥ इस समय अभिजित् नामक मङ्गलमय मुहूर्त का भी योग आ गया है। अत: अपने सुहृद् हमलोगों के कल्याण के लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्य से निपट लीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो ! इसकी मृत्यु आप के ही हाथ बदी है। हमलोगों के बड़े भाग्य हैं कि यह स्वयं ही अपने कालरूप आपके पास आ पहुँचा है। अब आप युद्धमें बलपूर्वक इसे मारकर लोकों को शान्ति प्रदान कीजिये॥२८॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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रविवार, 30 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान्‌ का युद्ध

ब्रह्मोवाच –

एष ते देव देवानां अङ्‌‌घ्रिमूलमुपेयुषाम् ।
विप्राणां सौरभेयीणां भूतानां अपि अनागसाम् ॥ २२ ॥
आगस्कृद् भयकृद् दुष्कृद् अस्मद् राद्धवरोऽसुरः ।
अन्वेषन् अप्रतिरथो लोकान् अटति कण्टकः ॥ २३ ॥
मैनं मायाविनं दृप्तं निरङ्‌कुशमसत्तमम् ।
आक्रीड बालवद्देव यथाऽऽशीविषमुत्थितम् ॥ २४ ॥
न यावदेष वर्धेत स्वां वेलां प्राप्य दारुणः ।
स्वां देव मायां आस्थाय तावत् जह्यघमच्युत ॥ २५ ॥

श्रीब्रह्माजीने कहा—देव ! मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है। इस समय यह आपके चरणोंकी शरणमें रहनेवाले देवताओं, ब्राह्मणों, गौओं तथा अन्य निरपराध जीवोंको बहुत ही हानि पहुँचानेवाला, दु:खदायी और भयप्रद हो रहा है। इसकी जोडक़ा और कोई योद्धा नहीं है, इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करनेवाले वीरकी खोजमें समस्त लोकोंमें घूम रहा है ॥ २२-२३ ॥ यह दुष्ट बड़ा ही मायावी, घमण्डी और निरङ्कुश है। बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए साँपसे खेलता है; वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें ॥ २४ ॥ देव ! अच्युत ! जबतक यह दारुण दैत्य अपनी बलवृद्धिकी वेलाको पाकर प्रबल हो, उससे पहले-पहले ही आप अपनी योगमायाको स्वीकार करके इस पापीको मार डालिये ॥ २५ ॥ 

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शनिवार, 29 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान्‌ का युद्ध

एवं गदाभ्यां गुर्वीभ्यां हर्यक्षो हरिरेव च ।
जिगीषया सुसंरब्धौ अन्योन्यं अभिजघ्नतुः ॥ १८ ॥
तयोः स्पृधोस्तिग्मगदाहताङ्‌गयोः
     क्षतास्रवघ्राणविवृद्धमन्य्वोः ।
विचित्रमार्गांश्चरतोर्जिगीषया
     व्यभादिलायामिव शुष्मिणोर्मृधः ॥ १९ ॥
दैत्यस्य यज्ञावयवस्य माया
     गृहीतवाराहतनोर्महात्मनः ।
कौरव्य मह्यां द्विषतोर्विमर्दनं
     दिदृक्षुरागाद् ऋषिभिर्वृतः स्वराट् ॥ २० ॥
आसन्नशौण्डीरमपेतसाध्वसं
     कृतप्रतीकारमहार्यविक्रमम् ।
विलक्ष्य दैत्यं भगवान् सहस्रणीः
     जगाद नारायणमादिसूकरम् ॥ २१ ॥

इस प्रकार श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपस में अपनी भारी गदाओं से प्रहार करने लगे ॥ १८ ॥ उस समय उन दोनों में ही जीतने की होड़ लग गयी, दोनों के ही अङ्ग गदाओं की चोटों से घायल हो गये थे, अपने अङ्गों के घावों से बहने वाले रुधिर की गन्ध से दोनोंका ही क्रोध बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह-तरहके पैंतरे बदल रहे थे। इस प्रकार गौके लिये आपसमें लडऩेवाले दो साँड़ोंके समान उन दोनोंमें एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे बड़ा भयङ्कर युद्ध हुआ ॥ १९ ॥ विदुरजी ! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और मायासे वराहरूप धारण करनेवाले भगवान्‌ यज्ञमूर्ति पृथ्वीके लिये द्वेष बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखनेके लिये वहाँ ऋषियोंके सहित ब्रह्माजी आये ॥ २० ॥ वे हजारों ऋषियोंसे घिरे हुए थे। जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भयका नाम भी नहीं है, वह मुकाबला करनेमें भी समर्थ है और उसके पराक्रमको चूर्ण करना बड़ा कठिन काम है, तब वे भगवान्‌ आदिसूकररूप नारायण से इस प्रकार कहने लगे ॥ २१ ॥

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शुक्रवार, 28 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

हिरण्याक्ष के साथ वराहभगवान्‌ का युद्ध

मैत्रेय उवाच –

सोऽधिक्षिप्तो भगवता प्रलब्धश्च रुषा भृशम् ।
आजहारोल्बणं क्रोधं क्रीड्यमानोऽहिराडिव ॥ १३ ॥
सृजन् अमर्षितः श्वासान् मन्युप्रचलितेन्द्रियः ।
आसाद्य तरसा दैत्यो गदया न्यहनद् हरिम् ॥ १४ ॥
भगवान् तु गदावेगं विसृष्टं रिपुणोरसि ।
अवञ्चयत् तिरश्चीनो योगारूढ इवान्तकम् ॥ १५ ॥
पुनर्गदां स्वां आदाय भ्रामयन्तं अभीक्ष्णशः ।
अभ्यधावद् हरिः क्रुद्धः संरम्भाद् दष्टदच्छदम् ॥ १६ ॥
ततश्च गदयारातिं दक्षिणस्यां भ्रुवि प्रभुः ।
आजघ्ने स तु तां सौम्य गदया कोविदोऽहनत् ॥ १७ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जब भगवान्‌ने रोषसे उस दैत्यका इस प्रकार खूब उपहास और तिरस्कार किया, तब वह पकडक़र खेलाये जाते हुए सर्पके समान क्रोधसे तिलमिला उठा ॥ १३ ॥ वह खीझकर लंबी-लंबी साँसें लेने लगा, उसकी इन्द्रियाँ क्रोधसे क्षुब्ध हो उठीं और उस दुष्ट दैत्यने बड़े वेगसे लपककर भगवान्‌पर गदाका प्रहार किया ॥ १४ ॥ किन्तु भगवान्‌ने अपनी छातीपर चलायी हुई शत्रुकी गदाके प्रहारको कुछ टेढ़े होकर बचा लिया—ठीक वैसे ही, जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्युके आक्रमणसे अपनेको बचा लेता है ॥ १५ ॥ फिर जब वह क्रोधसे होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार-बार घुमाने लगा, तब श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेगसे उसकी ओर झपटे ॥ १६ ॥ सौम्यस्वभाव विदुरजी ! तब प्रभुने शत्रुकी दायीं भौंहपर गदाकी चोट की, किन्तु गदायुद्धमें कुशल हिरण्याक्षने उसे बीचमें ही अपनी गदापर ले लिया ॥ १७ ॥ 

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गुरुवार, 27 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

हिरण्याक्ष के साथ वराहभगवान्‌ का युद्ध

श्रीभगवानुवाच –

सत्यं वयं भो वनगोचरा मृगा
     युष्मद्विधान्मृगये ग्रामसिंहान् ।
न मृत्युपाशैः प्रतिमुक्तस्य वीरा
     विकत्थनं तव गृह्णन्त्यभद्र ॥ १० ॥
एते वयं न्यासहरा रसौकसां
     गतह्रियो गदया द्रावितास्ते ।
तिष्ठामहेऽथापि कथञ्चिदाजौ
     स्थेयं क्व यामो बलिनोत्पाद्य वैरम् ॥ ११ ॥
त्वं पद्-रथानां किल यूथपाधिपो
     घटस्व नोऽस्वस्तय आश्वनूहः ।
संस्थाप्य चास्मान् प्रमृजाश्रु स्वकानां
     यः स्वां प्रतिज्ञां नातिपिपर्त्यसभ्यः ॥ १२ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा—अरे ! सचमुच ही हम जंगली जीव हैं, जो तुझ-जैसे ग्राम-सिंहों (कुत्तों) को ढूँढ़ते फिरते हैं। दुष्ट ! वीर पुरुष तुझ-जैसे मृत्यु-पाशमें बँधे हुए अभागे जीवों की आत्मश्लाघापर ध्यान नहीं देते ॥ १० ॥ हाँ, हम रसातलवासियों की धरोहर चुराकर और लज्जा छोडक़र तेरी गदा के भयसे यहाँ भाग आये हैं। हममें ऐसी सामर्थ्य ही कहाँ कि तेरे-जैसे अद्वितीय वीरके सामने युद्धमें ठहर सकें। फिर भी हम जैसे-तैसे तेरे सामने खड़े हैं; तुझ-जैसे बलवानोंसे वैर बाँधकर हम जा भी कहाँ सकते हैं ? ॥ ११ ॥ तू पैदल वीरोंका सरदार है, इसलिये अब नि:शङ्क होकर—उधेड़-बुन छोडक़र हमारा अनिष्ट करनेका प्रयत्न कर और हमें मारकर अपने भाई-बन्धुओंके आँसू पोंछ। अब इसमें देर न कर। जो अपनी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता, वह असभ्य है—भले आदमियोंमें बैठनेलायक नहीं है ॥ १२ ॥

