शुक्रवार, 31 मार्च 2023

आत्महत्या पाप है !


जो क्रोध में आकर अथवा किसी बात से दु:खी होकर आत्महत्या कर लेता है, वह दुर्गति में चला जाता है अर्थात् भूत-प्रेत-पिशाच बन जाता है | आत्महत्या करने वाला महापापी होता है | कारण कि यह मनुष्य- शरीर भगवत्प्राप्ति के लिए ही मिला है; अत: भगवत्प्राप्ति न करके अपने ही हाथ से मनुष्य-शरीर को खो देना बड़ा भारी पाप है, अपराध है दुराचार है | दुराचारी की सद्गति कैसे होगी ? 

अत:मनुष्य को कभी भी आत्महत्या करने का विचार मन में नहीं आने देना चाहिए |

--गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित दुर्गति से बचो नामक पुस्तक से


गुरुवार, 30 मार्च 2023

श्रीराम नवमी के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं !!



जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल ।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल ॥

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥ 
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी ।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ॥ 
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै ।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै ॥ 
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा ।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥ 
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा ।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥

योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए--- जड़ और चेतन सब हर्ष से भर गए । क्योंकि श्रीराम का जन्म सुख का मूल है ॥ 
दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए । मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई । नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने खास आयुध धारण किए हुए थे, दिव्य आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे । इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए ॥ दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी- हे अनंत ! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ । वेद और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं । श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं ॥ वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह भरे हैं । वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हँसी की बात के सुनने पर धीर पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती । जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराए । वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः उन्होंने पूर्व जन्म की सुंदर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का वात्सल्य- प्रेम प्राप्त हो (भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाए) ॥ माता की वह बुद्धि बदल गई, तब वह फिर बोली- हे तात ! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो, मेरे लिए यह सुख परम अनुपम होगा । माता का यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक रूप होकर रोना शुरू कर दिया । 
तुलसीदासजी कहते हैं- जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्री हरि का पद पाते हैं और फिर संसार रूपी कूप में नहीं गिरते ॥ 

(गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81,  गीताप्रेस गोरखपुर


बुधवार, 29 मार्च 2023

गीता में ज्योतिष



महाप्रलयपर्यन्तं कालचक्रं प्रकीर्तितम् ।
कालचक्रविमोक्षार्थं श्रीकृष्णं  शरणं व्रज ॥

ज्योतिष में काल मुख्य है अर्थात् काल को लेकर ही ज्योतिष चलता है । उसी कालकों भगवान्‌ने अपना स्वरूप बताया है कि ‘गणना करनेवालों में मैं काल हूँ’‒‘कालः कलयतामहम्’ (१० । ३०) । उस कालकी गणना सूर्य से होती है । इसी सूर्य को भगवान्‌ ने ‘ज्योतिषां रविरंशुमान्’ (१० । २१) कहकर अपना स्वरूप बताया है ।

सत्ताईस नक्षत्र होते है । नक्षत्रों का वर्णन भगवान्‌ ने ‘नक्षत्राणामहं शशी’ (१० । २१) पदों से किया है । इनमेंसे सवा दो नक्षत्रों की एक राशि होती है । इस तरह सत्ताईस नक्षत्रों की बारह राशियों होती है । उन बारह राशियोंपर सूर्य भ्रमण करता है अर्थात् एक राशिपर सूर्य एक महीना रहता है । महीनों का वर्णन भगवान्‌ ने ‘मासानां मार्गशीर्षोऽहम्’ (१० । ३५) पदोंसे किया है । दो महीनोंकी एक ऋतु होती है, जिसका वर्णन ‘ऋतूनां कुसुमाकरः’ पदों से किया गया है । तीन ऋतुओं का एक अयन होता है । अयन दो होते हैं‒उत्तरायण और दक्षिणायन; जिनका वर्णन आठवें अध्यायके चौबीसवें-पचीसवें श्लोकों में हुआ है । इन दोनों अयनों को मिलाकर एक वर्ष होता है । लाखों वर्षोंका एक युग होता है [*] जिसका वर्णन भगवान्‌ ने ‘सम्भवामि युगे युगे’ (४ ।८) पदों से किया है । ऐसे चार (सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि) युगोंकी एक चतुर्युगी होती है । ऐसी एक हजार चतुर्युगी का ब्रह्मा का एक दिन (सर्ग) और एक हजार चतुर्युगी की ही ब्रह्माकी एक रात (प्रलय) होती है, जिसका वर्णन आठवें अध्याय के सत्रहवें श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक किया गया है । इस तरह ब्रह्माकी सौ वर्षकी आयु होती है । ब्रह्मा की आयु पूरी होने पर महाप्रलय होता है, जिसमें सब कुछ परमात्मा में लीन हो जाता है । इसका वर्णन भगवान्‌ ने ‘कल्पक्षये’ (९ । ७) पद से किया है । इस महाप्रलयमें केवल ‘अक्षयकाल’-रूप एक परमात्मा ही रह जाते है, जिसका वर्णन भगवान्‌ ने ‘अहमेवाक्षयः कालः’ (१० । ३३) पदोंसे किया है ।

तात्पर्य यह हुआ कि महाप्रलय तक ही ज्योतिष चलता है अर्थात् प्रकृतिके राज्य में ही ज्योतिष चलता है, प्रकृति से अतीत परमात्मा में ज्योतिष नहीं चलता । अतः मनुष्य को चाहिये कि वह इस प्राकृत कालचक्र से छूटनेके लिये, इससे अतीत होनेके लिये अक्षयकाल-रूप परमात्मा की शरण ले ।
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[*] सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्षों का ‘सत्ययुग’, बारह लाख छियानबे हजार वर्षों का ‘त्रेतायुग’, आठ लाख चौसठ हजार वर्षोंका ‘द्वापरयुग’ और चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का ‘कलियुग’ होता है ।

‒---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’ पुस्तक से


मंगलवार, 28 मार्च 2023

।। ॐ नमश्चण्डिकायै ।।



माँ ! इस पृथ्वीपर तुम्हारे सीधे-सादे पुत्र तो बहुत-से हैं, किंतु  उन सब में मैं ही अत्यन्त चपल तुम्हारा बालक हूँ; मेरे-जैसा चञ्चल  कोई विरला ही होगा ।शिवे ! मेरा जो यह त्याग हुआ है, यह तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है, क्योंकि संसार में कुपुत्र का होना सम्भव है, किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः 
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः |
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे 
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ||


श्री रामचन्द्र चरणौ शिरसा नमामि

“कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।“

(यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है। [क्योंकि] इस युग में श्रीराम जी के निर्मल गुणोंसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार [रूपी समुद्र] से तर जाता है)


सोमवार, 27 मार्च 2023

पारब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी (पोस्ट 02)


श्रीराम, माँ कौसल्या से कहते हैं कि अब इस निर्गुण भक्ति का साधन बतलाता हूँ--- 

अपने धर्म का अत्यंत निष्काम भाव से आचरण करने से, अत्युत्तम हिंसाहीन कर्मयोग से  मेरे दर्शन, स्तुति, महापूजा, स्मरण और वंदन से, प्राणियों में मेरी भावना करने से, असत्य के त्याग और सत्संग से, महापुरुषों का अत्यन्त मान करने से, दु:खियों पर दया करने से, अपने समान पुरुषों से मैत्री करने से, वेदान्तवाक्यों का श्रवण करने से, मेरा नाम-संकीर्तन करने से, सत्संग और कोमलता से, अहंकार का त्याग करने से और मेरे भागवत-धर्मों की इच्छा करने से जिसका चित्त शुद्ध होगया है, वह पुरुष मेरे गुणों का श्रवण करने से ही अति सुगमता से मुझे प्राप्त करलेता है |  जिस प्रकार वायु के द्वारा गन्ध अपने आश्रय को छोड़कर घ्राणेन्द्रिय में प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार योगाभ्यास में लगा हुआ चित्त आत्मा में लीन हो जाता है | 

समस्त प्राणियों में आत्मरूप से मैं ही स्थित हूँ, हे मात: ! उसे  न जानकर मूढ़ पुरुष केवल बाह्य भावना करता है | किन्तु क्रियासे उत्पन्न हुए  अनेक पदार्थों से भी मेरा संतोष नहीं होता | अन्य  जीवों का तिरस्कार करने वाले प्राणियों से  प्रतिमा में  पूजित होकर भी मैं वास्तव में पूजित नहीं होता | मुझ परमात्मदेव का अपने कर्मों द्वारा प्रतिमा आदि में तभी तक पूजन करना चाहिए जब तक कि समस्त प्राणियों में और अपने-आप में मुझे स्थित न जाने | जो अपने आत्मा और  परमात्मा में भेदबुद्धि करता है उस भेददर्शी को मृत्यु अवश्य भय उत्पन्न करती है,इसमें संदेह नहीं |

इसलिए अभेददर्शी भक्त समस्त परिछिन्न प्राणियों में स्थित मुझ एकमात्र परमात्मा का ज्ञान, मान और मैत्री आदि से पूजन करे | इस प्रकार मुझ शुद्ध चेतना को ही जीवरूप से स्थित जानकर बुद्धिमान पुरुष  अहर्निश सब प्राणियों को चित्त से ही प्रमाण करे | इसलिए जीव और ईश्वर का भेद कभी न देखे |  हे मात: ! मैंने तुमसे यह भक्तियोग और ज्ञानयोग का वर्णन किया | इनमें से एक का भी अवलंबन करने से पुरुष आत्यन्तिक शुभ प्राप्त कर लेता है | अत: हे मात: ! मुझे सब प्राणियों के अन्त:करण में  स्थित जानते हुए अथवा पुत्ररूप से भक्तियोग के द्वारा नित्यप्रति स्मरण करते रहने से तुम शान्ति प्राप्त करोगी | 
भगवान् राम के ये वचन सुनकर कौसल्या जी आनंद से भर गयीं | और हृदय में निरन्तर श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान करती हुई संसार-बन्धन को काटकर तीनों प्रकार की गतियों को पारकर परमगति को प्राप्त हुई |    

जय सियाराम जय सियाराम  !

