रविवार, 31 मार्च 2019

श्रीदुर्गासप्तशती श्रीदुर्गामानस पूजा (पोस्ट ०३)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
श्रीदुर्गामानस पूजा (पोस्ट ०३)

पश्चाद्देवि गृहाण शम्भुगृहिणि श्रीसुन्दरि प्रायशो
गन्धद्रव्यसमूहनिर्भरतरं धात्रीफलं निर्मलम् ।
तत्केशान् परिशोध्य कङ्कतिकया मन्दाकिनीस्रोतसि
स्नात्वा प्रोज्ज्वलगन्धकं भवतु हे श्रीसुन्दरि त्वन्मुदे ॥ ३॥

देवि! इसके पश्चात्  यह विशुद्ध आँवले का फल ग्रहण करो। शिवप्रिये! त्रिपुरसुन्दरि! इस आँवलेमें प्रायः जितने भी सुगन्धित पदार्थ हैं, वे सभी डाले। गये हैं। इससे यह परम सुगन्धित हो गया है। अतः इसको लगाकर बालों को कंघी से झाड़ लो और गङ्गा जी की पवित्र धारा में नहाओ । तदनन्तर यह दिव्य गन्ध सेवा में प्रस्तुत है, यह तुम्हारे आनन्द की वृद्धि करनेवाला हो ॥ ३॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से






श्रीदुर्गासप्तशती श्रीदुर्गामानस पूजा (पोस्ट ०२)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
श्रीदुर्गामानस पूजा (पोस्ट ०२)

देवेन्द्रादिभिरर्चितं सुरगणैरादाय सिंहासनं
चञ्चत्काञ्चनसञ्चयाभिरचितं चारुप्रभाभास्वरम् ।
एतच्चम्पककेतकीपरिमलं तैलं महानिर्मलं
गन्धोद्वर्तनमादरेण तरुणीदत्तं गृहाणाम्बिके ॥ २॥

माँ! देवताओं ने तुम्हारे बैठने के लिये यह दिव्य सिंहासन लाकर रख दिया है, इसपर विराजो। यह वह सिंहासन है, जिसकी देवराज इन्द्र आदि भी पूजा करते हैं। अपनी कान्ति से दमकते हुए राशि-राशि सुवर्णसे इसका निर्माण किया गया है। यह अपनी मनोहर प्रभा से सदा प्रकाशमान रहता है। इसके सिवा, यह चम्पा हैं और केतकीकी सुगन्धसे पूर्ण अत्यन्त निर्मल तेल और सुगन्धयुक्त  उबटन है, जिसे दिव्य युवतियाँ आदरपूर्वक तुम्हारी सेवामें प्रस्तुत  कर रही हैं, कृपया इसे स्वीकार करो॥ २॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से





||जय श्री हरि:||







जो क्रोध में आकर अथवा किसी बात से दु:खी होकर आत्महत्या कर लेता है, वह दुर्गति में चला जाता है अर्थात् भूत-प्रेत-पिशाच बन जाता है | आत्महत्या करने वाला महापापी होता है | कारण कि यह मनुष्य- शरीर भगवत्प्राप्ति के लिए ही मिला है; अत: भगवत्प्राप्ति न करके अपने ही हाथ से मनुष्य-शरीर को खो देना बड़ा भारी पाप है, अपराध है दुराचार है | दुराचारी की सद्गति कैसे होगी ?
अत:मनुष्य को कभी भी आत्महत्या करने का विचार मन में नहीं आने देना चाहिए |

--गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित दुर्गति से बचो नामक पुस्तक से



पुत्रगीता (पोस्ट 01)


||श्रीहरि||



पुत्रगीता (पोस्ट 01)