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बुधवार, 26 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

हिरण्याक्ष के साथ वराहभगवान्‌ का युद्ध

स तुद्यमानोऽरिदुरुक्ततोमरैः
     दंष्ट्राग्रगां गां उपलक्ष्य भीताम् ।
तोदं मृषन् निरगाद् अम्बुमध्याद्
     ग्राहाहतः सकरेणुर्यथेभः ॥ ६ ॥
तं निःसरन्तं सलिलाद् अनुद्रुतो
     हिरण्यकेशो द्विरदं यथा झषः ।
करालदंष्ट्रोऽशनिनिस्वनोऽब्रवीद्‌
     गतह्रियां किं त्वसतां विगर्हितम् ॥ ७ ॥
स गां उदस्तात् सलिलस्य गोचरे
     विन्यस्य तस्यां अदधात् स्वसत्त्वम् ।
अभिष्टुतो विश्वसृजा प्रसूनैः
     आपूर्यमाणो विबुधैः पश्यतोऽरेः ॥ ८ ॥
परानुषक्तं तपनीयोपकल्पं
     महागदं काञ्चनचित्रदंशम् ।
मर्माण्यभीक्ष्णं प्रतुदन्तं दुरुक्तैः
     प्रचण्डमन्युः प्रहसन् तं बभाषे ॥ ९ ॥

हिरण्याक्ष भगवान्‌ को दुर्वचन-बाणों से छेदे जा रहा था; परन्तु उन्होंने दाँतकी नोकपर स्थित पृथ्वीको भयभीत देखकर वह चोट सह ली तथा जलसे उसी प्रकार बाहर निकल आये, जैसे ग्राह की चोट खाकर हथिनीसहित गजराज ॥ ६ ॥ जब उसकी चुनौतीका कोई उत्तर न देकर वे जलसे बाहर आने लगे, तब ग्राह जैसे गज का पीछा करता है, उसी प्रकार पीले केश और तीखी दाढ़ों वाले उस दैत्यने उनका पीछा किया तथा वज्रके समान कडक़कर वह कहने लगा, ‘तुझे भागनेमें लज्जा नहीं आती ? सच है, असत् पुरुषों के लिये कौन-सा काम न करने योग्य है ?’ ॥ ७ ॥
भगवान्‌ ने पृथ्वी को ले जाकर जल के ऊपर व्यवहार-योग्य स्थान में स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधारशक्ति का सञ्चार किया। उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति की और देवताओंने फूल बरसाये ॥ ८ ॥ तब श्रीहरिने बड़ी भारी गदा लिये अपने पीछे आ रहे हिरण्याक्ष से, जो सोनेके आभूषण और अद्भुत कवच धारण किये था तथा अपने कटुवाक्योंसे उन्हें निरन्तर मर्माहत कर रहा था, अत्यन्त क्रोधपूर्वक हँसते हुए कहा ॥ ९ ॥

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मंगलवार, 25 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

हिरण्याक्ष के साथ वराहभगवान्‌ का युद्ध

मैत्रेय उवाच ।

तदेवमाकर्ण्य जलेशभाषितं
     महामनास्तद् विगणय्य दुर्मदः ।
हरेर्विदित्वा गतिमङ्‌ग नारदाद्
     रसातलं निर्विविशे त्वरान्वितः ॥ १ ॥
ददर्श तत्राभिजितं धराधरं
     प्रोन्नीयमान अवनिं अग्रदंष्ट्रया ।
मुष्णन्तमक्ष्णा स्वरुचोऽरुणश्रिया
     जहास चाहो वनगोचरो मृगः ॥ २ ॥
आहैनमेह्यज्ञ महीं विमुञ्च नो
     रसौकसां विश्वसृजेयमर्पिता ।
न स्वस्ति यास्यस्यनया ममेक्षतः
     सुराधमासादितसूकराकृते ॥ ३ ॥
त्वं नः सपत्नैःस अभवाय किं भृतो
     यो मायया हन्त्यसुरान् परोक्षजित् ।
त्वां योगमायाबलमल्पपौरुषं
     संस्थाप्य मूढ प्रमृजे सुहृच्छुचः ॥ ४ ॥
त्वयि संस्थिते गदया शीर्णशीर्षणि
     अस्मद्भुदजच्युतया ये च तुभ्यम् ।
बलिं हरन्ति ऋषयो ये च देवाः
     स्वयं सर्वे न भविष्यन्त्यमूलाः ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेयजी ने कहा—तात ! वरुणजी की यह बात सुनकर वह मदोन्मत्त दैत्य बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उनके इस कथनपर कि ‘तू उनके हाथसे मारा जायगा’ कुछ भी ध्यान नहीं दिया और चट नारदजी से श्रीहरि का पता लगाकर रसातल में पहुँच गया ॥ १ ॥ वहाँ उसने विश्वविजयी वराहभगवान्‌को अपनी दाढ़ोंकी नोकपर पृथ्वीको ऊपरकी ओर ले जाते हुए देखा। वे अपने लाल- लाल चमकीले नेत्रोंसे उसके तेजको हर लेते थे। उन्हें देखकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘अरे ! यह जंगली पशु यहाँ जलमें कहाँ से आया’ ॥ २ ॥ फिर वराहजी से कहा, ‘अरे नासमझ ! इधर आ, इस पृथ्वीको छोड़ दे; इसे विश्वविधाता ब्रह्माजी ने हम रसातलवासियों के हवाले कर दिया है । रे सूकररूपधारी सुराधम ! मेरे देखते-देखते तू इसे लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकता ॥ ३ ॥ तू मायासे लुक-छिपकर ही दैत्योंको जीत लेता और मार डालता है। क्या इसीसे हमारे शत्रुओंने हमारा नाश करानेके लिये तुझे पाला है ? मूढ़ ! तेरा बल तो योगमाया ही है; और कोई पुरुषार्थ तुझमें थोड़े ही हैं। आज तुझे समाप्तकर मैं अपने बन्धुओंका शोक दूर करूँगा ॥ ४ ॥ जब मेरे हाथसे छूटी हुई गदाके प्रहारसे सिर फट जानेके कारण तू मर जायगा, तब तेरी आराधना करनेवाले जो देवता और ऋषि हैं, वे सब भी जड़ कटे हुए वृक्षोंकी भाँति स्वयं ही नष्ट हो जायँगे’ ॥ ५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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सोमवार, 24 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा 
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

स एवं उत्सिक्त मदेन विद्विषा
     दृढं प्रलब्धो भगवान् अपां पतिः ।
रोषं समुत्थं शमयन् स्वया धिया
     व्यवोचदङ्‌गोपशमं गता वयम् ॥ २९ ॥
पश्यामि नान्यं पुरुषात् पुरातनाद्
     यः संयुगे त्वां रणमार्गकोविदम् ।
आराधयिष्यति असुरर्षभेहि तं
     मनस्विनो यं गृणते भवादृशाः ॥ ३० ॥
तं वीरमारादभिपद्य विस्मयः
     शयिष्यसे वीरशये श्वभिर्वृतः ।
यस्त्वद्विधानां असतां प्रशान्तये
     रूपाणि धत्ते सदनुग्रहेच्छया ॥ ३१ ॥

उस मदोन्मत्त शत्रुके इस प्रकार बहुत उपहास करनेसे भगवान्‌ वरुण को क्रोध तो बहुत आया, किन्तु अपने बुद्धिबल से वे उसे पी गये और बदले में उससे कहने लगे—‘भाई ! हमें तो अब युद्धादि का कोई चाव नहीं रह गया है ॥ २९ ॥ भगवान्‌ पुराणपुरुष के सिवा हमें और कोई ऐसा दीखता भी नहीं, जो तुम-जैसे रणकुशल वीर को युद्ध में सन्तुष्ट कर सके। दैत्यराज ! तुम उन्हीं के पास जाओ, वे ही तुम्हारी कामना पूरी करेंगे। तुम-जैसे वीर उन्हीं का गुणगान किया करते हैं ॥ ३० ॥ वे बड़े वीर हैं। उनके पास पहुँचते ही तुम्हारी सारी शेखी पूरी हो जायगी और तुम कुत्तोंसे घिरकर वीरशय्यापर शयन करोगे। वे तुम-जैसे दुष्टोंको मारने और सत्पुरुषोंपर कृपा करनेके लिये अनेक प्रकारके रूप धारण किया करते हैं’ ॥ ३१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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रविवार, 23 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा 
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