-----गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “अध्यात्मरामायण” पुस्तक (कोड 74) से उत्तरकाण्ड सर्ग ७-श्लोक ६८-८३
#मोक्ष प्राप्ति के मार्ग
#श्री राम गीता



पारब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी (पोस्ट 01)


एक दिन जब श्रीरघुनाथ जी एकांत में ध्यानमग्न थे, प्रियभाषिणी श्री कौसल्याजी ने उन्हें साक्षात् नारायण जानकर अति भक्तिभाव से उनके पास आ उन्हें प्रसन्न जान अतिहर्ष से विनयपूर्वक  कहा—

“ हे राम ! तुम संसार के आदिकारण  हो तथा स्वयं आदि,अंत और मध्य से रहित  हो | तुम परमात्मा, परानन्दस्वरूप.सर्वत्र पूर्ण, जीवरूप से शरीररूप पुर में शयन करने वाले सबके स्वामी हो; मेरे प्रबल पुण्य के उदय होने से ही तुमने मेरे गर्भ से जन्म लिया है | हे रघुश्रेष्ठ ! अब अन्त समय में मुझे आज ही (कुछ पूछने का) समय मिला है , अब तक मेरा अज्ञानजन्य संसारबन्धन पूर्णतया नहीं टूटा | हे विभो ! मुझे संक्षेप में कोई ऐसा उपदेश दीजिये जिससे अब भी मुझे भवबन्धन काटने वाला ज्ञान हो जाए |”

तब मातृभक्त,दयामय, धर्मपरायण भगवान् राम ने इस प्रकार वैराग्यपूर्ण वचन कहने वाली अपनी जराजर्जरित शुभलक्षणा माता से कहा—

“मैंने  पूर्वकाल में मोक्षप्राप्ति के साधनरूप तीन मार्ग बतलाये हैं –कर्मयोग, ज्ञानयोग और  सनातन भक्तियोग | हे मात: ! (साधक के) गुणानुसार भक्ति के तीन भेद हैं | जिसका जैसा स्वभाव होता है उसकी भक्ति भी वैसे ही भेद वाली होती है | जो पुरुष हिंसा, दंभ या मात्सर्य के उद्देश्य से भक्ति करता है तथा जो भेददृष्टि वाला और क्रोधी होता है वह तामस भक्त माना गया है | जो फल की इच्छा वाला, भोग चाहने वाला तथा धन और यश की कामना वाला होता है  और भेदबुद्धि से अर्चा आदि में मेरी पूजा करता है वह रजोगुणी होता है | तथा जो पुरुष परमात्मा को अर्पण किये हुए कर्म-सम्पादन करने के लिए अथवा ‘करना चाहिए’ इस लिए भेदबुद्धि से कर्म करता है वह सात्त्विक है | जिसप्रकार गंगाजी का जल समुद्र में लीन होजाता है उसी प्रकार जब मनोवृत्ति मेरे गुणों के आश्रय से मुझ अनन्त गुणधाम में निरन्तर लगी रहे, तो वही मेरे निर्गुण भक्तियोग का लक्षण है | मेरे प्रति जो निष्काम और अखण्ड भक्ति उत्पन्न होती है वह साधक को सालोक्य, सामीप्य, सार्ष्टि और सायुज्य * -चार प्रकार की मुक्ति देती है; किन्तु उसके देने पर भी वे भक्तजन मेरी सेवा के अतिरिक्त और कुछ ग्रहण नहीं करते | हे मात: ! भक्तिमार्ग का आत्यंतिक योग यही है | इसके द्वारा भक्त तीनों गुणों को पारकर मेरा ही रूप हो जाता है |
.....................................
*वैकुंठादि भगवान् के लोकों को प्राप्त करना ‘सालोक्य’ मुक्ति है | हर समय भगवान् ही के निकट रहना ‘सामीप्य’ है, भगवान् के समान ऐश्वर्य लाभ करना ‘सार्ष्टि’ है और भगवान् में लीन हो जाना ‘सायुज्य’ है |

#जय सियाराम जय सियाराम  !

(शेष आगामी पोस्ट में) 
-----गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “अध्यात्मरामायण” पुस्तक (कोड 74) से उत्तरकाण्ड सर्ग ७-श्लोक ५३-६७
#मोक्ष प्राप्ति के मार्ग
#श्री राम गीता


रविवार, 26 मार्च 2023

अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०९)



नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः।
स्थावरं जंगमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्‌॥४८॥
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।
भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥४९॥
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः॥५०॥
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः॥५१॥
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्‌॥५२॥
यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥५३॥
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्‌।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥
देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्‌।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥
लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥५६॥

मकरी,चेचक और कोढ़ आदि उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं । कनेर,भाँग,अफीम,धतूरे आदि का स्थावर विष , साँप और बिच्छू अदि के काटने से चढ़ा हुआ जंगम विष तथा अहिफेन और तेल के सन्योग आदि से बननेवाली कृत्रिम विष – ये सभी प्रकार के विष दूर हो जाते हैं , उनका कोई असर नहीं होता ॥४८॥ इस पृथ्वी पर मारण–मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं तथा इस प्रकार के जितने मंत्र- यंत्र होते हैं , वे सब इस कवच को हृदय में धारण कर लेनेपर उस मनुष्यको देखते ही नष्ट हो जाते हैं । ये ही नहीं , पृथ्वीपर विचरनेवाले ग्रामदेवता , आकाशचारी देवविशेष , जल के सम्बन्ध से प्रकट होनेवाले गण , उपदेशमात्र से सिद्ध होनेवाले निम्नकोटि के देवता अपने जन्म के साथ प्रकट होनेवाले देवता , कुल देवता, माला ( कण्ठमाला आदि ) , डाकिनी , शाकिनी , अंतरिक्ष में विचरनेवाली अत्यंत बलवती भयानक डाकिनियाँ , ग्रह , भूत, पिशाच , यक्ष , गंधर्व , राक्षस , ब्रह्मराक्षस , बेताल , कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता भी हृदय में कवच धारण किये रहनेपर उस मनुष्य को देखते ही भाग जाते हैं। कवचधारी पुरुष को राजा से सम्मान - वृद्धि प्राप्त होती है । यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करनेवाला और उत्तम है ॥४९ - ५२॥ कवच का पाठ करनेवाला पुरुष अपनी कीर्ति से विभूषित भूतल पर अपने सुयश के साथ- साथ वृद्धि को प्राप्त होता है । जो पहले कवच का पाठ करके उसके बाद सप्तशती चण्डी का पाठ करता है , उसकी जब तक वन ,पर्वत और काननों सहित यह पृथ्वी टिकी रहती है , तब तक यहाँ पुत्र-पौत्र आदि संतान परम्परा बनी रहती है ॥५३ - ५४॥ फिर देहका अंत होनेपर वह पुरुष भगवती महामाया के प्रसाद से उस नित्य परमपद को प्राप्त होता है,जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है ॥५५॥ वह सुंदर दिव्य रूप धारण करता और कल्याणमय शिव के साथ आनन्द का भागी होता है ॥५६॥

॥ इति देव्याः कवचं संपूर्णम्‌ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
..........गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से


शनिवार, 25 मार्च 2023

अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०८)


पदमेकं न गच्छेतु यदीच्छेच्छुभमात्मनः।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४३॥
तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्‌।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्‌॥४४॥
निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्‌॥४५॥
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्‌।
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥
दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः॥४७॥

यदि अपने शरीर का भला चाहे तो मनुष्य बिना कवच के कहीं एक पग भी न जाय – कवच का पाठ करके ही यात्रा करे । कवच के द्वारा सब ओर से सुरक्षित मनुष्य जहाँ – जहाँ भी जाता है , वहाँ – वहाँ उसे धन – लाभ होता है तथा सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि करनेवाली विजय की प्राप्ति होती है। वह जिस - जिस अभीष्ट वस्तु का चिन्तन करता है , उस – उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता है । वह पुरुष इस पृथ्वीपर तुलना रहित महान् ऐश्वर्य का भागी होता है ॥४३ - ४४॥ 
कवच से सुरक्षित मनुष्य निर्भय हो जाता है । युद्ध में उसकी पराजय नहीं होती तथा वह तीनों लोकों में पूजनीय होता है ॥४५॥ देवी का यह कवच देवताओं के लिये भी दुर्लभ है । जो प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों संध्याओं के समय श्रद्धा के साथ इसका पाठ करता है , उसे दैवी कला प्राप्त होती है तथा वह तीनों लोकों में कहीं भी पराजित नहीं होता । इतना हीं नहीं , वह अपमृत्यु से रहित हो सौ से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहता है ॥४६-४७॥

शेष आगामी पोस्ट में --
.........गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से


जय माँ दुर्गे !!