महाभारत के शान्तिपर्व में भीष्म-युधिष्ठिर-संवाद के अन्तर्गत पुत्रगीता के रूप में एक प्राचीन आख्यान आता है, जिसमें सदा वेद-शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहनेवाले एक ब्राह्मण को उनके मेधावी नामक तत्त्वदर्शी पुत्रद्वारा ही बहुत मार्मिक उपदेश दिये गये हैं। प्रत्येक मनुष्यका जीवन क्षणभंगुर है, मृत्यु कभी भी बिना पूर्वसूचना के आ सकती है, अतः प्रत्येक अवस्था में संसार की आसक्ति से बचकर धर्माचरण तथा सत्यव्रत का पालन करते रहना चाहिये, यही परमसाधन इस पुत्रगीता में बताया गया है। अत्यन्त प्रभावी ढंगसे चेतावनी देनेवाली यह पुत्रगीता यहाँ सानुवाद प्रस्तुत की जा रही है-

युधिष्ठिर उवाच
अतिक्रामति कालेऽस्मिन् सर्वभूतक्षयावहे।
किं श्रेयः प्रतिपद्येत तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥

भीष्म उवाच
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहास पुरातनम्।।
पितुः पुत्रेण संवादं तं निबोध युधिष्ठिर॥२॥
द्विजातेः कस्यचित् पार्थ स्वाध्यायनिरतस्य वै।
बभूव पुत्रो मेधावी मेधावी नाम नामतः ॥ ३॥
सोऽब्रवीत् पितरं पुत्रः स्वाध्यायकरणे रतम्।
मोक्षधर्मार्थकुशलो लोकतत्त्वविचक्षणः ॥४॥

पुत्र उवाच
धीरः किंस्वित् तात कुर्यात् प्रजानन्
क्षिप्रं ह्यायुभ्रंश्यते मानवानाम्।
पितस्तदाचक्ष्व यथार्थयोगं
ममानुपूर्त्या येन धर्मं चरेयम्॥५॥ 

राजा युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! समस्त भूतों का संहार करने वाला यह काल बराबर बीता जा रहा है, ऐसी अवस्था में मनुष्य क्या करने से कल्याण का भागी हो सकता है? यह मुझे बताइये ॥ १॥
भीष्मजीने कहा-युधिष्ठिर! इस विषय में ज्ञानी पुरुष पिता और पुत्र के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। तुम उस संवाद को ध्यान देकर सुनो ॥ २॥
कुन्तीकुमार! प्राचीन काल में एक ब्राह्मण थे, जो सदा वेदशास्त्रों के स्वाध्याय में तत्पर रहते थे। उनके एक पुत्र हुआ, जो गुण से तो मेधावी था ही, नाम से भी मेधावी था॥ ३॥
वह मोक्ष, धर्म और अर्थ में कुशल तथा लोकतत्त्वका अच्छा ज्ञाता था। एक दिन उस पुत्र ने अपने स्वाध्यायपरायण पितासे कहा-॥४॥
पुत्र बोला-
पिताजी ! मनुष्यों की आयु तीव्र गतिसे बीती जा रही है। यह जानते हुए धीर पुरुष को क्या करना चाहिये ? तात ! आप मुझे उस यथार्थ उपाय का उपदेश कीजिये, जिसके अनुसार हम धर्मका आचरण कर सकें॥५॥

----गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-संग्रह’ पुस्तक (कोड 1958) से




शनिवार, 30 मार्च 2019

श्रीदुर्गासप्तशती श्रीदुर्गामानस पूजा (पोस्ट ०१)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
श्रीदुर्गामानस पूजा (पोस्ट ०१)

उद्यच्चन्दनकुङ्कुमारुणपयोधाराभिराप्लावितां
नानानर्घ्यमणिप्रवालघटितां दत्तां गृहाणाम्बिके ।
आमृष्टां सुरसुन्दरीभिरभितो हस्ताम्बुजैर्भक्तितो
मातः सुन्दरि भक्तकल्पलतिके श्रीपादुकामादरात् ॥ १॥