स वर्षपूगान् उदधौ महाबलः
     चरन् महोर्मीन् श्वसनेरितान्मुहुः ।
मौर्व्याभिजघ्ने गदया विभावरीं
     आसेदिवान् तास्तात पुरीं प्रचेतसः ॥ २६ ॥
तत्रोपलभ्यासुरलोकपालकं
     यादोगणानां ऋषभं प्रचेतसम् ।
स्मयन् प्रलब्धुं प्रणिपत्य नीचवत्
     जगाद मे देह्यधिराज संयुगम् ॥ २७ ॥
त्वं लोकपालोऽधिपतिर्बृहच्छ्रवा
     वीर्यापहो दुर्मदवीरमानिनाम् ।
विजित्य लोकेऽखिलदैत्यदानवान्
     यद् राजसूयेन पुरायजत्प्रभो ॥ २८ ॥

महाबली हिरण्याक्ष अनेक वर्षोंतक समुद्रमें ही घूमता और सामने किसी प्रतिपक्षीको न पाकर बार- बार वायुवेगसे उठी हुई उसकी प्रचण्ड तरङ्गोंपर ही अपनी लोहमयी गदाको आजमाता रहा। इस प्रकार घूमते-घूमते वह वरुणकी राजधानी विभावरीपुरी में जा पहुँचा ॥ २६ ॥ वहाँ पाताललोक के स्वामी, जलचरों के अधिपति वरुणजी को देखकर उसने उनकी हँसी उड़ाते हुए नीच मनुष्य की भाँति प्रणाम किया और कुछ मुसकराते हुए व्यङ्गसे कहा—‘महाराज ! मुझे युद्धकी भिक्षा दीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो ! आप तो लोकपालक, राजा और बड़े कीर्तिशाली हैं। जो लोग अपनेको बाँका वीर समझते थे, उनके वीर्यमदको भी आप चूर्ण कर चुके हैं और पहले एक बार आपने संसारके समस्त दैत्य-दानवोंको जीतकर राजसूय-यज्ञ भी किया था’ ॥ २८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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शनिवार, 22 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा 
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

चक्रे हिरण्यकशिपुः दोर्भ्यां ब्रह्मवरेण च ।
वशे सपालान् लोकान् त्रीन् अकुतोमृत्युरुद्धतः ॥ १९ ॥
हिरण्याक्षो अनुजस्तस्य प्रियः प्रीतिकृदन्वहम् ।
गदापाणिर्दिवं यातो युयुत्सुः मृगयन् रणम् ॥ २० ॥
तं वीक्ष्य दुःसहजवं रणत् काञ्चन नूपुरम् ।
वैजयन्त्या स्रजा जुष्टं अंस न्यस्त महागदम् ॥ २१ ॥
मनोवीर्यवर उत्सिक्तं असृण्यं अकुतोभयम् ।
भीता निलिल्यिरे देवाः तार्क्ष्य त्रस्तः इवाहयः ॥ २२ ॥
स वै तिरोहितान् दृष्ट्वा महसा स्वेन दैत्यराट् ।
स-इन्द्रान् देवगणान् क्षीबान् अपश्यन् व्यनदद्भृःशम् ॥ २३ ॥
ततो निवृत्तः क्रीडिष्यन् गम्भीरं भीमनिस्वनम् ।
विजगाहे महासत्त्वो वार्धिं मत्त इव द्विपः ॥ २४ ॥
तस्मिन्प्रविष्टे वरुणस्य सैनिका
     यादोगणाः सन्नधियः ससाध्वसाः ।
अहन्यमाना अपि तस्य वर्चसा
     प्रधर्षिता दूरतरं प्रदुद्रुवुः ॥ २५ ॥

हिरण्यकशिपु ब्रह्माजीके वरसे मृत्युभयसे मुक्त हो जानेके कारण बड़ा उद्धत हो गया था। उसने अपनी भुजाओंके बलसे लोकपालोंके सहित तीनों लोकोंको अपने वशमें कर लिया ॥ १९ ॥ वह अपने छोटे भाई हिरण्याक्षको बहुत चाहता था और वह भी सदा अपने बड़े भाईका प्रिय कार्य करता रहता था। एक दिन वह हिरण्याक्ष हाथमें गदा लिये युद्धका अवसर ढूँढ़ता हुआ स्वर्गलोकमें जा पहुँचा ॥ २० ॥ उसका वेग बड़ा असह्य था। उसके पैरोंमें सोनेके नूपुरोंकी झनकार हो रही थी, गलेमें विजयसूचक माला धारण की हुई थी और कंधेपर विशाल गदा रखी हुई थी ॥ २१ ॥ उसके मनोबल, शारीरिक बल तथा ब्रह्माजीके वरने उसे मतवाला कर रखा था; इसलिये वह सर्वथा निरङ्कुश और निर्भय हो रहा था। उसे देखकर देवता लोग डरके मारे वैसे ही जहाँ-तहाँ छिप गये, जैसे गरुडक़े डर से साँप छिप जाते हैं ॥ २२ ॥ जब दैत्यराज हिरण्याक्षने देखा कि मेरे तेजके सामने बड़े-बड़े गर्वीले इन्द्रादि देवता भी छिप गये हैं, तब उन्हें अपने सामने न देखकर वह बार-बार भयङ्कर गर्जना करने लगा ॥ २३ ॥ फिर वह महाबली दैत्य वहाँसे लौटकर जलक्रीडा करनेके लिये मतवाले हाथीके समान गहरे समुद्रमें घुस गया, जिसमें लहरोंकी बड़ी भयङ्कर गर्जना हो रही थी ॥ २४ ॥ ज्यों ही उसने समुद्रमें पैर रखा कि डरके मारे वरुणके सैनिक जलचर जीव हकबका गये और किसी प्रकार की छेड़छाड़ न करनेपर भी वे उसकी धाक से ही घबराकर बहुत दूर भाग गये ॥ २५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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शुक्रवार, 21 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा 
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

तौ आदिदैत्यौ सहसा व्यज्यमान आत्मपौरुषौ ।
ववृधातेऽश्मसारेण कायेन अद्रिपती इव ॥ १६ ॥
दिविस्पृशौ हेमकिरीटकोटिभिः
     निरुद्धकाष्ठौ स्फुरदङ्‌गदाभुजौ ।
गां कंपयन्तौ चरणैः पदे पदे
     कट्या सुकाञ्च्यार्कमतीत्य तस्थतुः ॥ १७ ॥
प्रजापतिर्नाम तयोरकार्षीद्
     यः प्राक् स्वदेहाद्यमयोरजायत ।
तं वै हिरण्यकशिपुं विदुः प्रजा
     यं तं हिरण्याक्षमसूत साग्रतः ॥ १८ ॥

वे दोनों आदिदैत्य जन्म के अनन्तर शीघ्र ही अपने फौलाद के समान कठोर शरीरों से बढक़र महान् पर्वतों के सदृश हो गये तथा उनका पूर्व पराक्रम भी प्रकट हो गया ॥ १६ ॥ वे इतने ऊँचे थे कि उनके सुवर्णमय मुकुटों का अग्रभाग स्वर्ग को स्पर्श करता था और उनके विशाल शरीरों से सारी दिशाएँ आच्छादित हो जाती थीं। उनकी भुजाओंमें सोनेके बाजूबंद चमचमा रहे थे। पृथ्वीपर जो वे एक-एक कदम रखते थे, उससे भूकम्प होने लगता था और जब वे खड़े होते थे, तब उनकी जगमगाती हुई चमकीली करधनीसे सुशोभित कमर अपने प्रकाशसे सूर्यको भी मात करती थी ॥ १७ ॥ वे दोनों यमज थे। प्रजापति कश्यपजीने उनका नामकरण किया। उनमेंसे जो उनके वीर्यसे दितिके गर्भमें पहले स्थापित हुआ था, उसका नाम हिरण्यकशिपु रखा और जो दितिके उदरसे पहले निकला, वह हिरण्याक्षके नामसे विख्यात हुआ ॥ १८ ॥

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गुरुवार, 20 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा 
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

खराश्च कर्कशैः क्षत्तः खुरैर्घ्नन्तो धरातलम् ।
खार्कार रभसा मत्ताः पर्यधावन् वरूथशः ॥ ११ ॥
रुदन्तो रासभत्रस्ता नीडाद् उदपतन्खगाः ।
घोषेऽरण्ये च पशवः शकृन् मूत्रमकुर्वत ॥ १२ ॥
गावः अत्रसन् असृग्दोहाः तोयदाः पूयवर्षिणः ।
व्यरुदन् देवलिङ्‌गानि द्रुमाः पेतुर्विनानिलम् ॥ १३ ॥
ग्रहान् पुण्यतमानन्ये भगणांश्चापि दीपिताः ।
अतिचेरुः वक्रगत्या युयुधुश्च परस्परम् ॥ १४ ॥
दृष्ट्वा अन्यांश्च महोत्पातान् अतत्-तत्त्वविदः प्रजाः ।
ब्रह्मपुत्रान् ऋते भीता मेनिरे विश्वसंप्लवम् ॥ १५ ॥