 
“न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथा:|
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ||”

(हे मात:! मैं तुम्हारा मन्त्र, यन्त्र, स्तुति, आवाहन, ध्यान, स्तुतिकथा, मुद्रा तथा विलाप कुछ भी नहीं जानता; परन्तु सब प्रकार के क्लेशों को दूर करने वाला आपका अनुसरण करना (पीछे चलना) ही जानता हूँ)

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘स्तोत्र रत्नावली’ पुस्तक से


अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०७)


प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्‌।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥
रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥
गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
पुत्रान्‌ रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥

हाथ में वज्र धारण करनेवाली वज्रहस्तादेवी मेरे प्राण , अपान , व्यान , उदान और समान वायु की रक्षा करे । कल्याण से शोभित होनेवाली भगवती कल्याण शोभना मेरे प्राण की रक्षा करे ॥३७॥ रस , रूप , गंध , शब्द और स्पर्श – इन विषयों का अनुभव करते समय योगिनी देवी रक्षा करे तथा सत्वगुण , रजोगुण और तमोगुण की रक्षा सदा नारायणी देवी करे ॥३८॥ वाराही आयु की रक्षा करे । वैष्णवी धर्म की रक्षा करे तथा चक्रिणी ( चक्र धारण करनेवाली ) – देवी यश , कीर्ति , लक्ष्मी , धन तथा विद्या की रक्षा करे ॥३९॥ इन्द्राणि ! आप मेरे गोत्र की रक्षा करे । चण्डिके ! तुम मेरे पशुओं की रक्षा करो । महालक्ष्मी पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी पत्नी की रक्षा करे ॥४०॥ मेरे पथ की सुपथा तथा मार्ग की क्षेमकारी रक्षा करे । राजा के दरबार में महालक्ष्मी रक्षा करे तथा सब ओर व्याप्त रहनेवाली विजयादेवी सम्पूर्ण भयों से मेरी रक्षा करे ॥४१॥ देवि ! जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है , अतएव रक्षा से रहित है , वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो ; क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो ॥४२॥

शेष आगामी पोस्ट में --

.....गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से


अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०६)

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।
जंघे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥३१॥
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादांगुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥३२॥
नखान्‌ दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३३॥
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥३४॥
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥३५॥
शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥

भगवती कटिभाग में और विंध्यवासिनी घुटनों की रक्षा करे । सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली महाबला देवी दोनों पिण्डलियों की रक्षा करे ॥३१॥ नारसिंही दोनों घुट्ठियों की और तैजसी देवी दोनों चरणों के पृष्ठ भाग की रक्षा करे । श्री देवी पैरों की अंगुलियों में और तलवासिनी पैरों के तलुओं में रहकर रक्षा करे ॥३२॥ अपनी दाढ़ों के कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकराली देवी नखों की और ऊर्ध्वकेशिनी देवी केशों की रक्षा करे । रोमवालियों के छिद्रों में कौबेरी और त्वचा की वागीश्वरीदेवी रक्षा करे ॥३३॥ पार्वती देवी रक्त , मज्जा , वसा , मांस , हड्डी और मेदा की रक्षा करे । आँतों की कालरात्रि और पित्त की मुकुटेश्वरी रक्षा करे ॥३४॥  मूलाधार आदि कमल - कोशों में पद्मावती देवी और कफ में चूड़ामणिदेवी स्थित होकर रक्षा करे । नख के तेज की ज्वालामुखी रक्षा करे । जिसका किसी भी अस्त्र से भेदन नहीं हो सकता , वह अभेद्यादेवी शरीर की समस्त संधियों में रहकर रक्षा करे ॥३५॥ ब्रह्माणि ! आप मेरे वीर्य की रक्षा करे । छत्रेश्वरी छाया की तथा धर्मधारिणी - देवी मेरे अहंकार, मन और बुद्धिकी रक्षा करे ॥३६॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
..........गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से


शुक्रवार, 24 मार्च 2023

अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०५)


दन्तान्‌ रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥२५॥
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमंगला।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥
नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे व्रजधारिणी॥२७॥
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चांगुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥२८॥
स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥
नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी॥३०॥

कौमारी दाँतों की और चण्डिका कंठप्रदेश की रक्षा करे । चित्रघण्टा गले की घाँटी की और महामाया तालु में रहकर रक्षा करे ॥२५॥ कामाक्षी ठोढ़ी की और सर्वमंगला मेरी वाणी की रक्षा करे । भद्रकाली ग्रीवा में और धनुर्धरी पृष्ठवंश ( मेरुदण्ड ) - में रहकर रक्षा करे ॥२६॥कण्ठ के बाहरी भाग में नीलग्रीवा और कण्ठ की नली में नलकूबरी रक्षा करे । दोनों कंधोंमें खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की वज्रधारिणी रक्षा करे ॥२७॥दोनों हाथों में दंडिनी और अंगुलियों में अम्बिका रक्षा करे । शूलेश्वरी नखों की रक्षा करे । कुलेश्वरी कुक्षि (पेट ) – में रहकर रक्षा करे ॥२८॥ महादेवी दोनों स्तनों की और शोक विनाशिनी देवी मन की रक्षा करे । ललिता देवी हृदय में और शूलधारिणी उदर में रहकर रक्षा करे ॥२९॥ नाभि में कामिनी और गुह्यभाग की गुह्येश्वरी रक्षा करे । पूतना और कामिका लिंगकी और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करे ॥३०॥

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............गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से


गुरुवार, 23 मार्च 2023

अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०४)

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा ॥१९॥
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।
जया में चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥
अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥
मालाधारी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥
शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥२३॥
नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥

उत्तर दिशा में कौमारी और ईशान - कोण में शूलधारिणी देवी रक्षा करे । ब्रह्माणि ! तुम ऊपर की ओर से मेरी रक्षा करो और वैष्णवी देवी नीचे की ओर से मेरी रक्षा करे ॥१९॥इसी प्रकार शव को अपना वाहन बनानेवाली चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी रक्षा करे । जया आगे से और विजया पीछे की ओर से मेरी रक्षा करे ॥२०॥वाम भाग में अजिता और दक्षिण भाग में अपराजिता रक्षा करे । उद्द्योतिनी शिखा की रक्षा करे । उमा मेरे मस्तक पर विराजमान होकर रक्षा करे ॥२१॥ ललाट में मालाधारी रक्षा करे और यशस्विनी देवी मेरे भौहों का संरक्षण करे । भौहों के मध्यभाग में त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे ॥२२॥ दोनों नेत्रों के मध्य भाग में शंखिनी और कानों में द्वारवासिनी रक्षा करे । कालिका देवी कपोलों की तथा भगवती शांकरी मूलभाग की रक्षा करे ॥२३॥ नासिका में सुगंधा और ऊपर के ओठ में चर्चिका देवी रक्षा करे । नीचे के ओठ में अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती देवी रक्षा करे ॥२४॥

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अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०३)

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।
शंख चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्‌॥१३॥
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्‌॥१४॥
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ॥१५॥
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिन।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥
दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥

ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोध में भरी हुई हैं और भक्तों की रक्षा के लिये रथपर बैठी दिखायी देती हैं । ये शंख , चक्र , गदा , शक्ति , हल ,और मूसल , खेटक और तोमर , परशु तथा पाश , कुन्त और त्रिशूल एवं उत्तम शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्र अपने हाथों में धारण करती हैं । दैत्यों के शरीर का नाश करना , भक्तों को अभयदान देना और देवताओं का कल्याण करना – यही उनके शस्त्र –धारण का उद्देश्य है ॥१३ - १५॥ [कवच आरम्भ करने के पहले इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये - ] महान् रौद्ररूप , अत्यंत घोर पराक्रम , महान् बल और महान् उत्साहवाली देवि ! तुम महान् भय का नाश करनेवाली हो , तुम्हें नमस्कार है ॥१६॥  तुम्हारी ओर देखना भी कठिन है । शत्रुओं का भय बढ़ानेवाली जगदम्बिके ! मेरी रक्षा करो। पूर्व दिशा में ऐन्द्री ( इंद्रशक्ति) मेरी रक्षा करे । अग्निकोण में अग्निशक्ति , दक्षिण दिशा में वाराही तथा नैर्ऋत्यकोण में खड्गधारी मेरी रक्षा करे । पश्चिम दिशा में वारूणी और वायव्यकोण में मृगपर सवारी करनेवाली देवी मेरी रक्षा करे ॥१७- १८॥

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जय रघुनन्दन जय सियाराम ! हे दुखभंजन तुम्हे प्रणाम !!

जय श्रीसीताराम !

तुम मेरे सेव्य हो और मैं तुम्हारा सेवक हूं--बस, हम दोनों में यही एक सम्बन्ध अनन्तकाल-पर्यन्त अक्षुण्ण बना रहे।  पूरी कर देने को कहो तो दास की एक अभिलाषा और है।  वह यह है-

 अहं हरे तवपादैकमूल
 दासानुदासो भवितास्मि भूयः।
 मनः स्मरेताऽसुपतेर्गुणानां
 गृणीत वाक्‌ कर्मकरोतु कायः॥

 अर्थात्‌, हे भगवन्‌ !  मैं बार बार तुम्हारे चरणारविन्दों के सेवकों का ही दास होऊँ ।  हे प्राणेश्‍वर!  मेरा मन तुम्हारे गुणोंका स्मरण करता रहे।  मेरी वाणी तुम्हारा कीर्तन किया करे।  और, मेरा शरीर सदा तुम्हारी सेवामें लगा रहे।

 किसी भी योनिमें जन्म लूं, ‘त्वदीय’ ही कहा जाऊं, मुझे अपना कहीं और परिचय न देना पड़े।  सेवक को इससे अधिक और क्या चाहिये।  अन्तमें यही विनय है, नाथ!

 अर्थ न धर्म न काम-रुचि, गति न चहौं निर्बान।
 जन्म जन्म रति राम-पद, यह बरदान न आन॥
 परमानन्द कृपायतन, मन परिपूरन काम।
 प्रेम-भगति अनपायनी, देहु हमहिँ श्रीराम॥

   ------तुलसी

 क्यों नहीं कह देते, कि ‘एवमस्तु !’  