माता त्रिपुरसुन्दरि! तुम भक्तजनों की मनोवाञ्छा पूर्ण करनेवाली कल्पलता हो । माँ ! यह पादुका आदरपूर्वक तुम्हारे श्रीचरणों में समर्पित है, इसे ग्रहण करो। यह उत्तम चन्दन और कुङ्कम से मिली हुई लाल जलकी धारा से धोयी गयी है। भाँति-भाँतिकी  बहुमूल्य मणियों तथा मूँगों से इसका निर्माण हुआ है और बहुत-सी देवाङ्गनाओं ने अपने कर-कमलों द्वारा भक्तिपूर्वक इसे सब ओर से धो-पोछकर स्वच्छ बना दिया॥१॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से






श्रीदुर्गासप्तशती -क्षमा-प्रार्थना (पोस्ट 02)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
क्षमा-प्रार्थना (पोस्ट 02)

सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके ।
इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ।।5||
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरी ।।6||
कामेश्वरी जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे ।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ।।7||
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरी ||8||

जगदम्बिके! मैं अपराधी हूँ, किंतु तुम्हारी शरणमें आया हूँ । इस समय दयाका पात्र हूँ। तुम जैसा चाहो, करो॥५॥ देवि! परमेश्वरि! अज्ञानसे, भूलसे अथवा बुद्धि भ्रान्त होने के कारण मैंने जो न्यूनता या अधिकता कर दी हो, वह सब क्षमा करो और प्रसन्न होओ॥६॥
सच्चिदानन्दस्वरूपा परमेश्वरि! जगन्माता कामेश्वरि! तुम प्रेमपूर्वक मेरी यह पूजा स्वीकार करो और मुझपर प्रसन्न रहो॥७॥ देवि! सुरेश्वरि! तुम गोपनीय से भी गोपनीय वस्तुकी रक्षा करने वाली हो ।  मेरे निवेदन किये हुए इस जप को ग्रहण करो । तुम्हारी कृपा से मुझे सिद्धि प्राप्त हो॥८॥

श्री दुर्गार्पणमस्तु |
.....गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक श्रीदुर्गासप्तशती (पुस्तक कोड १२८१) से



शुक्रवार, 29 मार्च 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -क्षमा-प्रार्थना (पोस्ट 01)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
क्षमा-प्रार्थना (पोस्ट 01)

अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरी ।।1||
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् ।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरी ।।2||
मंत्रहींनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरी ।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे ।।3||
अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् ।
यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रम्हादयः सुराः ।।4||

परमेश्वरि! मेरे द्वारा रात-दिन सहस्रों अपराध होते रहते हैं। यह मेरा दास है'–यों समझकर मेरे उन अपराधोंको तुम कृपापूर्वक क्षमा करो ॥१॥ परमेश्वरि! मैं आवाहन नहीं जानता (जानती ) विसर्जन करना नहीं जानता (जानती ) तथा पूजा करनेका ढंग भी नहीं जानता (जानती )। क्षमा करो॥२॥ देवि! सुरेश्वरि! मैंने जो मन्त्रहीन, क्रियाहीन और भक्तिहीन पूजन किया है, वह सब आपकी कृपासे पूर्ण हो॥ ३॥ सैकड़ों अपराध करके भी जो तुम्हारी शरणमें जा जगदम्ब' कहकर पुकारता है, उसे वह गति प्राप्त होती है, जो ब्रह्मादि देवताओंके लिये भी सुलभ नहीं है॥४॥

शेष आगामी पोस्ट में ----
.....गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक श्रीदुर्गासप्तशती (पुस्तक कोड १२८१) से





||श्रीहरि:||




नाम-सङ्कीर्तन आदि में वर्ण-आश्रम का भी नियम नहीं है

ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: स्त्रिय: शूद्रान्त्यजातय:।
यत्र तत्रानुकुर्वन्ति विष्णोर्नामानुकीर्तनम्। सर्वपापविनिर्मुक्तास्तेऽपि यान्ति सनातनम् ।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र, अन्त्यज आदि जहाँ-तहाँ विष्णुभगवान्‌ के नाम का अनुकीर्तन करते रहते हैं, वे भी समस्त पापोंसे मुक्त होकर सनातन परमात्माको प्राप्त होते हैं।