(श्रीमैत्रेयजी कहरहे हैं) विदुरजी ! झुंड-के-झुंड गधे अपने कठोर खुरोंसे पृथ्वी खोदते और रेंकनेका शब्द करते मतवाले होकर इधर-उधर दौडऩे लगे ॥ ११ ॥ पक्षी गधोंके शब्दसे डरकर रोते-चिल्लाते अपने घोंसलोंसे उडऩे लगे। अपनी खिरकोंमें बँधे हुए और वनमें चरते हुए गाय-बैल आदि पशु डरके मारे मल-मूत्र त्यागने लगे ॥ १२ ॥ गौएँ ऐसी डर गयीं कि दुहनेपर उनके थनोंसे खून निकलने लगा, बादल पीबकी वर्षा करने लगे, देवमूर्तियोंकी आँखोंसे आँसू बहने लगे और आँधीके बिना ही वृक्ष उखड़-उखडक़र गिरने लगे ॥ १३ ॥ शनि, राहु आदि क्रूर ग्रह प्रबल होकर चन्द्र, बृहस्पति आदि सौम्य ग्रहों तथा बहुत-से नक्षत्रों को लाँघकर वक्रगति से चलने लगे तथा आपस में युद्ध करने लगे ॥ १४ ॥ ऐसे ही और भी अनेकों भयङ्कर उत्पात देखकर सनकादि के सिवा और सब जीव भयभीत हो गये तथा उन उत्पातों का मर्म न जानने के कारण उन्होंने यही समझा कि अब संसार का प्रलय होनेवाला है ॥ १५ ॥

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बुधवार, 19 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा 
हिरण्याक्ष की दिग्विजय

मैत्रेय उवाच -
निशम्यात्मभुवा गीतं कारणं शङ्‌कयोज्झिताः ।
ततः सर्वे न्यवर्तन्त त्रिदिवाय दिवौकसः ॥ १ ॥
दितिस्तु भर्तुरादेशाद् अपत्यपरिशङ्‌किनी ।
पूर्णे वर्षशते साध्वी पुत्रौ प्रसुषुवे यमौ ॥ २ ॥
उत्पाता बहवस्तत्र निपेतुर्जायमानयोः ।
दिवि भुव्यन्तरिक्षे च लोकस्य उरु भयावहाः ॥ ३ ॥
सहाचला भुवश्चेलुः दिशः सर्वाः प्रजज्वलुः ।
स उल्काश्च अशनयः पेतुः, केतवश्चार्तिहेतवः ॥ ४ ॥
ववौ वायुः सुदुःस्पर्शः फूत्कारानीरयन्मुहुः ।
उन्मूलयन् नगपतीन् वात्यानीको रजोध्वजः ॥ ५ ॥
उद्धसत् तडिदम्भोद घटया नष्टभागणे ।
व्योम्नि प्रविष्टतमसा न स्म व्यादृश्यते पदम् ॥ ६ ॥
चुक्रोश विमना वार्धिरुदूर्मिः क्षुभितोदरः ।
सोदपानाश्च सरितः चुक्षुभुः शुष्कपङ्‌कजाः ॥ ७ ॥
मुहुः परिधयोऽभूवन् सराह्वोः शशिसूर्ययोः ।
निर्घाता रथनिर्ह्रादा विवरेभ्यः प्रजज्ञिरे ॥ ८ ॥
अन्तर्ग्रामेषु मुखतो वमन्त्यो वह्निमुल्बणम् ।
सृगाल उलूक टङ्‌कारैः प्रणेदुः अशिवं शिवाः ॥ ९ ॥
सङ्‌गीतवद् रोदनवद् उन्नमय्य शिरोधराम् ।
व्यमुञ्चन् विविधा वाचो ग्रामसिंहाः ततस्ततः ॥ १० ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! ब्रह्माजी के कहने से अन्धकार का कारण जानकर देवताओं की शङ्का निवृत्त हो गयी और फिर वे सब स्वर्गलोकको लौट आये ॥ १ ॥ इधर दिति को अपने पतिदेवके कथनानुसार पुत्रों की ओर से उपद्रवादिकी आशङ्का बनी रहती थी। इसलिये जब पूरे सौ वर्ष बीत गये, तब उस साध्वीने दो यमज (जुड़वे) पुत्र उत्पन्न किये ॥ २ ॥ उनके जन्म लेते समय स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें अनेकों उत्पात होने लगे—जिनसे लोग अत्यन्त भयभीत हो गये ॥ ३ ॥ जहाँ-तहाँ पृथ्वी और पर्वत काँपने लगे, सब दिशाओंमें दाह होने लगा। जगह-जगह उल्कापात होने लगा, बिजलियाँ गिरने लगीं और आकाशमें अनिष्टसूचक धूमकेतु (पुच्छल तारे) दिखायी देने लगे ॥ ४ ॥ बार-बार सायँ-सायँ करती और बड़े-बड़े वृक्षोंको उखाड़ती हुई बड़ी विकट और असह्य वायु चलने लगी। उस समय आँधी उसकी सेना और उड़ती हुई धूल ध्वजाके समान जान पड़ती थी ॥ ५ ॥ बिजली जोर-जोरसे चमककर मानो खिलखिला रही थी। घटाओंने ऐसा सघन रूप धारण किया कि सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहोंके लुप्त हो जानेसे आकाशमें गहरा अँधेरा छा गया। उस समय कहीं कुछ भी दिखायी न देता था ॥ ६ ॥ समुद्र दुखी मनुष्यकी भाँति कोलाहल करने लगा, उसमें ऊँची-ऊँची तरंगें उठने लगीं और उसके भीतर रहनेवाले जीवोंमें बड़ी हलचल मच गयी। नदियों तथा अन्य जलाशयोंमें भी बड़ी खलबली मच गयी और उनके कमल सूख गये ॥ ७ ॥ सूर्य और चन्द्रमा बार-बार ग्रसे जाने लगे तथा उनके चारों ओर अमङ्गलसूचक मण्डल बैठने लगे। बिना बादलोंके ही गरजनेका शब्द होने लगा तथा गुफाओंमेंसे रथकी घरघराहटका-सा शब्द निकलने लगा ॥ ८ ॥ गाँवोंमें गीदड़ और उल्लुओंके भयानक शब्दके साथ ही सियारियाँ मुखसे दहकती हुई आग उगलकर बड़ा अमङ्गल शब्द करने लगीं ॥ ९ ॥ जहाँ-तहाँ कुत्ते अपनी गरदन ऊपर उठाकर कभी गाने और कभी रोनेके समान भाँति-भाँतिके शब्द करने लगे ॥ १० ॥ 

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मंगलवार, 18 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

एतत्पुरैव निर्दिष्टं रमया क्रुद्धया यदा ।
पुरापवारिता द्वारि विशन्ती मय्युपारते ॥ ३० ॥
मयि संरम्भयोगेन निस्तीर्य ब्रह्महेलनम् ।
प्रत्येष्यतं निकाशं मे कालेनाल्पीयसा पुनः ॥ ३१ ॥
द्वाःस्थावादिश्य भगवान् विमानश्रेणिभूषणम् ।
सर्वातिशयया लक्ष्म्या जुष्टं स्वं धिष्ण्यमाविशत् ॥ ३२ ॥
तौ तु गीर्वाणऋषभौ दुस्तरात् हरिलोकतः ।
हतश्रियौ ब्रह्मशापाद् अभूतां विगतस्मयौ ॥ ३३ ॥
तदा विकुण्ठधिषणात् तयोर्निपतमानयोः ।
हाहाकारो महानासीद् विमानाग्र्येषु पुत्रकाः ॥ ३४ ॥
तावेव ह्यधुना प्राप्तौ पार्षदप्रवरौ हरेः ।
दितेर्जठरनिर्विष्टं काश्यपं तेज उल्बणम् ॥ ३५ ॥
तयोरसुरयोरद्य तेजसा यमयोर्हि वः ।
आक्षिप्तं तेज एतर्हि भगवान् तद्विधित्सति ॥ ३६ ॥
विश्वस्य यः स्थितिलयोद्भावहेतुराद्यो
     योगेश्वरैरपि दुरत्यययोगमायः ।
क्षेमं विधास्यति स नो भगवांस्त्र्यधीशः
     तत्रास्मदीयविमृशेन कियानिहार्थः ॥ ३७ ॥