( श्रीवियोगी-हरिजी )
….००४. ०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११सं०१९८६.कल्याण  ( पृ० ७५५ )


बुधवार, 22 मार्च 2023

अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०२)

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥
न तेषा जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥
माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥
श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥
इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥१२॥

जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो , रणभूमि में शत्रुओं से घिर गया हो , विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती दुर्गा की शरण में प्राप्त हुए हों , उनका कभी कोई अमंगल नहीं होता। युद्ध के समय संकट में पड़ने पर भी उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं दिखायी देती । उन्हें शोक , दु:ख और भय की प्राप्ति नहीं होती ॥६-७॥ जिन्होंने भक्तिपूर्वक देवी का स्मरण किया है , उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है । देवेश्वरि ! जो तुम्हारा चिंतन करते हैं, उनकी तुम नि:सन्देह रक्षा करती हो ॥८॥ चामुण्डादेवी प्रेतपर आरुढ़ होती हैं । वाराही भैंसे पर सवारी करती है । ऐन्द्री का वाहन ऐरावत हाथी है । वैष्णवी देवी गरुड़ पर ही आसन जमाती हैं ॥९॥ माहेश्वरी वृषभ पर आरूढ़ होती है । कौमारी का वाहन मयूर है । भगवान् विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मीदेवी कमल के आसनपर विराजमान हैं और हाथों में कमल धारण किये हुए हैं ॥१०॥ वृषभपर आरूढ़ ईश्वरी देवी ने श्वेत रूप धारण कर रखा है । ब्राह्मीदेवी हंसपर बैठी हुई हैं और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं ॥११॥ इस प्रकार ये सभी माताएँ सब प्रकार की योग शक्तियों से समपन्न हैं । इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं , जो अनेक प्रकार के आभूषणों की शोभा से युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं ॥१२॥

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................गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से


अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०१)


विनियोग

ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप्‌ छन्दः, चामुण्डा देवता, अंगन्यासोक्तमातरो बीजम्‌, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्‌, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठांगत्वेन जपे विनियोगः।

॥ ॐ नमश्चण्डिकायै॥

मार्कण्डेय उवाच

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्‌।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥

ब्रह्मोवाच

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्‌।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्‌॥३॥
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्‌॥४॥
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥

ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है।

मार्कण्डेय जी ने कहा – पितामह ! जो इस संसार में परम गोपनीय तथा मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करनेवाला है और जो अब तक आपने दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो, ऐसा कोई साधन मुझे बताइये॥१॥
ब्रह्माजी बोले – ब्रह्मन् ! ऐसा साधन तो एक देवीका कवच ही है ,जो गोपनीयसे भी परम गोपनीय,पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियों का उपकार करनेवाला है । महामुने ! उसे श्रवण करो ॥२॥ देवी की नौ मूर्तियाँ हैं, जिन्हें ‘नवदुर्गा’ कहते हैं। उनके पृथक्-पृथक् नाम बतलाये जाते हैं । प्रथम नाम ‘ शैलपुत्री ’ है । दूसरी मूर्तिका नाम ‘ ब्रह्मचारिणी ’ है। तीसरा स्वरूप ‘ चंद्रघण्टा ’ के नाम से प्रसिद्ध है। चौथी मूर्ति को ‘ कूष्माण्डा ’ कहते हैं। पाँचवीं दुर्गा का नाम ‘ स्कन्दमाता’ है । देवी के छठे रूपको ‘ कात्यायनी ’ कहते है। सातवाँ ‘कालरात्रि’ और आठवाँ स्वरूप ‘महागौरी ’ के नाम से प्रसिद्ध है । नवीं दुर्गा का नाम ‘ सिद्धिदात्री ’ है । ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेद भगवान के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं ॥२-५॥

शेष आगामी पोस्ट में --
................गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से


दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 05)


संसार के लोग जिन सब वस्तुओं के नाश हो जानेपर रोते और पुनः मिलने की आकांक्षा करते हैं या जिनकी अप्राप्ति में अभावका अनुभव कर दुखी होते हैं और प्राप्त होने पर हर्षसे फूल जाते हैं, तत्त्वदर्शीं पुरुष इस तरह नहीं करते, वे इस रहस्यको समझते हैं, इसलिये वे समय समयपर बच्चोंके साथ बच्चे बनकर खेलते हैं, बच्चोंके खेलमें शामिल हो जाते हैं, परन्तु होते हैं उन बच्चोंको खेलका असली तत्त्व समझाकर सदाको शोक-मुक्त कर देनेके लिये ही !

 ऐसे भगवान्‌ के प्यारे भक्त विश्वकी प्रत्येक क्रियामें परमात्माकी लीलाका अनुभव करते हैं, वे सभी अनुकूल और प्रतिकूल घटनाओंमें परमात्माको ओतप्रोत समझकर , लीलारूपमें उनको अवतरित समझकर, उनके नित्य नये नये खेलोंको देखकर प्रसन्न होते हैं और सब समय सब तरहसे और सब ओरसे सन्तुष्ट रहते हैं।  ऐसे लोगोंको जगत्‌के लोग-जिनका मन भोगोंमें, उन्हें सुखरूप समझकर फँसा हुआ है, स्वार्थी, अकर्मण्य, आलसी, पागल, दीवाने और भ्रान्त समझते हैं, परन्तु वे क्या होते हैं, इस बातका पता वास्तवमें उन्हींको रहता है।  ऐसे दीवानोंकी दुनियाँ दूसरी ही होती है, उस दुनियाँमें कभी राग-द्वेष, रोग-शोक, सुख-दुःख नहीं होते।  वह दुनियाँ सूर्य चन्द्रसे प्रकाशित नहीं होती, स्वतः प्रकाशित रहती है।  इतना ही नहीं, उसी दुनिया के परम प्रकाश से ही सारे विश्व को प्रकाश मिलता है।

!! ॐ तत्सत् !!

...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )


मंगलवार, 21 मार्च 2023

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 04)


सांसारिक लोग धन, मान, ऐश्‍वर्य, प्रभुता, बल, कीर्ति आदि की प्राप्ति के लिये परमात्मा की कुछ भी परवा न कर अपना सारा जीवन इन्हीं पदार्थों के प्राप्त करने में लगा देते हैं और इसीको परम पुरुषार्थ मानते हैं।  इसके विपरीत परमात्माकी प्राप्तिके अभिलाषी पुरुष परमात्मा के लिये इन सारी लोभनीय वस्तुओंका तृणवत्‌, नहीं, नहीं, विषवत्‌ परित्याग कर देते हैं और उसी में उनको बड़ा आनन्द मिलता है।  पहले को मान प्राण समान प्रिय है तो दूसरा मान-प्रतिष्ठा को शूकरी-विष्ठा समझता है।  पहला धन को-जीवन का आधार समझता है तो दूसरा लौकिक धन को परमधन की प्राप्ति में प्रतिबन्धक मानकर उसका त्याग कर देता है।  पहला प्रभुता प्राप्तकर जगत्‌ पर शासन करना चाहता है तो दूसरा ‘तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना’ बनकर महापुरुषोंके चरणकी रजका अभिषेक करनेमें ही अपना मंगल मानता है।  दोनोंके भिन्न भिन्न ध्येय और मार्ग हैं।  ऐसी स्थितिमें एक दूसरे को पथभ्रान्त समझना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है।  यह तो विषयी और मुमुक्षु का अन्तर है।  परन्तु इससे पहले किये हुए विवेचन के अनुसार मुक्त अथवा भगवदीय लीलामें सम्मिलित भक्तके लिये तो जगत्‌ का स्वरूप ही बदल जाता है।  इसी से वह इस खेल से मोहित नहीं होता।  जब छोटे लड़के काँच के या मिट्‍टी के खिलौनों से खेलते और उनके लेन-देन ब्याह-शादी में लगे रहते हैं, तब बड़े लोग उनके खेल को देखकर हँसा करते हैं, परन्तु छोटे बच्चों की दृष्टिमें वह बड़ोंकी भांति कल्पित वस्तुओंका खेल नहीं होता।  वे उसे सत्य समझते हैं और जरा-जरासी वस्तुके लिये लड़ते हैं, किसी खिलौने के टूट जाने या छिन जानेपर रोते हैं, वास्तव में उनके मनमें बड़ा कष्ट होता है।  नया खिलौना मिल जानेपर वे बहुत हर्षित होते हैं।  जब माता-पिता किसी ऐसे बच्चेको, जिसके मिट्‍टी के खिलौने टूट गये हैं या छिन गये हैं, रोते देखते हैं तो उसे प्रसन्न करनेके लिये कुछ खिलौने और दे देते हैं, जिससे वह बच्चा चुप हो जाता है और अपने मनमें बहुत हर्षित होता है परन्तु सच्चे हितैषी माता-पिता बालक को केवल खिलौना देकर ही हर्षित नहीं करना चाहते, क्योंकि इससे तो इस खिलौने के टूटनेपर भी उन्हें फिर रोना पड़ेगा।  अतएव वे समझाकर उनका यह भ्रम भी दूर कर देना चाहते हैं कि खिलौने वास्तव में सच्ची वस्तु नहीं है।  मिट्‍टी की मामूली चीज हैं, उनके जाने-आने या बनने-बिगड़ने में कोई विशेष लाभ-हानि नहीं है।  इसी प्रकार की दशा संसार के मनुष्यों की हो रही है।  

शेष आगामी पोस्ट में ...................

...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )


सोमवार, 20 मार्च 2023

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 03)


इसी प्रकार लोकदृष्टि से भासने वाले महान्‌ से महान्‌ दुःख में वे महात्मा विचलित नहीं होते, क्योंकि उनकी दृष्टिमें दुःख-सुख कोई वस्तु ही नहीं रह गये हैं ।  ऐसे महापुरुष ही ब्रह्म में नित्य स्थित समझे जाते हैं।  भगवान्‌ ने गीतामें कहा है-

 न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌।
 स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥

 ऐसे स्थिरबुद्धि संशय-शून्य ब्रह्मवित्‌ महात्मा लोकदृष्टि से प्रिय प्रतीत होनेवाली वस्तु को पाकर हर्षित नहीं होते और लोकदृष्टि से अप्रिय पदार्थ को पाकर उद्विग्न नहीं होते, क्योंकि वे सच्चिदानन्दघन सर्वरूप परब्रह्म परमात्मा में नित्य अभिन्न भावसे स्थित हैं।  जगत्‌ के लोगो को जिस घटनामें अमंगल दीखता है, महात्माओंकी दृष्टिमें वही घटना ब्रह्मसे ओतप्रोत होती है, इसलिये वे न तो ऐसी घटनाका विरोध करते हैं और न उससे विपरीत घटनाके लिये आकांक्षा करते हैं।  क्योंकि वे सांसारिक शुभाशुभ के परित्यागी हैं।
 ऐसे महापुरुषोंद्वारा जो कुछ क्रियाएं होती हैं, उनसे कभी जगत्‌का अमंगल नहीं हो सकता, चाहे वे क्रियाएं लोकदृष्टिमें प्रतिकूल ही प्रतीत होती हों।  सत्यपर स्थित और केवल सत्यके ही लक्ष्यपर चलनेवाले लोगोंकी चाल विपरीतगति असत्य-परायण लोगोंको प्रतिकूल प्रतीत हो सकती है और वे सब उनको दोषी भी बतला सकते है, परन्तु सत्यपर स्थित महात्मा उन लोगोंकी कोई परवा नहीं करते।  वे अपने लक्ष्यपर सदा अटलरूपसे स्थित रहते हैं।  लोगों की दृष्टिमें महाभारत-युद्धसे भारतवर्ष की बहुत हानि हुई, पर जिन परमात्माके संकेतसे यह संहार-लीला सम्पन्न हुई, उनकी, और उनके रहस्य को समझनेवाले दिव्यकर्मी पुरुषों की दृष्टिमें उससे देश और विश्व का बड़ा भारी मंगल हुआ ।  इसीलिये दिव्यकर्मी अर्जुन भगवान्‌ के सङ्केतानुसार सब प्रकार के धर्मों का आश्रय छोड़कर केवल भगवान्‌ के वचनके अनुसार ही महासंग्राम के लिये सहर्ष प्रस्तुत होगया था ।  जगत्‌में ऐसी बहुत-सी बातें होती हैं जो बहुसंख्यक लोगोंके मतसे बुरी होनेपर भी उनके तत्त्वज्ञके मतमें अच्छी होती हैं और यथार्थमें अच्छी ही होती हैं, जिनका अच्छापन समयपर बहुसंख्यक लोगोंके सामने प्रकट और प्रसिद्ध होनेपर वे उसे मान भी लेते हैं, अथवा ऐसा भी होता है कि उनका अच्छापन कभी प्रसिद्ध ही नहीं हो पाता।  परन्तु इससे उनके अच्छे होनेमें कोई आपत्ति नहीं होती।  सत्य कभी असत्य नहीं हो सकता, चाहे उसे सारा संसार सदा असत्य ही समझता रहे।  अतएव जो भगवत्तत्त्व और भगवान्‌ की दिव्य लीलाका रहस्य समझते हैं, उनके दृष्टिकोणमें जो कुछ यथार्थ प्रतीत होता है वही यथार्थ है।  परन्तु इनकी यथार्थ प्रतीति साधारण बहुसंख्यक लोगोंकी समझसे प्रायः प्रतिकूल ही हुआ करती है।  क्योंकि दोनोंके ध्येय और साधनामें पूरी प्रतिकूलता रहती है।  

शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )


रविवार, 19 मार्च 2023

दीवानों की दुनियां (पोस्ट 02)


अजब पहेली है, पहले आप कहते हैं कि ‘मेरे अव्यक्त स्वरूप से सारा जगत्‌ भरा है, फिर कहते हैं, जगत्‌ मुझमें है, मैं उसमें नहीं हूं, इसके बाद ही कह देते हैं कि न तो यह जगत्‌ ही मुझमें है और न मैं इसमें हूं।  यह सब मेरी मायाका अप्रतिम प्रभाव है।’  मेरी लीला है।  यह अजब उलझन उन महात्माओंकी बुद्धिमें सुलझी हुई होती है, वे इसका यथार्थ मर्म समझते हैं।  वे जानते हैं कि जगत्‌में परमात्मा उसी तरह सत्यरूपसे परिपूर्ण है, जैसे जलसे बर्फ ओतप्रोत रहती है यानी जल ही बर्फके रूपमें भास रहा है।  यह सारा विश्व कोई भिन्न वस्तु नहीं है; परमात्माके सङ्कल्पसे, बाजीगरके खेलकी भांति, उस सङ्कल्पके ही आधारपर स्थित है।  जब कोई भिन्न वस्तु ही नहीं है तब उसमें किसीकी स्थिति कैसी?  इसीलिये परमात्माके सङ्कल्पमें ही विश्वकी स्थिति होनेके कारण वास्तवमें परमात्मा उसमें स्थित नहीं है।  परन्तु विश्वकी यह स्थिति भी परमात्मामें वास्तविक नहीं है, यह तो उनका एक सङ्कल्पमात्र है । वास्तव में केवल परमात्मा ही अपने आपमें लीला कर रहे हैं, यही उनका रहस्य है !  इस रहस्यको  तत्त्वसे समझनेके कारण ही महात्माओं की दृष्टि दूसरी होजाती है ।   इसीलिये वे प्रत्येक शुभाशुभ घटनामें सम रहते हैं-जगत्‌ का बड़े से बड़ा लाभ उनको आकर्षित नहीं कर सकता, क्योंकि वे जिस परम वस्तुको पहचानकर प्राप्त कर चुके हैं उसके सामने कोई लाभ, लाभ ही नहीं है।  

शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण (पृ० ७५९)


शनिवार, 18 मार्च 2023

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 01)

 या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
 यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

 भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं कि "जो सब भूत प्राणियोंके लिये रात्रि है, संयमी पुरुष उसमें जागता है और सब भूतप्राणी जिसमें जागते हैं, तत्त्वदर्शी मुनिके लिये वह रात्रि है।"  अर्थात्‌ साधारण भूतप्राणी और यथार्थ तत्त्वके जाननेवाले अन्तर्मुखी योगियोंके ज्ञानमें रातदिनका अन्तर है।  साधारण संसारी-लोगोंकी स्थिति क्षणभंगुर विनाशशील सांसारिक भोगोंमें होती है, उल्लूके लिये रात्रीकी भाँति उनके विचारमें वही परम सुखकर हैं, परन्तु इसके विपरीत तत्त्वदर्शियों की स्थिति नित्य शुद्ध बोधस्वरूप परमानन्द में परमात्मा में होती है, उनके विचारमें सांसारिक विषयोंकी सत्ता ही नहीं है, तब उनमें सुखकी प्रतीति तो होती ही कहाँसे?  इसीलिये सांसारिक मनुष्य जहां विषयोंके  संग्रह और भोग में लगे रहते हैं,-उनका जीवन भोग-परायण रहता है, वहां तत्त्वज्ञ पुरुष न तो विषयोंकी कोई परवा करते हैं और न भोगों को कोई वस्तु ही समझते हैं।  साधारण लोगों की दृष्टिमें ऐसे महात्मा मूर्ख और पागल जँचते हैं, परन्तु महात्माओंकी दृष्टिमें तो एक ब्रह्मकी अखण्ड सत्ता के सिवा मूर्ख-विद्वान्‌ की कोई पहेली ही नहीं रह जाती।  इसीलिये वे जगत्‌ को सत्य और सुखरूप समझने वाले अविद्या के फन्देमें फँसकर रागद्वेषके आश्रयसे भोगों में रचे-पचे हुए लोगों को समय समयपर सावधान करके उन्हें जीवनका यथार्थ पथ दिखलाया करते हैं।  ऐसे पुरुष जीवन-मत्यु दोनों से ऊपर उठे हुए होते हैं।  अन्तर्जगत्‌ में प्रविष्ट होकर दिव्यदृष्टि प्राप्त कर लेने के कारण इनकी दृष्टिमें बहिर्जगत्‌ का स्वरूप कुछ विलक्षण ही हो जाता है।  ऐसे ही महात्माओं के लिये भगवान्‌ ने कहा है-
 वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥

 ‘सब कुछ एक वासुदेव ही है, ऐसा मानने-जाननेवाला महात्मा अति दुर्लभ है।  ऐसे महात्मा देखते हैं कि ‘सारा जगत्‌ केवल एक परमात्मा का ही विस्तार है, वही अनेक रूपों से इस संसार में व्यक्त हो रहे हैं।  प्रत्येक व्यक्त वस्तुके अन्दर परमात्मा व्याप्त हैं।  असल में व्यक्त वस्तु भी उस अव्यक्तसे भिन्न नहीं है।  परम रहस्यमय वह एक परमात्मा ही अपनी लीलासे भिन्न भिन्न व्यक्तरूपों में प्रतिभासित हो रहे हैं, जिनको प्रतिभासित होते हैं, उनकी सत्ता भी उन परमात्मा से पृथक्‌ नहीं है।’  ऐसे महात्मा ही परमात्मा की इस अद्भुत रहस्यमय पवित्र गीतोक्त घोषणा का पद पद पर प्रत्यक्ष करते हैं कि-

 मया ततमिदं सर्वं जगद्‌व्यक्तमूर्तिना।
 मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥
 न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्‌।
 भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥

 ‘मुझ सच्चिदान्दघन अव्यक्त परमात्मा से यह समस्त विश्व परिपूर्ण है, और ये समस्त भूत मुझमें स्थित हैं, परन्तु मैं उनमें नहीं हूं, ये समस्त भूत भी मुझ में स्थित नहीं हैं, मेरी योगमाया और प्रभाव को देख, कि समस्त भूतों का धारण पोषण करनेवाला मेरा आत्मा उन भूतों में स्थित नहीं है।’  

शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण (पृ० ७५९)


शुक्रवार, 17 मार्च 2023

।। जय श्री राम ।।

जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी । 
जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥

( जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं )


गुरुवार, 16 मार्च 2023

राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे । राम के भजन बिनु, मुक्ति नहिं पाव रे ।।

।। जय श्री राम ।। 


दुनिया के लिये रोने में और भगवान्‌ के लिये रोने में बड़ा फर्क है । दुनिया के लिये रोते हैं तो आँसू गर्म होते हैं और भगवान्‌ के लिये रोते हैं तो आँसू ठण्डे होते हैं । संसारके लिये रोनेवाले के हृदय में जलन होती है और भगवान्‌ के लिये रोनेवाले के हृदय में ठण्डक होती है । भगवान्‌ के लिये रोना भी बड़ा मीठा होता है ! संसार की तरफ चलने में ही दुःख है । भगवान्‌ की तरफ चलने में सुख-ही-सुख है । भगवान् मिलें तो भी सुख, न मिलें तो भी सुख !

जैसे भगवान्‌ को हनुमान जी बहुत प्यारे हैं, ऐसे ही कलियुग में भजन करनेवाला भगवान्‌ को बहुत प्यारा है ।

.......गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘बिन्दु में सिन्धु’ पुस्तक से


बुधवार, 15 मार्च 2023

श्रीजानकीवल्लभो विजयते !

“ सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्री राम॥“

( हे नीले मेघ के समान श्याम शरीर वाले सगुण रूप श्री रामजी ! सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु (आप) निरंतर मेरे हृदय में निवास कीजिए )


मंगलवार, 14 मार्च 2023

जय श्री राम

“तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन । जानहिं भगत भगत उर चंदन॥“

( हे रघुनंदन ! हे भक्तों के हृदय को शीतल करनेवाले चंदन ! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं )


सोमवार, 13 मार्च 2023

“ नाहं वसामि वैकुंठे ........."

“ नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च | 
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ||”  

.................... ( पद्मपुराण उ. १४/२३)

                                                               (भगवान् कहते हैं कि हे नारद !  मैं न तो  वैकुंठ में ही रहता हूँ और न योगियों के हृदय में ही रहता हूँ । मैं तो वहीं रहता हूँ, जहाँ प्रेमाकुल होकर मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन किया करते हैं  ।  मैं सर्वदा लोगों के अन्तःकरण में विद्यमान रहता हूं)  | 

श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना ही स्वीकार होती है । अतः भावना जितनी सच्ची, गहरी और पूर्ण होगी, उतना ही उसका सत्परिणाम होगा |


शनिवार, 11 मार्च 2023

गुरु को ढूंढना नहीं पड़ता !


।। जय श्री हरि ।।

श्रोता‒  आजकल दुनिया में ढूँढ़ने पर भी गुरु नहीं मिलता । मिलता है तो ठग मिलता है । हम गुरु ढूँढ़ने के लिये कई तीर्थों में गये, पर कोई मिला ही नहीं । आप कहते हैं कि जगद्गुरु कृष्ण को अपना गुरु मान लो । अगर आप यह घोषणा कर दें कि भाई ! आप लोग कृष्ण को ही गुरु मानो तो यह वहम ही मिट जाय ........!

स्वामीजी‒  वास्तव में गुरु को ढूँढ़ना नहीं पड़ता । फल पककर तैयार होता है तो तोता खुद उसको ढूँढ़ लेता है । ऐसे ही अच्छे गुरु खुद चेले को ढूँढ़ते हैं, चेले को ढूँढ़ना नहीं पड़ता । जैसे ही आप कल्याण के लिये तैयार हुए, गुरु फट आ टपकेगा ! फल पककर तैयार होता है तो तोता अपने-आप उसके पास आता है, फल तोते को नहीं बुलाता । ऐसे ही आप तैयार हो जाओ कि अब मुझे अपना कल्याण करना है तो गुरु अपने-आप आयेगा ।

‒गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तक से


शुक्रवार, 10 मार्च 2023

सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे।तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नमः।।


प्रलयपयोधि में मार्कण्डेयजी को भगवद्विग्रह का दर्शन 

महामुनि मार्कण्डेय जी की अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् नारायण ने उनसे वर माँगने को कहा | मुनि ने कहा- हे प्रभो !  आपने कृपा करके अपने मनोहर रूप का दर्शन कराया है, फिर भी आपकी आज्ञा के अनुसार मैं आपकी माया का दर्शन करना चाहता हूँ | तब ‘तथास्तु’ कहकर भगवान् बदरीवन को चले गए | एक दिन मार्कण्डेयजी पुष्पभद्रा नदी के तट पर भगवान् की उपासना में तन्मय थे | उसी समय एकाएक उनके समक्ष प्रलयकाल का दृश्य उपस्थित हो गया | भगवान् की माया के प्रभाव से उस प्रलयकालीन समुद्र में भटकते-भटकते उन्हें करोड़ों वर्ष बीत गए और –--

“एकार्णव की उस अगाध जलराशि-बीच वटबृक्ष विशाल ,
दीख पडा उसकी शाखा पर बिछा पलंग एक तत्काल |
उसपर रहा विराज एक था कमलनेत्र एक सुन्दर बाल,
देख प्रफुल्ल कमल-मुख मुनि मार्कण्डेय हो गए चकित निहाल ||
...............(पदरत्नाकर)

---अकस्मात् एक दिन उन्हें उस प्रलय-पयोधि के मध्य एक विशाल वटवृक्ष दिखाई पडा | उस वटवृक्ष की एक शाखा पर एक सुन्दर-सा पलंग बिछा हुआ था | उस पलंग पर कमल-जैसे नेत्र वाला एक सुन्दर बालक विराज रहा था | उसके प्रफुल्लित कमल-जैसे मुख को देखकर मार्कण्डेय मुनि विस्मित तथा  सफल-मनोरथ हो गए |

---{कल्याण वर्ष ९०,सं०६..जून,२०१६}


बुधवार, 8 मार्च 2023

जय श्री सीताराम

“सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्री राम॥“

( हे नीले मेघ के समान श्याम शरीर वाले सगुण रूप श्री रामजी ! सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु (आप) निरंतर मेरे हृदय में निवास कीजिए )


मंगलवार, 7 मार्च 2023

एकश्लोकी रामायण

आदौ रामतपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनं
वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसंभाषणम् ।
वालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनं
पश्चाद्रावणकुंभकर्णहननमेतद्धि रामायणम् ॥


सोमवार, 6 मार्च 2023

रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र

|| ॐ नम: शिवाय ||

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥1॥
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्द्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥2॥
धरा धरेंद्रनंदिनीविलासबंधुवंधुर-
स्फुरदृगंतसंतति प्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
जटा भुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-
प्रसूनधूलिधोरणीविधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा-
निपीतपंचसायकं नमन्निलिंपनायकम्‌ ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालि संपदे शिरोजटालमस्तु नः ॥6॥
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजयाहुतीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥7॥
नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहूनिशीथिनीतमः प्रबंधबद्धकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगद्धुरंधरः ॥8॥
प्रफुल्लनीलपञ्कजप्रपंचकालिमप्रभा-
वलम्बिकंठकंदलीरुचिप्रबद्धकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमञ्जरी-
रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम्‌ ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥10॥
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥12॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन्‌ ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तमं स्तवं
पठन् स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌ ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिंतनम ॥14॥
पूजाऽवसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शम्भुपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥15॥

-------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “शिवस्तोत्ररत्नाकर” (कोड 1417) से


रविवार, 5 मार्च 2023

☼ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम: ☼


जैसे कठपुतली, नचानेवाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन है ॥ 

“ईशस्य हि वशे लोको योषा दारुमयी यथा ॥“

...........(श्रीमद्भागवत १.६.७)


शनिवार, 4 मार्च 2023

दस नामापराध (पोस्ट ०७)

।। ॐ श्री परमात्मने नम: ।।

‘धर्मान्तरैः साम्यम्’ (१०) भगवान्‌ के नाम की अन्य धर्मों के साथ तुलना करना अर्थात् गंगास्नान करो, चाहे नाम-जप करो । नाम-जप करो, चाहे गोदान कर दो । सब बराबर है । ऐसे किसीके बराबर नामकी बात कह दो तो नामका अपराध हो जायगा । नाम महाराज तो अकेला ही है । इसके समान दूसरा कोई साधन, धर्म है ही नहीं । भगवान् शंकरका नाम लो चाहे भगवान् विष्णुका नाम लो । ये नाम दूसरोंके समान नाम नहीं हैं । नामकी महिमा सबमें अधिक है, सबसे श्रेष्ठ है ।

इस प्रकार इन दस अपराधोंसे रहित होकर नाम लिया जाय तो वह बड़ी जल्दी उन्नति करनेवाला होता है । अगर नाम जपनेवालेसे इन अपराधोमेंसे कभी कोई अपराध बन भी जाय तो उसके लिये दूसरा प्रायश्चित्त करनेकी जरूरत नहीं है उसको तो ज्यादा नाम-जप ही करना चाहिये; क्योंकि नामापराध को दूर करनेवाला दूसरा प्रायश्चित्त है ही नहीं ।
नाम महाराजकी तो बहुत विलक्षण, अलौकिक महिमा है, जिस महिमाको स्वयं भगवान् भी कह नहीं सकते । इस वास्ते जो केवल नामनिष्ठ है; जो रात-दिन नाम-जपके ही परायण है, जिनका सम्पूर्ण जीवन नाम-जपमें ही लगा है;नाम महाराजके प्रभावसे उनके लिये इन अपराधों में से कोई भी अपराध लागू नहीं होता । ऐसे बहुत-से सन्त हुए हैं, जो शास्त्रों, पुराणों, स्मृतियों आदिको नहीं जानते थे, परन्तु नाम महाराजके प्रभावसे उन्होंने वेदों, पुराणों आदि के सिद्धान्त अपनी साधारण ग्रामीण भाषामें लिख लिये हैं । इस वास्ते सच्चे हृदयसे नाम में लग जाओ भाई; क्योंकि यह कलियुगका मौका है । बड़ा सुन्दर अवसर मिल गया है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


शुक्रवार, 3 मार्च 2023

दस नामापराध (पोस्ट ०६)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||


‘नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ’‒--
(८) निषिद्ध आचरण करना और (९) विहित कर्मोंका त्याग कर देना । 
जैसे, हम नाम-जप करते हैं तो झूठ-कपट कर लिया,दूसरों को धोखा दे दिया, चोरी कर ली, दूसरों का हक मार लिया तो इसमें क्या पाप लगेगा । अगर लग भी जाय तो नामके सामने सब खत्म हो जायगा; क्योंकि नाममें पापोंके नाश करनेकी अपार शक्ति है‒इस भावसे नामके सहारे निषिद्ध आचरण करना नामापराध है ।

भगवान्‌ का नाम लेते हैं । अब संध्या की क्या जरूरत है ? गायत्री की क्या जरूरत है ? श्राद्ध की क्या जरूरत है ? तर्पण की क्या जरूरत है ? क्या इस बात की जरूरत है ? इस प्रकार नामके भरोसे शास्त्र-विधि का त्याग करना भी नाम महाराज का अपराध है । यह नहीं छोड़ना चाहिये । अरे भाई ! यह तो कर देना चाहिये । शास्त्रने आज्ञा दी है । गृहस्थोंके लिये जो बताया है, वह करना चाहिये ।

नाम्नोऽस्ति यावती शक्तिः पापनिर्हरणे हरेः ।
तावत् कर्तुं न शक्नोति  पातकं पातकी जनः ॥

भगवान्‌ के नाम में इतने पापों के नाश करने की शक्ति है कि उतने पाप पापी कर नहीं सकता । लोग कहते हैं कि अभी पाप कर लो, ठगी-धोखेबाजी कर लो, पीछे राम-राम कर लेंगे तो नाम उसके पापों का नाश नहीं करेगा । क्योंकि उसने तो भगवन्नाम को पापों की वृद्धिमें हेतु बनाया है । भगवान्‌ के नाम के भरोसे पाप किये हैं, उसको नाम कैसे दूर करेगा ?