......... श्रीमद्भागवतमहापुराण ६/०२




श्रीदुर्गासप्तशती -मूर्तिरहस्यम् (पोस्ट ०५)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ मूर्तिरहस्यम्
(पोस्ट ०५)

जगन्मातुश्चण्डिकाया: कीर्तिता: कामधेनव:।
इदं रहस्यं परमं न वाच्यं कस्यचित्त्‍‌वया॥22
व्याख्यानं दिव्यमूर्तीनामभीष्टफलदायकम्।
तस्मात् सर्वप्रयत्‍‌नेन देवीं जप निरन्तरम्॥23 
सप्तजन्मार्जितैर्घोरै‌र्ब्रह्महत्यासमैरपि।
पाठमात्रेण मन्त्राणां मुच्यते सर्वकिल्बिषै:॥24
देव्या ध्यानं मया ख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं महत्।
तस्मात् सर्वप्रयत्‍‌नेन सर्वकामफलप्रदम्॥25
(एतस्यास्त्वं प्रसादेन सर्वमान्यो भविष्यसि।
सर्वरूपमयी देवी सर्व देवीमयं जगत्।
अतोऽहं विश्वरूपां तां नमामि परमेश्वरीम्।) 

जो कीर्तन करने पर कामधेनु के समान सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करती हैं। यह परम गोपनीय रहस्य है। इसे तुम्हें दूसरे किसी को नहीं बतलाना चाहिए॥22 दिव्य मूर्तियों का यह आख्यान मनोवाञ्छित फल देने वाला है, इसलिये पूर्ण प्रयत्‍‌न करके तुम निरन्तर देवी के जप (आराधन) में लगे रहो॥23 सप्तशती के मन्त्रों के पाठमात्र से मनुष्य सात जन्मों में उपार्जित ब्रह्महत्यासदृश घोर पातकों एवं समस्त कल्मषों से मुक्त हो जाता है॥ 24॥इसलिये मैंने पूर्ण प्रयत्‍‌न करके देवी के गोपनीय से भी अत्यन्त गोपनीय ध्यान का वर्णन किया है, जो सब प्रकार के मनोवाञ्छित फलों को देने वाला है॥25 
(उनके प्रसाद से तुम सर्वमान्य हो जाओगे। देवी सर्वरूपमयी हैं तथा सम्पूर्ण जगत् देवीमय है। अत: मैं उन विश्वरूपा परमेश्वरी को नमस्कार करता हूँ।)

इति मूर्तिरहस्य सम्पूर्णम्*
.......................................
* तदनन्तर प्रारम्भ में बतलायी हुई रीति से शापोद्धार करनेके पश्चात् देवी से अपने अपराधों के लिये क्षमा-प्रार्थना करे।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से




गुरुवार, 28 मार्च 2019

जय श्री हरिः

|| जय श्री हरिः ||

“ नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च | 
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ||” 

.................... ( पद्मपुराण उ. १४/२३)

( भगवान् कहते हैं कि हे नारद ! मैं न तो बैकुंठ में ही रहता हूँ और न योगियों के हृदय में ही रहता हूँ । मैं तो वहीं रहता हूँ, जहाँ प्रेमाकुल होकर मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन किया करते हैं । मैं सर्वदा लोगों के अन्तःकरण में विद्यमान रहता हूं ) |

श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना ही स्वीकार होती है । अतः भावना जितनी सच्ची, गहरी और पूर्ण होगी, उतना ही उसका सत्परिणाम होगा |


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०४) विराट् शरीर की उत्पत्ति निर्भिन्नान्यस्य चर...