एक बार जब मैं योगनिद्रामें स्थित हो गया था, तब तुमने द्वार में प्रवेश करती हुई लक्ष्मीजी को रोका था। उस समय उन्होंने क्रुद्ध होकर पहले ही तुम्हें यह शाप दे दिया था ॥ ३० ॥ अब दैत्ययोनि में मेरे प्रति क्रोधाकार वृत्ति रहनेसे तुम्हें जो एकाग्रता होगी, उससे तुम इस विप्र- तिरस्कारजनित पापसे मुक्त हो जाओगे और फिर थोड़े ही समयमें मेरे पास लौट आओगे ॥ ३१ ॥ द्वारपालों को इस प्रकार आज्ञा दे, भगवान्‌ ने विमानों की श्रेणियों से सुसज्जित अपने सर्वाधिक श्रीसम्पन्नधाम में प्रवेश किया ॥ ३२ ॥ वे देवश्रेष्ठ जय-विजय तो ब्रह्मशाप के कारण उस अलङ्घनीय भगवद्धाम में ही श्रीहीन हो गये तथा उनका सारा गर्व गलित हो गया ॥ ३३ ॥ पुत्रो ! फिर जब वे वैकुण्ठलोकसे गिरने लगे, तब वहाँ श्रेष्ठ विमानोंपर बैठे हुए वैकुण्ठवासियोंमें महान् हाहाकार मच गया ॥ ३४ ॥ इस समय दितिके गर्भमें स्थित जो कश्यपजीका उग्र तेज है, उसमें भगवान्‌ के उन पार्षदप्रवरों ने ही प्रवेश किया है ॥ ३५ ॥ उन दोनों असुरोंके तेजसे ही तुम सबका तेज फीका पड़ गया है। इस समय भगवान्‌ ऐसा ही करना चाहते हैं ॥ ३६ ॥ जो आदिपुरुष संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और लयके कारण हैं, जिनकी योगमायाको बड़े-बड़े योगिजन भी बड़ी कठिनतासे पार कर पाते हैं—वे सत्त्वादि तीनों गुणों के नियन्ता श्रीहरि ही हमारा कल्याण करेंगे। अब इस विषयमें हमारे विशेष विचार करनेसे क्या लाभ हो सकता है ॥ ३७ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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सोमवार, 17 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

श्रीभगवानुवाच -
एतौ सुरेतरगतिं प्रतिपद्य सद्यः
संरम्भसम्भृतसमाध्यनुबद्धयोगौ ।
भूयः सकाशमुपयास्यत आशु यो वः
शापो मयैव निमितस्तदवेत विप्राः ॥ २६ ॥

ब्रह्मोवाच -
अथ ते मुनयो दृष्ट्वा नयनानन्दभाजनम् ।
वैकुण्ठं तदधिष्ठानं विकुण्ठं च स्वयंप्रभम् ॥ २७ ॥
भगवन्तं परिक्रम्य प्रणिपत्यानुमान्य च ।
प्रतिजग्मुः प्रमुदिताः शंसन्तो वैष्णवीं श्रियम् ॥ २८ ॥
भगवाननुगावाह यातं मा भैष्टमस्तु शम् ।
ब्रह्मतेजः समर्थोऽपि हन्तुं नेच्छे मतं तु मे ॥ २९ ॥

श्रीभगवान्‌ने कहा—मुनिगण ! आपने इन्हें जो शाप दिया है—सच जानिये, वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। अब ये शीघ्र ही दैत्ययोनि को प्राप्त होंगे और वहाँ क्रोधावेश से बढ़ी हुई एकाग्रता के कारण सुदृढ़ योगसम्पन्न होकर फिर जल्दी ही मेरे पास लौट आयेंगे ॥ २६ ॥
श्रीब्रह्मा जी कहते हैं—तदनन्तर उन मुनीश्वरों ने नयनाभिराम भगवान्‌ विष्णु और उनके स्वयंप्रकाश वैकुण्ठ-धाम के दर्शन करके प्रभु की परिक्रमा की और उन्हें प्रणामकर तथा उनकी आज्ञा पा भगवान्‌ के ऐश्वर्यका वर्णन करते हुए प्रमुदित हो वहाँ से लौट गये ॥ २७-२८ ॥ फिर भगवान्‌ ने अपने अनुचरों से कहा, ‘जाओ, मन में किसी प्रकारका भय मत करो; तुम्हारा कल्याण होगा । मैं सब कुछ करने में समर्थ होकर भी ब्रह्मतेज को मिटाना नहीं चाहता; क्योंकि ऐसा ही मुझे अभिमत भी है ॥ २९ ॥

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रविवार, 16 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

तत्तेऽनभीष्टमिव सत्त्वनिधेर्विधित्सोः
     क्षेमं जनाय निजशक्तिभिरुद्‌धृतारेः ।
नैतावता त्र्यधिपतेर्बत विश्वभर्तुः
     तेजः क्षतं त्ववनतस्य स ते विनोदः ॥ २४ ॥
यं वानयोर्दममधीश भवान्विधत्ते
     वृत्तिं नु वा तदनुमन्महि निर्व्यलीकम् ।
अस्मासु वा य उचितो ध्रियतां स दण्डो
     येऽनागसौ वयमयुङ्‌क्ष्महि किल्बिषेण ॥ २५ ॥

प्रभो ! आप सत्त्वगुणकी खान हैं और सभी जीवोंका कल्याण करनेके लिये उत्सुक हैं। इसीसे आप अपनी शक्तिरूप राजा आदिके द्वारा धर्मके शत्रुओंका संहार करते हैं; क्योंकि वेदमार्गका उच्छेद आपको अभीष्ट नहीं है। आप त्रिलोकीनाथ और जगत्प्रतिपालक होकर भी ब्राह्मणोंके प्रति इतने नम्र रहते हैं, इससे आपके तेजकी कोई हानि नहीं होती; यह तो आपकी लीलामात्र है ॥ २४ ॥ सर्वेश्वर ! इन द्वारपालोंको आप जैसा उचित समझें वैसा दण्ड दें, अथवा पुरस्काररूपमें इनकी वृत्ति बढ़ा दें—हम निष्कपट भावसे सब प्रकार आपसे सहमत हैं। अथवा हमने आपके इन निरपराध अनुचरोंको शाप दिया है, इसके लिये हमींको उचित दण्ड दें; हमें वह भी सहर्ष स्वीकार है ॥ २५ ॥

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शनिवार, 15 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

धर्मस्य ते भगवतस्त्रियुग त्रिभिः स्वैः
     पद्‌भिश्चराचरमिदं द्विजदेवतार्थम् ।
नूनं भृतं तदभिघाति रजस्तमश्च
     सत्त्वेन नो वरदया तनुवा निरस्य ॥ २२ ॥
न त्वं द्विजोत्तमकुलं यदि हात्मगोपं
     गोप्ता वृषः स्वर्हणेन ससूनृतेन ।
तर्ह्येव नङ्‌क्ष्यति शिवस्तव देव पन्था
     लोकोऽग्रहीष्यद् ऋषभस्य हि तत्प्रमाणम् ॥ २३ ॥

भगवन् ! आप साक्षात् धर्मस्वरूप हैं। आप सत्यादि तीनों युगोंमें प्रत्यक्षरूपसे विद्यमान रहते हैं तथा ब्राह्मण और देवताओंके लिये तप, शौच और दया—अपने इन तीन चरणोंसे इस चराचर जगत्की रक्षा करते हैं। अब आप अपनी शुद्धसत्त्वमयी वरदायिनी मूर्तिसे हमारे धर्मविरोधी रजोगुण-तमोगुणको दूर कर दीजिये ॥ २२ ॥ देव ! यह ब्राह्मणकुल आपके द्वारा अवश्य रक्षणीय है। यदि साक्षात् धर्मरूप होकर भी आप सुमधुर वाणी और पूजनादिके द्वारा इस उत्तम कुलकी रक्षा न करें तो आपका निश्चित किया हुआ कल्याणमार्ग ही नष्ट हो जाय; क्योंकि लोक तो श्रेष्ठ पुरुषोंके आचरणको ही प्रमाणरूपसे ग्रहण करता है ॥ २३ ॥ 

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शुक्रवार, 14 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

यं वै विभूतिरुपयात्यनुवेलमन्यैः
     अर्थार्थिभिः स्वशिरसा धृतपादरेणुः ।
धन्यार्पिताङ्‌‌घ्रितुलसीनवदामधाम्नो
     लोकं मधुव्रतपतेरिव कामयाना ॥ २० ॥
यस्तां विविक्तचरितैः अनुवर्तमानां
     नात्याद्रियत्परमभागवतप्रसङ्‌गः ।
स त्वं द्विजानुपथपुण्यरजः पुनीतः
     श्रीवत्सलक्ष्म किमगा भगभाजनस्त्वम् ॥ २१ ॥

(सनकादि मुनि श्रीभगवान्‌से कह रहे हैं) भगवन् ! दूसरे अर्थार्थी जन जिनकी चरण-रज को सर्वदा अपने मस्तकपर धारण करते हैं, वे लक्ष्मी जी निरन्तर आपकी सेवा में लगी रहती हैं; सो ऐसा जान पड़ता है कि भाग्यवान् भक्तजन आपके चरणों पर जो नूतन तुलसी की मालाएँ अर्पण करते हैं, उन पर गुंजार करते हुए भौंरों के समान वे भी आपके पादपद्मों को ही अपना निवासस्थान बनाना चाहती हैं ॥ २० ॥ किन्तु अपने पवित्र चरित्रों से निरन्तर सेवा में तत्पर रहनेवाली उन लक्ष्मीजी का भी आप विशेष आदर नहीं करते, आप तो अपने भक्तों से ही विशेष प्रेम रखते हैं। आप स्वयं ही सम्पूर्ण भजनीय गुणों के आश्रय हैं; क्या जहाँ-तहाँ विचरते हुए ब्राह्मणों के चरणों में लगने से पवित्र हुई मार्ग की धूलि और श्रीवत्स का चिह्न आपको पवित्र कर सकते हैं ? क्या इनसे आपकी शोभा बढ़ सकती है ? ॥ २१ ॥