इस विषय में हमने एक कहानी सुनी है । एक कोई सज्जन थे । उनको अंग्रेजों से एक अधिकार मिल गया था कि जिस किसीको फाँसी होती हो, अगर वहाँ जाकर खड़ा रह जाय तो उसके सामने फाँसी नहीं दी जायगी‒ऐसी उसको छूट दी हुई थी । उसकी लड़की जिसको ब्याही थी, वह दामाद उद्दण्ड हो गया । चोरी भी करे, डाका भी डाले,अन्याय भी करे । उसकी स्त्री ने मना किया तो वह कहता है क्या बात है ? तेरा बाप, अपनी बेटी को विधवा होने देगा क्या ? उसका जवाँई हूँ ।
उस लड़की ने अपने पिताजी से कह दिया‒ ‘पिताजी ! आपके जवाँई तो आजकल उद्दण्ड हो गये हैं ? कहना मानते हैं नहीं । ससुर ने बुलाकर कहा कि ऐसा मत करो, तो कहने लगा‒‘जब आप हमारे ससुर हैं, तो मेरेको किस बातका भय है ।’ ऐसा होते-होते एक बार उसका जवाँई किसी अपराध में पकड़ा गया और उसे फाँसीकी सजा हो गयी । जब लडकी को पता लगा तो उसने आकर कहा‒पिताजी ! मैं विधवा हो जाऊँगी । पिताजी कहते हैं‒बेटी ! तू आज नहीं तो कल, एक दिन विधवा हो जायगी । उसकी रक्षा मैं कहाँतक करूँ । मेरेको अधिकार मिला है, वह दुरुपयोग करनेके लिये नहीं है । बेटी के मोह में आकर पाप का अनुमोदन करूँ, पाप की वृद्धि करूँ । यह बात नहीं होगी । वे नहीं गये ।

ऐसे ही नाम महाराजके भरोसे कोई पाप करेगा तो नाम-महाराज वहाँ नहीं जायँगे । उसका वज्रलेप पाप होगा,बड़ा भयंकर पाप होगा ।

नारायण !     नारायण !!     

 (शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


अधरं मधुरं वदनं मधुरं........

मधुराष्टकम्  


अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम् | 
हृदयं मधुरं, गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||1||
वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम्  |
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरं ||2||
वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुर: पाणिर्मधुर: पादौ मधुरौ |
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं  मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||3||
गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् |
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||4||
करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम् |
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||5||
गुंजा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा |
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||6||
गोपी मधुरा लीला मधुरा  युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरं 
दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||7||
गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा  |
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||8||

(श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है | उनके अधर मधुर हैं,मुख मधुर है,नेत्र मधुर हैं,हास्य मधुर है,हृदय मधुर है और गति भी अतिमधुर है || उनके वचन मधुर हैं,चरित्र मधुर हैं,वस्त्र मधुर हैं, अंगभंगी मधुर है, चाल मधुर है और भ्रमण भी अतिमधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| उनका गान मधुर है, पान मधुर है,भोजन मधुर है,शयन मधुर है,रूप मधुर है और तिलक भी अतिमधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| उनका कार्य मधुर है,तैरना मधुर है,हरण मधुर है,रमण मधुर है,उद्गार मधुर है  और शांति भी अति मधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| उनकी गुंजा मधुर है,माला मधुर है, यमुना मधुर है, उसकी तरंगें मधुर हैं,उसका जल मधुर है और कमल भी अतिमधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| गोपियाँ मधुर हैं,उनकी लीला मधुर है,उनका संयोग मधुर है,वियोग मधुर है, निरीक्षण मधुर है और शिष्टाचार भी मधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है|| गोप मधुर हैं, गौएँ मधुर हैं,लकुटी मधुर है,रचना मधुर है.दलन मधुर है और उसका फल भी अतिमधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है||)

--गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “स्तोत्र रत्नावली” पुस्तक से (पुस्तक कोड  1629)


गुरुवार, 2 मार्च 2023

दस नामापराध (पोस्ट ०५)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

‘नाम्न्यर्थवादभ्रमः’‒(७) नाममें अर्थवादका भ्रम है । यह महिमा बढ़ा-चढ़ाकर कही है; इतनी महिमा थोडी है नामकी ! नाममात्रसे कल्याण कैसे हो जायगा ? ऐसा भ्रम न करें; क्योंकि भगवान्‌ का नाम लेनेसे कल्याण हो जायगा । नाममें खुद भगवान् विराजमान हैं । मनुष्य नींद लेता है तो नाम लेते ही सुबोध होता है अर्थात् किसीको नींद आयी हुई है तो उसका नाम लेकर पुकारो तो वह नींदमें सुन लेगा । नींदमें सम्पूर्ण इन्द्रियाँ मनमें, मन बुद्धिमें और बुद्धि अविद्यामें लीन हुई रहती है‒ऐसी जगह भी नाममें विलक्षण शक्ति है । ‘शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वात्’ शब्दमें अपार, असीम, अचिन्त्य शक्ति मानी है । नींदमें सोता हुआ जग जाय । अनादि कालसे सोया हुआ जीव सन्त-महात्माओंके वचनोंसे जग जाता है,उसको होश आ जाता है । जिस बेहोशीमें अनन्त जन्म बीत गये । लाखों-करोड़ों वर्ष बीत गये । ऐसे नींदमें सोता हुआ भी, शब्द में इतनी अलौकिक विलक्षण शक्ति है, जिससे वह जाग्रत् हो जाय, अविद्या मिट जाय, अज्ञान मिट जाय । ऐसे उपदेशसे विचित्र हो जाय आदमी ।

यह तो देखनेमें आता है । सत्संग सुननेसे आदमी में परिवर्तन आता है । उसके भावोंमें महान् परिवर्तन हो जाता है । पहले उसमें क्या-क्या इच्छाएँ थीं, उसकी क्या दशा थी,किधर वृत्ति थी, क्या काम करता था ? और अब क्या करता है ? इसका पता लग जायगा । इस वास्ते शब्दमें अचिन्त्य शक्ति है ।

नाम में अर्थवादकी कल्पना करना कि नामकी महिमा झूठी गा दी है, लोगोंकी रुचि करनेके लिये यह धोखा दिया है । थोड़ा ठंडे दिमागसे सोचो कि सन्त-महात्मा भी धोखा देंगे तो तुम्हारे कल्याणकी, हितकी बात कौन कहेगा ?
बड़े अच्छे-अच्छे महापुरुष हुए हैं और उन्होंने कहा है‒‘भैया ! भगवान्‌का नाम लो ।’ असम्भव सम्भव हो जाय । लोगोंने ऐसा करके देखा है । असम्भव बात भी सम्भव हो जाती है । जो नहीं होनेवाली है वह भी हो जाती है । जिनके ऐसी बीती है उम्रमें, उन लोगोंने कहा है । ऐसी असम्भव बात सम्भव हो जाय, न होनेवाली हो जाय । इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थ ईश्वरः’ ईश्वर करनेमें, न करनेमें, अन्यथा करनेमें समर्थ होता है । वह ईश्वर वशमें हो जाय अर्थात् भगवान् भगवन्नाम लेनेवालेके वशमें हो जाते हैं ।

नाम महाराज से क्या नहीं हो सकता ? ऐसा कुछ है ही नहीं, जो न हो सके अर्थात् सब कुछ हो सकता है । भगवान्‌ का नाम लेनेसे ऐसे लाभ होता है बड़ा भारी । नामसे बड़े-बड़े असाध्य रोग मिट गये हैं, बड़े-बड़े उपद्रव मिट गये हैं, भूत-प्रेत-पिशाच आदिके उपद्रव मिट गये हैं । भगवान्‌ का नाम लेनेवाले सन्तोंके दर्शनमात्रसे अनेक प्रेतोंका उद्धार हो गया । भगवान्‌का नाम लेनेवाले पुरुषोंके संगसे, उनकी कृपासे अनेक जीवोंका उद्धार हो गया है ।

सज्जनो ! आप विचार करें तो यह बात प्रत्यक्ष दीखेगी कि जिन देशोंमें सन्त-महात्मा घूमते हैं, जिन गाँवोंमें, जिन प्रान्तोंमें सन्त रहते हैं और जिन गाँवोंमें सन्तों ने भगवान्‌ के नामका प्रचार किया है, वे गाँव आज विलक्षण हैं दूसरे गाँवोंसे । जिन गाँवोंमें सौ-दो-सौ वर्षोंसे कोई सन्त नहीं गया है, वे गाँव ऐसे ही पड़े हैं अर्थात् वहांके लोगोंकी भूत-प्रेत-जैसी दशा है । भगवान्‌का नाम लेनेवाले पुरुष जहाँ घूमे हैं,पवित्रता आ गयी, विलक्षणता आ गयी, अलौकिकता आ गयी । वे गाँव सुधर गये, घर सुधर गये, वहाँके व्यक्ति सुधर गये,उनको होश आ गया । वे स्वयं भी कहते हैं, हम मामूली थे पर भगवान्‌ का नाम मिला, सन्त मिल गये तो हम मालामाल हो गये ।