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गुरुवार, 13 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

ऋषय ऊचुः –

न वयं भगवन् विद्मः तव देव चिकीर्षितम् ।
कृतो मेऽनुग्रहश्चेति यदध्यक्षः प्रभाषसे ॥ १६ ॥
ब्रह्मण्यस्य परं दैवं ब्राह्मणाः किल ते प्रभो ।
विप्राणां देवदेवानां भगवान् आत्मदैवतम् ॥ १७ ॥
त्वत्तः सनातनो धर्मो रक्ष्यते तनुभिस्तव ।
धर्मस्य परमो गुह्यो निर्विकारो भवान्मतः ॥ १८ ॥
तरन्ति ह्यञ्जसा मृत्युं निवृत्ता यदनुग्रहात् ।
योगिनः स भवान् किंस्विद् अनुगृह्येत यत्परैः ॥ १९ ॥

मुनियोंने कहा—स्वप्रकाश भगवन् ! आप सर्वेश्वर होकर भी जो यह कह रहे हैं कि ‘यह आपने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया’ सो इससे आपका क्या अभिप्राय है—यह हम नहीं जान सके हैं ॥ १६ ॥ प्रभो ! आप ब्राह्मणोंके परम हितकारी हैं; इससे लोक-शिक्षाके लिये आप भले ही ऐसा मानें कि ब्राह्मण मेरे आराध्यदेव हैं। वस्तुत: तो ब्राह्मण तथा देवताओंके भी देवता ब्रह्मादिके भी आप ही आत्मा और आराध्यदेव हैं ॥ १७ ॥ सनातनधर्म आपसे ही उत्पन्न हुआ है, आपके अवतारोंद्वारा ही समय-समयपर उसकी रक्षा होती है तथा निर्विकारस्वरूप आप ही धर्मके परम गुह्य रहस्य हैं—यह शास्त्रोंका मत है ॥ १८ ॥ आपकी कृपासे निवृत्तिपरायण योगिजन सहजमें ही मृत्युरूप संसार-सागरसे पार हो जाते हैं; फिर भला, दूसरा कोई आपपर क्या कृपा कर सकता है ॥ १९ ॥ 

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बुधवार, 12 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

ब्रह्मोवाच –

अथ तस्योशतीं देवीं ऋषिकुल्यां सरस्वतीम् ।
नास्वाद्य मन्युदष्टानां तेषां आत्माप्यतृप्यत ॥ १३ ॥
सतीं व्यादाय शृण्वन्तो लघ्वीं गुर्वर्थगह्वराम् ।
विगाह्यागाधगम्भीरां न विदुस्तच्चिकीर्षितम् ॥ १४ ॥
ते योगमाययारब्ध पारमेष्ठ्यमहोदयम् ।
प्रोचुः प्राञ्जलयो विप्राः प्रहृष्टाः क्षुभितत्वचः ॥ १५ ॥

श्रीब्रह्माजी कहते हैं—देवताओ ! सनकादि मुनि क्रोधरूप सर्प से डसे हुए थे, तो भी उनका चित्त अन्त:करणको प्रकाशित करनेवाली भगवान्‌की मन्त्रमयी सुमधुर वाणी सुनते-सुनते तृप्त नहीं हुआ ॥ १३ ॥ भगवान्‌की उक्ति बड़ी ही मनोहर और थोड़े अक्षरोंवाली थी; किन्तु वह इतनी अर्थपूर्ण, सारयुक्त, दुर्विज्ञेय और गम्भीर थी कि बहुत ध्यान देकर सुनने और विचार करने पर भी वे यह न जान सके कि भगवान्‌ क्या करना चाहते हैं ॥ १४ ॥ भगवान्‌ की इस अद्भुत उदारता को देखकर वे बहुत आनन्दित हुए और उनका अङ्ग-अङ्ग पुलकित हो गया। फिर योगमायाके प्रभावसे अपने परम ऐश्वर्यका प्रभाव प्रकट करनेवाले प्रभुसे वे हाथ जोडक़र कहने लगे ॥ १५ ॥

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मंगलवार, 11 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

ये ब्राह्मणान्मयि धिया क्षिपतोऽर्चयन्तः
     तुष्यद्‌धृदः स्मितसुधोक्षितपद्मवक्त्राः ।
वाण्यानुरागकलयात्मजवद् गृणन्तः
     सम्बोधयन्ति अहमिवाहमुपाहृतस्तैः ॥ ११ ॥
तन्मे स्वभर्तुरवसायमलक्षमाणौ
     युष्मद्व्यतिक्रमगतिं प्रतिपद्य सद्यः ।
भूयो ममान्तिकमितां तदनुग्रहो मे
     यत्कल्पतामचिरतो भृतयोर्विवासः ॥ १२ ॥

(श्रीभगवान्‌ सनकादि मुनियों से कह रहे हैं) ब्राह्मण तिरस्कारपूर्वक कटुभाषण भी करे, तो भी जो उसमें मेरी भावना करके प्रसन्नचित्त से तथा अमृतभरी मुसकान से युक्त मुखकमल से उसका आदर करते हैं तथा जैसे रूठे हुए पिता को पुत्र और आपलोगों को मैं मनाता हूँ, उसी प्रकार जो प्रेमपूर्ण वचनोंसे प्रार्थना करते हुए उन्हें शान्त करते हैं, वे मुझे अपने वशमें कर लेते हैं ॥ ११ ॥ मेरे इन सेवकों ने मेरा अभिप्राय न समझकर ही आपलोगों का अपमान किया है। इसलिये मेरे अनुरोध से आप केवल इतनी कृपा कीजिये कि इनका यह निर्वासनकाल शीघ्र ही समाप्त हो जाय, ये अपने अपराध के अनुरूप अधम गति को भोगकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आयें ॥ १२ ॥

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सोमवार, 10 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

येषां बिभर्म्यहमखण्डविकुण्ठयोग
     मायाविभूतिरमलाङ्‌‌घ्रिरजः किरीटैः ।
विप्रांस्तु को न विषहेत यदर्हणाम्भः
     सद्यः पुनाति सहचन्द्रललामलोकान् ॥ ९ ॥
ये मे तनूर्द्विजवरान्दुहतीर्मदीया
     भूतान्यलब्धशरणानि च भेदबुद्ध्या ।
द्रक्ष्यन्त्यघक्षतदृशो ह्यहिमन्यवस्तान्
     गृध्रा रुषा मम कुषन्त्यधिदण्डनेतुः ॥ १० ॥

(श्रीभगवान्‌ कह रहे हैं) योगमायाका अखण्ड और असीम ऐश्वर्य मेरे अधीन है तथा मेरी चरणोदकरूपिणी गङ्गाजी चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करनेवाले भगवान्‌ शङ्कर के सहित समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। ऐसा परम पवित्र एवं परमेश्वर होकर भी मैं जिनकी पवित्र चरण-रज को अपने मुकुट पर धारण करता हूँ, उन ब्राह्मणों के कर्म को कौन नहीं सहन करेगा ॥ ९ ॥ ब्राह्मण, दूध देने वाली गौएँ और अनाथ प्राणी—ये मेरे ही शरीर हैं। पापों के द्वारा विवेकदृष्टि नष्ट हो जाने के कारण जो लोग इन्हें मुझ से भिन्न समझते हैं, उन्हें मेरे द्वारा नियुक्त यमराज के गृध्र-जैसे दूत—जो सर्प के समान क्रोधी हैं—अत्यन्त क्रोधित होकर अपनी चोंचों से नोचते हैं ॥ १० ॥ 

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रविवार, 9 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

यस्यामृतामलयशःश्रवणावगाहः
     सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः ।
सोऽहं भवद्भ्य  उपलब्धसुतीर्थकीर्तिः
     छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ॥ ६ ॥
यत्सेवया चरणपद्मपवित्ररेणुं
     सद्यः क्षताखिलमलं प्रतिलब्धशीलम् ।
न श्रीर्विरक्तमपि मां विजहाति यस्याः
     प्रेक्षालवार्थ इतरे नियमान् वहन्ति ॥ ७ ॥
नाहं तथाद्मि यजमानहविर्वितानेः
     च्योतद्घृनतप्लुतमदन् हुतभुङ्‌‌मुखेन ।
यद्ब्रााह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं
     तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः ॥ ८ ॥

(श्रीभगवान्‌ सनकादि मुनियों से कह रहे हैं) मेरी निर्मल सुयश-सुधा में गोता लगाने से चाण्डालपर्यन्त सारा जगत् तुरंत पवित्र हो जाता है, इसीलिये मैं ‘विकुण्ठ’ कहलाता हूँ। किन्तु यह पवित्र कीर्ति मुझे आपलोगों से ही प्राप्त हुई है। इसलिये जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, वह मेरी भुजा ही क्यों न हो—मैं उसे तुरन्त काट डालूँगा ॥ ६ ॥ आपलोगोंकी सेवा करनेसे ही मेरी चरण-रज को ऐसी पवित्रता प्राप्त हुई है कि वह सारे पापोंको तत्काल नष्ट कर देती है और मुझे ऐसा सुन्दर स्वभाव मिला है कि मेरे उदासीन रहनेपर भी लक्ष्मी जी मुझे एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़तीं—यद्यपि इन्हीं के लेशमात्र कृपाकटाक्ष के लिये अन्य ब्रह्मादि देवता नाना प्रकार के नियमों एवं व्रतों का पालन करते हैं ॥ ७ ॥ जो अपने सम्पूर्ण कर्मफल मुझे अर्पण कर सदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे निष्काम ब्राह्मण ग्रास-ग्रासपर तृप्त होते हुए घी से तर तरह-तरह के पकवानों का जब भोजन करते हैं, तब उनके मुखसे मैं जैसा तृप्त होता हूँ वैसा यज्ञमें अग्निरूप मुख से यजमान की दी हुई आहुतियोंको ग्रहण करके नहीं होता ॥ ८ ॥ 

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शनिवार, 8 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

ब्रह्मोवाच –

इति तद्‌गृणतां तेषां मुनीनां योगधर्मिणाम् ।
प्रतिनन्द्य जगादेदं विकुण्ठनिलयो विभुः ॥ १ ॥

श्रीभगवानुवाच -

एतौ तौ पार्षदौ मह्यं जयो विजय एव च ।
कदर्थीकृत्य मां यद्वो बह्वक्रातामतिक्रमम् ॥ २ ॥
यस्त्वेतयोर्धृतो दण्डो भवद्‌भिर्मामनुव्रतैः ।
स एवानुमतोऽस्माभिः मुनयो देवहेलनात् ॥ ३ ॥
तद्वः प्रसादयाम्यद्य ब्रह्म दैवं परं हि मे ।
तद्धीत्यात्मकृतं मन्ये यत्स्वपुम्भिरसत्कृताः ॥ ४ ॥
यन्नामानि च गृह्णाति लोको भृत्ये कृतागसि ।
सोऽसाधुवादस्तत् कीर्तिं हन्ति त्वचमिवामयः ॥ ५ ॥

श्रीब्रह्माजीने कहा—देवगण ! जब योगनिष्ठ सनकादि मुनियोंने इस प्रकार स्तुति की, तब वैकुण्ठ-निवास श्रीहरिने उनकी प्रशंसा करते हुए यह कहा ॥ १ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा—मुनिगण ! ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं। इन्होंने मेरी कुछ भी परवा न करके आपका बहुत बड़ा अपराध किया है ॥ २ ॥ आपलोग भी मेरे अनुगत भक्त हैं; अत: इस प्रकार मेरी ही अवज्ञा करने के कारण आपने इन्हें जो दण्ड दिया है, वह मुझे भी अभिमत है ॥ ३ ॥ ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं; मेरे अनुचरोंके द्वारा आपलोगोंका जो तिरस्कार हुआ है, उसे मैं अपना ही किया हुआ मानता हूँ। इसलिये मैं आपलोगों से प्रसन्नताकी भिक्षा माँगता हूँ ॥ ४ ॥ सेवकों के अपराध करने पर संसार उनके स्वामी का ही नाम लेता है। वह अपयश उसकी कीर्ति को इस प्रकार दूषित कर देता है, जैसे त्वचाको चर्मरोग ॥ ५ ॥ 

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शुक्रवार, 7 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)

जय-विजय को सनकादि का शाप

कामं भवः स्ववृजिनैर्निरयेषु नः स्तात् ।
    चेतोऽलिवद्यदि नु ते पदयो रमेत ।
वाचश्च नस्तुलसिवद्यदि तेऽङ्‌घ्रिशोभाः ।
    पूर्येत ते गुणगणैर्यदि कर्णरन्ध्रः ॥ ४९ ॥
प्रादुश्चकर्थ यदिदं पुरुहूत रूपं ।
    तेनेश निर्वृतिमवापुरलं दृशो नः ।
तस्मा इदं भगवते नम इद्विधेम ।
    योऽनात्मनां दुरुदयो भगवान् प्रतीतः ॥ ५० ॥

भगवन् ! यदि हमारा चित्त भौंरे की तरह आपके चरण-कमलोंमें ही रमण करता रहे, हमारी वाणी तुलसी के समान आपके चरण-सम्बन्ध से ही सुशोभित हो और हमारे कान आपकी सुयश-सुधा से परिपूर्ण रहें तो अपने पापों के कारण भले ही हमारा जन्म नरकादि योनियों में हो जाय—इसकी हमें कोई चिन्ता नहीं है ॥ ४९ ॥ विपुलकीर्ति प्रभो ! आपने हमारे सामने जो यह मनोहर रूप प्रकट किया है, उससे हमारे नेत्रों को बड़ा ही सुख मिला है; विषयासक्त अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये इसका दृष्टिगोचर होना अत्यन्त कठिन है। आप साक्षात् भगवान्‌ हैं और इस प्रकार स्पष्टतया हमारे नेत्रोंके सामने प्रकट हुए हैं। हम आपको प्रणाम करते हैं ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे जयविजयोः सनकादिशापो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गुरुवार, 6 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)

जय-विजय को सनकादि का शाप

कुमारा ऊचुः –

योऽन्तर्हितो हृदि गतोऽपि दुरात्मनां त्वं ।
    सोऽद्यैव नो नयनमूलमनन्त राद्धः ।
यर्ह्येव कर्णविवरेण गुहां गतो नः ।
    पित्रानुवर्णितरहा भवदुद्भ।वेन ॥ ४६ ॥
तं त्वां विदाम भगवन्परमात्मतत्त्वं ।
    सत्त्वेन सम्प्रति रतिं रचयन्तमेषाम् ।
यत्तेऽनुतापविदितैर्दृढभक्तियोगैः ।
    उद्ग्रिन्थयो हृदि विदुर्मुनयो विरागाः ॥ ४७ ॥
नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादं ।
    किम्वन्यदर्पितभयं भ्रुव उन्नयैस्ते ।
येऽङ्ग त्वदङ्‌घ्रिशरणा भवतः कथायाः ।
    कीर्तन्यतीर्थयशसः कुशला रसज्ञाः ॥ ४८ ॥

सनकादि मुनियोंने कहा—अनन्त ! यद्यपि आप अन्तर्यामीरूप से दुष्टचित्त पुरुषों के हृदय में भी स्थित रहते हैं, तथापि उनकी दृष्टि से ओझल ही रहते हैं। किन्तु आज हमारे नेत्रोंके  सामने तो आप साक्षात् विराजमान हैं। प्रभो ! जिस समय आपसे उत्पन्न हुए हमारे पिता ब्रह्माजी ने आपका रहस्य वर्णन किया था, उसी समय श्रवणरन्ध्रों द्वारा हमारी बुद्धि में तो आप आ विराजे थे; किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन का महान् सौभाग्य तो हमें आज ही प्राप्त हुआ है ॥ ४६ ॥ भगवन् ! हम आपको साक्षात् परमात्मतत्त्व ही जानते हैं। इस समय आप अपने विशुद्ध सत्त्वमय विग्रह से अपने इन भक्तों को आनन्दित कर रहे हैं। आपकी इस सगुण-साकार मूर्ति को राग और अहंकार से मुक्त मुनिजन आपकी कृपादृष्टिसे  प्राप्त हुए सुदृढ़ भक्तियोग के द्वारा अपने हृदय में उपलब्ध करते हैं ॥ ४७ ॥ प्रभो ! आपका सुयश अत्यन्त कीर्तनीय और सांसारिक दु:खों की निवृत्ति करनेवाला है। आपके चरणों की शरण में रहनेवाले जो महाभाग आपकी कथाओं के रसिक हैं, वे आपके आत्यन्तिक प्रसाद मोक्षपद को भी कुछ अधिक नहीं गिनते; फिर जिन्हें आपकी जरा-सी टेढ़ी भौंह ही भयभीत कर देती है, उन इन्द्रपद आदि अन्य भोगोंके विषय में तो कहना ही क्या है ॥ ४८ ॥ 

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बुधवार, 5 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

जय-विजय को सनकादि का शाप

ते वा अमुष्य वदनासितपद्मकोशम् ।
    उद्वीक्ष्य सुन्दरतराधरकुन्दहासम् ।
लब्धाशिषः पुनरवेक्ष्य तदीयमङ्‌घ्रि ।
    द्वन्द्वं नखारुणमणिश्रयणं निदध्युः ॥ ४४ ॥
पुंसां गतिं मृगयतामिह योगमार्गैः ।
    ध्यानास्पदं बहुमतं नयनाभिरामम् ।
पौंस्नं वपुर्दर्शयानमनन्यसिद्धैः ।
    औत्पत्तिकैः समगृणन्युतमष्टभोगैः ॥ ४५ ॥