१९९३ वि॰ सं॰ में हमलोग तीर्थयात्रामें गये थे तो काठियावाड़ में एक भाई मिला । उसने हम को पाँच-सात वर्षोंकी उम्र बतायी । अरे भाई ! तुम इतने बड़े दीखते हो, तो क्या बात है ? उस भाईने कहा‒मैं सात वर्षोंसे ही ‘कल्याण’ मासिक पत्रिका का ग्राहक हूँ । जबसे इधर रुचि हुई, तबसे ही मैं अपनेको मनुष्य मानता हूँ । पहले की उम्र को मैं मनुष्य मानता ही नहीं, मनुष्यके लायक काम नहीं किया । उद्दण्ड, उच्छृंखल होते रहे । तो बोलो, कितना विलक्षण लाभ होता है ? ‘तीर्थयात्रा-ट्रेन गीताप्रेस की है’‒ऐसा सुनते तो लोग परिक्रमा करते । जहाँ गाड़ी खड़ी रहती, वहाँके लोग कीर्तन करते और स्टेशनों-स्टेशनों पर कीर्तन होता कि आज तीर्थयात्राकी गाड़ी आनेवाली है ।
यह महिमा किस बातकी है ? यह सब भगवान्‌ को,भगवान्‌ के नामको लेकर है । आज भी हम गोस्वामीजीकी महिमा गाते हैं, रामायणजी की महिमा गाते हैं, तो क्या है ? भगवान्‌ का चरित्र है, भगवान्‌ का नाम है । गोस्वामीजी महाराज भी कहते हैं‒‘एहि महँ रघुयति नाम उदारा ।’ इसमें भगवान्‌ का नाम है जो कि वेद, पुराणका सार है । इस कारण रामायणकी इतनी महिमा है । भगवान्‌की महिमा,भगवान्‌ के चरित्र, भगवान्‌ के गुण होनेसे रामायणकी महिमा है । जिसका भगवान्‌ से सम्बन्ध जुड़ जाता है, वह विलक्षण हो जाता है । गंगाजी सबसे श्रेष्ठ क्यों हैं ? भगवान्‌ के चरणोंका जल है । भगवान्‌ के साथ सम्बन्ध है । इस वास्ते भगवान्‌ के नामकी महिमामें अर्थवादकी कल्पना करना गलत है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


बुधवार, 1 मार्च 2023

दस नामापराध (पोस्ट ०४)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

(६) जब हम नाम-जप करते हैं तो गुरु-सेवा करने की क्या आवश्यकता है ? गुरुकी आज्ञापालन करने की क्या जरूरत है ? नाम-जप इतना कमजोर है क्या ? नाम-जप को गुरु-सेवा आदिसे बल मिलता है क्या ? नाम-जप उनके सहारे है क्या ? नाम-जपमें इतनी सामर्थ्य नहीं है जो कि गुरुकी सेवा करनी पड़े ? सहारा लेना पड़े ? इस प्रकार गुरुमें अश्रद्धा करना नामापराध है ।

वेदोंमें अश्रद्धा करनेवालेपर भी नाम महाराज प्रसन्न नहीं होते । वे तो श्रुति हैं, सबकी माँ-बाप हैं । सबको रास्ता बतानेवाली हैं । इस वास्ते वेदों में अश्रद्धा न करे । ऐसे शास्त्रों में-पुराण, शास्त्र, इतिहास में भी अश्रद्धा न करे,तिरस्कार-अपमान न करे । सबका आदर करे । शास्त्रों में,पुराणों में, वेदों में, सन्तों की वाणी में, भगवान्‌ के नाम की महिमा भरी पड़ी है । शास्त्रों, सन्तों आदि ने जो भगवन्नामकी महिमा गायी है, यदि वह इकट्ठी की जाय तो महाभारत से बड़ा पोथा बन जाय । इतनी महिमा गायी है फिर भी इसका अन्त नहीं है । फिर भी उनकी निन्दा करे और नाम से लाभ लेना चाहे तो कैसे होगा ?

जिन गुरु महाराज से हमें नाम मिला है, यदि उनका निरादर करेंगे, तिरस्कार करेंगे तो नाम महाराज रुष्ट हो जायेंगे । कोई कहते हैं कि हमने गुरु किये पर वे ठीक नहीं निकले । ऐसी बात भी हो जाय तो मैं एक बात कहता हूँ कि आप उनको छोड़ दो भले ही, परन्तु निन्दा मत करो ।

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते ॥

ऐसा विधान आता है । इस वास्ते गुरु को छोड़ दो और नाम-जप करो । भगवान्‌ के नाम का जप तो करो, पर गुरु की निन्दा मत करो । जिससे कुछ भी पाया है पारमार्थिक बातें ली हैं, जिससे लाभ हुआ है, भगवान्‌ की तरफ रुचि हुई है,चेत हुआ है, होश हुआ है, उसकी निन्दा मत करो ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


दस नामापराध (पोस्ट ०३)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||


‘श्रीशेशयोर्भेदधी’‒(३) भगवान् विष्णु के भक्त हैं तो शंकर की निन्दा न करें । दोनों में भेद-बुद्धि न करें । भगवान् शंकर और विष्णु दो नहीं हैं‒

उभयोः प्रकृतिस्त्वेका प्रत्ययभेदेन भिन्नवद्‌भाति ।
कलयति कश्चिन्मूढो हरिहरभेदं विना शास्त्रम् ॥

भगवान् विष्णु और शंकर इन दोनों का स्वभाव एक है । परन्तु भक्तों के भावों के भेद से भिन्न की तरह दीखते हैं । इस वास्ते कोई मूढ़ दोनों का भेद करता है तो वह शास्त्र नहीं जानता । दूसरा अर्थ होता है ‘हृञ् हरणे’ धातु तो एक है पर प्रत्यय-भेद है । हरि और हर ऐसे प्रत्यय-भेद से भिन्न की तरह दीखते हैं । ‘हरि-हर’ के भेद को लेकर कलह करता है वह ‘विना शास्त्रम्’ पढ़ा लिखा नहीं है और ‘विनाशाय अस्त्रम्’‒अपना नाश करनेका अस्त्र है ।

भगवान् शंकर और विष्णु इन दोनों का आपस में बड़ा प्रेम है । गुणों के कारण से देखा जाय तो भगवान् विष्णु का सफेद रूप होना चाहिये और भगवान् शंकर का काला रूप होना चाहिये; परन्तु भगवान् विष्णु का श्याम वर्ण है और भगवान् शंकर का गौर वर्ण है, बात क्या है । भगवान् शंकर ध्यान करते हैं भगवान् विष्णु का और भगवान् विष्णु ध्यान करते हैं भगवान् शंकर का । ध्यान करते हुए दोनों का रंग बदल गया । विष्णु तो श्यामरूप हो गये और शंकर गौर वर्णवाले हो गये‒‘कर्पूरगौरं करुणावतारम् ।’

अपने ललाटपर भगवान् राम के धनुषका तिलक करते हैं शंकर और शंकर के त्रिशूल का तिलक करते हैं रामजी । ये दोनों आपस में एक-एक के इष्ट हैं । इस वास्ते इनमें भेद-बुद्धि करना, तिरस्कार करना, अपमान करना बड़ी गलती है । इससे भगवन्नाम महाराज रुष्ट हो जायँगे । इस वास्ते भाई,भगवान्‌ के नाम से लाभ लेना चाहते हो तो भगवान् विष्णु में और शंकर में भेद मत करो ।

कई लोग बड़ी-बड़ी भेद-बुद्धि करते हैं । जो भगवान् कृष्ण के भक्त हैं, भगवान् विष्णु के भक्त हैं, वे कहते हैं कि हम शंकर का दर्शन ही नहीं करेंगे । यह गलती की बात है । अपने तो दोनों का आदर करना है । दोनों एक ही हैं । ये दो रूप से प्रकट होते हैं‒‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के ।’

‘अश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिराम्’‒वेद, शास्त्र और सन्त-महापुरुषोंके वचनोंमें अश्रद्धा करना अपराध है ।

(४) जब हम नाम-जप करते हैं तो हमारे लिये वेदों के पठन-पाठन की क्या आवश्यकता है ? वैदिक कर्मों की क्या आवश्यकता है । इस प्रकार वेदों पर अश्रद्धा करना नामापराध है ।

(५) शास्त्रों ने बहुत कुछ कहा है । कोई शास्त्र कुछ कहता है तो कोई कुछ कहता है । उनकी आपस में सम्मति नहीं मिलती । ऐसे शास्त्रों को पढ़ने से क्या फायदा है ? उनको पढ़ना तो नाहक वाद-विवाद में पड़ना है । इस वास्ते नाम-प्रेमी को शास्त्रों का पठन-पाठन नहीं करना चाहिये, इस प्रकार शास्त्रों में अश्रद्धा करना नामापराध है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणत क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः॥


   ।। श्री हरि: ।।

जिनके हृदय में निरन्तर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे शुद्धान्त:करण पुरुष स्वप्नमें भी यमराजको नहीं देखते ॥ जिनके हृदयमें भक्ति महारानीका निवास है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करनेमें भी समर्थ नहीं हो सकते ॥ भगवान्‌ तप, वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधनसे वशमें नहीं किये जा सकते; वे केवल भक्तिसे ही वशीभूत होते हैं। इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण हैं ॥ मनुष्योंका सहस्रों जन्मके पुण्य-प्रतापसे भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें केवल भक्ति, केवल भक्ति ही सार है। भक्तिसे तो साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हो जाते हैं ॥ 

येषां चित्ते वसेद्‌भक्तिः सर्वदा प्रेमरूपिणी ।
नते पश्यन्ति कीनाशं स्वप्नेऽप्यमलमूर्तयः ॥ 
न प्रेतो न पिशाचो वा राक्षसो वासुरोऽपि वा ।
भक्तियुक्तमनस्कानां स्पर्शने न प्रभुर्भवेत् ॥ 
न तपोभिर्न वेदैश्च न ज्ञानेनापि कर्मणा ।
हरिर्हि साध्यते भक्त्या प्रमाणं तत्र गोपिकाः ॥ 
नृणां जन्मसहस्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते ।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिः भक्त्या कृष्णः पुरः स्थितः ॥ 

………. (श्रीमद्भागवतमाहात्म्य २|१६-१९)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०८) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन काल...