भगवान्‌ का मुख नीलकमल के समान था, अति सुन्दर अधर और कुन्दकली के समान मनोहर हाससे उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। उसकी झाँकी करके वे कृतकृत्य हो गये। और फिर पद्मरागके समान लाल-लाल नखों से सुशोभित उनके चरणकमल देखकर वे उन्हीं का ध्यान करने लगे ॥ ४४ ॥ इसके पश्चात् वे मुनिगण अन्य साधनों से सिद्ध न होनेवाली, स्वाभाविक अष्टसिद्धियों से सम्पन्न श्रीहरि की स्तुति करने लगे—जो योगमार्गद्वारा मोक्षपद की खोज करनेवाले पुरुषों के लिये उनके ध्यान का विषय, अत्यन्त आदरणीय और नयनानन्द की वृद्धि करनेवाला पुरुषरूप प्रकट करते हैं ॥ ४५ ॥

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मंगलवार, 4 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

जय-विजय को सनकादि का शाप

अत्रोपसृष्टमिति चोत्स्मितमिन्दिरायाः ।
    स्वानां धिया विरचितं बहुसौष्ठवाढ्यम् ।
मह्यं भवस्य भवतां च भजन्तमङ्गं ।
    नेमुर्निरीक्ष्य न वितृप्तदृशो मुदा कैः ॥ ४२ ॥
तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द ।
    किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः ।
अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां ।
    सङ्क्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः ॥ ४३ ॥

भगवान्‌का श्रीविग्रह बड़ा ही सौन्दर्यशाली था। उसे देखकर भक्तोंके मनमें ऐसा वितर्क होता था कि इसके सामने लक्ष्मीजी का सौन्दर्याभिमान भी गलित हो गया है। ब्रह्माजी कहते हैं—देवताओ ! इस प्रकार मेरे, महादेवजी के और तुम्हारे लिये परम सुन्दर विग्रह धारण करने वाले श्रीहरि को देखकर सनकादि मुनीश्वरों ने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। उस समय उनकी अद्भुत छवि को निहारते-निहारते उनके नेत्र तृप्त नहीं होते थे ॥ ४२ ॥
सनकादि मुनीश्वर निरन्तर ब्रह्मानन्द में निमग्न रहा करते थे। किन्तु जिस समय भगवान्‌ कमलनयन के चरणारविन्दमकरन्द से मिली हुई तुलसीमञ्जरी के गन्ध से सुवासित वायु ने नासिका- रन्ध्रोंके द्वारा उनके अन्त:करणमें प्रवेश किया, उस समय वे अपने शरीरको सँभाल न सके और उस दिव्य गन्ध ने उनके मनमें भी खलबली पैदा कर दी ॥ ४३ ॥ 

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सोमवार, 3 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

जय-विजय को सनकादि का शाप

कृत्स्नप्रसादसुमुखं स्पृहणीयधाम ।
    स्नेहावलोककलया हृदि संस्पृशन्तम् ।
श्यामे पृथावुरसि शोभितया श्रिया स्वः ।
    चूडामणिं सुभगयन्तमिवात्मधिष्ण्यम् ॥ ३९ ॥
पीतांशुके पृथुनितम्बिनि विस्फुरन्त्या ।
    काञ्च्यालिभिर्विरुतया वनमालया च ।
वल्गुप्रकोष्ठवलयं विनतासुतांसे ।
    विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जम् ॥ ४० ॥
विद्युत्क्षिपन् मकरकुण्डलमण्डनार्ह ।
    गण्डस्थलोन्नसमुखं मणिमत्किरीटम् ।
दोर्दण्डषण्डविवरे हरता परार्ध्य ।
    हारेण कन्धरगतेन च कौस्तुभेन ॥ ४१ ॥

प्रभु समस्त सद्गुणोंके आश्रय हैं, उनकी सौम्य मुखमुद्रा को देखकर जान पड़ता था मानो वे सभी पर अनवरत कृपासुधा की वर्षा कर रहे हैं। अपनी स्नेहमयी चितवन से वे भक्तों का हृदय स्पर्श कर रहे थे तथा उनके सुविशाल श्याम वक्ष:स्थलपर स्वर्णरेखा के रूप में जो साक्षात् लक्ष्मी विराजमान थीं, उनसे मानो वे समस्त दिव्यलोकों के चूडामणि वैकुण्ठधाम को सुशोभित कर रहे थे ॥ ३९ ॥ उनके पीताम्बरमण्डित विशाल नितम्बों पर झिलमिलाती हुई करधनी और गले में भ्रमरों से मुखरित वनमाला विराज रही थी; तथा वे कलाइयों में सुन्दर कंगन पहने अपना एक हाथ गरुडज़ी के कंधेपर रख दूसरे से कमलका पुष्प घुमा रहे थे ॥ ४० ॥ उनके अमोल कपोल बिजली की प्रभा को भी लजानेवाले मकराकृति कुण्डलों की शोभा बढ़ा रहे थे, उभरी हुई सुघड़ नासिका थी, बड़ा ही सुन्दर मुख था, सिरपर मणिमय मुकुट विराजमान था तथा चारों भुजाओं के बीच महामूल्यवान् मनोहर हार की और गले में कौस्तुभमणि की अपूर्व शोभा थी ॥ ४१ ॥ 

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रविवार, 2 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

जय-विजय को सनकादि का शाप

एवं तदैव भगवान् अरविन्दनाभः ।
    स्वानां विबुध्य सदतिक्रममार्यहृद्यः ।
तस्मिन् यन्ययौ परमहंसमहामुनीनाम् ।
    अन्वेषणीयचरणौ चलयन् सहश्रीः ॥ ३७ ॥
तं त्वागतं प्रतिहृतौपयिकं स्वपुम्भिः ।
    तेऽचक्षताक्षविषयं स्वसमाधिभाग्यम् ।
हंसश्रियोर्व्यजनयोः शिववायुलोलः ।
    शुभ्रातपत्रशशिकेसरशीकराम्बुम् ॥ ३८ ॥

इधर जब साधुजनों के हृदयधन भगवान्‌ कमलनाभ को मालूम हुआ कि मेरे द्वारपालों ने सनकादि साधुओं का अनादर किया है, तब वे लक्ष्मीजी के सहित अपने उन्हीं श्रीचरणोंसे  चलकर ही, वहाँ पहुँचे, जिन्हें परमहंस मुनिजन भी ढूँढ़ते रहते हैं—सहज में पाते नहीं, ॥ ३७ ॥ सनकादि ने देखा कि उनकी समाधि के विषय श्रीवैकुण्ठनाथ स्वयं उनके नेत्रगोचर होकर पधारे हैं, उनके साथ-साथ पार्षदगण छत्र-चामरादि लिये चल रहे हैं तथा प्रभुके दोनों ओर राजहंस के पंखों के समान दो श्वेत चँवर डुलाये जा रहे हैं। उनकी शीतल वायुसे उनके श्वेत छत्रमें लगी हुई मोतियोंकी झालर हिलती हुई ऐसी शोभा दे रही है मानो चन्द्रमाकी किरणोंसे अमृतकी बूँदें झर रही हों ॥ ३८ ॥ 

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शनिवार, 1 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

जय-विजय को सनकादि का शाप

तेषामितीरितमुभाववधार्य घोरं ।
    तं ब्रह्मदण्डमनिवारणमस्त्रपूगैः ।
सद्यो हरेरनुचरावुरु बिभ्यतस्तत् ।
    पादग्रहावपततामतिकातरेण ॥ ३५ ॥
भूयादघोनि भगवद्‌भिरकारि दण्डो ।
    यो नौ हरेत सुरहेलनमप्यशेषम् ।
मा वोऽनुतापकलया भगवत्स्मृतिघ्नो ।
    मोहो भवेदिह तु नौ व्रजतोरधोऽधः ॥ ३६ ॥

सनकादि के ये कठोर वचन सुनकर और ब्राह्मणों के शाप को किसी भी प्रकार के शस्त्रसमूह से निवारण होने योग्य न जान कर श्रीहरि के वे दोनों पार्षद अत्यन्त दीनभाव से उनके चरण पकडक़र पृथ्वी पर लोट गये। वे जानते थे कि उनके स्वामी श्रीहरि भी ब्राह्मणों से बहुत डरते हैं ॥ ३५ ॥ फिर उन्होंने अत्यन्त आतुर होकर कहा—‘भगवन् ! हम अवश्य अपराधी हैं; अत: आपने हमें जो दण्ड दिया है, वह उचित ही है और वह हमें मिलना ही चाहिये। हमने भगवान्‌ का अभिप्राय न समझकर उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन किया है। इससे हमें जो पाप लगा है, वह आपके दिये हुए दण्डसे सर्वथा धुल जायगा। किन्तु हमारी इस दुर्दशा का विचार करके यदि करुणावश आपको थोड़ा-सा भी अनुताप हो, तो ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे उन अधमाधम योनियों में जानेपर भी हमें भगवत्स्मृति को नष्ट करनेवाला मोह न प्राप्त हो ॥ ३६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१) ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन शौन...