मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीभगवानुवाच –

मा वेदगर्भ गास्तन्द्रीं सर्ग उद्यममावह ।
तन्मयाऽऽपादितं ह्यग्रे यन्मां प्रार्थयते भवान् ॥ २९ ॥
भूयस्त्वं तप आतिष्ठ विद्यां चैव मदाश्रयाम् ।
ताभ्यां अन्तर्हृदि ब्रह्मन् लोकान् द्रक्ष्यसि अपावृतान् ॥ ३० ॥
तत आत्मनि लोके च भक्तियुक्तः समाहितः ।
द्रष्टासि मां ततं ब्रह्मन् मयि लोकान् त्वमात्मनः ॥ ३१ ॥
यदा तु सर्वभूतेषु दारुष्वग्निमिव स्थितम् ।
प्रतिचक्षीत मां लोको जह्यात्तर्ह्येव कश्मलम् ॥ ३२ ॥
यदा रहितमात्मानं भूतेन्द्रियगुणाशयैः ।
स्वरूपेण मयोपेतं पश्यन् स्वाराज्यमृच्छति ॥ ३३ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा—वेदगर्भ ! तुम विषाद के वशीभूत हो आलस्य न करो, सृष्टिरचना के उद्यम में तत्पर हो जाओ। तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, उसे तो मैं पहले ही कर चुका हूँ ॥ २९ ॥ तुम एक बार फिर तप करो और भागवत-ज्ञानका अनुष्ठान करो। उनके द्वारा तुम सब लोकों को स्पष्टतया अपने अन्त:करण में देखोगे ॥ ३० ॥ फिर भक्तियुक्त और समाहितचित्त होकर तुम सम्पूर्ण लोक और अपने में मुझ को व्याप्त देखोगे तथा मुझ में सम्पूर्ण लोक और अपने-आपको देखोगे ॥ ३१ ॥ जिस समय जीव काष्ठ में व्याप्त अग्नि के समान समस्त भूतोंमें मुझे ही स्थित देखता है, उसी समय वह अपने अज्ञानरूप मलसे मुक्त हो जाता है ॥ ३२ ॥ जब वह अपनेको भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्त:करण से रहित तथा स्वरूपत: मुझसे अभिन्न देखता है, तब मोक्षपद प्राप्त कर लेता है ॥ ३३ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 30 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

मैत्रेय उवाच -

स्वसम्भवं निशाम्यैवं तपोविद्यासमाधिभिः ।
यावन्मनोवचः स्तुत्वा विरराम स खिन्नवत् ॥ २६ ॥
अथाभिप्रेतमन्वीक्ष्य ब्रह्मणो मधुसूदनः ।
विषण्णचेतसं तेन कल्पव्यतिकराम्भसा ॥ २७ ॥
लोकसंस्थानविज्ञान आत्मनः परिखिद्यतः ।
तमाहागाधया वाचा कश्मलं शमयन्निव ॥ २८ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इस प्रकार तप, विद्या और समाधि के द्वारा अपने उत्पत्तिस्थान श्रीभगवान्‌ को देखकर तथा अपने मन और वाणीकी शक्तिके अनुसार उनकी स्तुति कर ब्रह्माजी थके-से होकर मौन हो गये ॥ २६ ॥ श्रीमधुसूदन भगवान्‌ ने देखा कि ब्रह्माजी इस प्रलयजलराशि से बहुत घबराये हुए हैं तथा लोकरचना के विषय में कोई निश्चित विचार न होने के कारण उनका चित्त बहुत खिन्न है। तब उनके अभिप्रायको जानकर वे अपनी गम्भीर वाणीसे उनका खेद शान्त करते हुए कहने लगे ॥ २७-२८ ॥

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रविवार, 29 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

एष प्रपन्नवरदो रमयात्मशक्त्या ।
    यद्यत् करिष्यति गृहीतगुणावतारः ।
तस्मिन्स्वविक्रममिदं सृजतोऽपि चेतो ।
    युञ्जीत कर्मशमलं च यथा विजह्याम् ॥ २३ ॥
नाभिह्रदादिह सतोऽम्भसि यस्य पुंसो ।
    विज्ञानशक्तिरहमासमनन्तशक्तेः ।
रूपं विचित्रमिदमस्य विवृण्वतो मे ।
    मा रीरिषीष्ट निगमस्य गिरां विसर्गः ॥ २४ ॥
सोऽसौ अदभ्रकरुणो भगवान् विवृद्ध ।
    प्रेमस्मितेन नयनाम्बुरुहं विजृम्भन् ।
उत्थाय विश्वविजयाय च नो विषादं ।
    माध्व्या गिरापनयतात्पुरुषः पुराणः ॥ २५ ॥

आप भक्तवाञ्छाकल्पतरु हैं। अपनी शक्ति लक्ष्मीजी के सहित अनेकों गुणावतार लेकर आप जो-जो अद्भुत कर्म करेंगे, मेरा यह जगत् की  रचना करने का उद्यम भी उन्हीं में से एक है। अत: इसे रचते समय आप मेरे चित्त को प्रेरित करें—शक्ति प्रदान करें, जिससे मैं सृष्टिरचनाविषयक अभिमानरूप मलसे दूर रह सकूँ ॥ २३ ॥ प्रभो ! इस प्रलयकालीन जलमें शयन करते हुए आप अनन्तशक्ति परमपुरुष के नाभि-कमल से मेरा प्रादुर्भाव हुआ है और मैं हूँ भी आपकी ही विज्ञानशक्ति; अत: इस जगत् के विचित्र रूप का विस्तार करते समय आपकी कृपा से मेरी वेदरूप वाणी का उच्चारण लुप्त न हो ॥ २४ ॥ आप अपार करुणामय पुराणपुरुष हैं। आप परम प्रेममयी मुसकान के सहित अपने नेत्रकमल खोलिये और शेष-शय्या से उठकर विश्व के उद्भव के लिये अपनी सुमधुर वाणी से मेरा विषाद दूर कीजिये ॥ २५ ॥

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शनिवार, 28 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

यन्नाभिपद्मभवनाद् अहमासमीड्य ।
    लोकत्रयोपकरणो यदनुग्रहेण ।
तस्मै नमस्त उदरस्थभवाय योग ।
    निद्रावसानविकसन् नलिनेक्षणाय ॥ २१ ॥
सोऽयं समस्तजगतां सुहृदेक आत्मा ।
    सत्त्वेन यन्मृडयते भगवान् भगेन ।
तेनैव मे दृशमनुस्पृशताद्यथाहं ।
    स्रक्ष्यामि पूर्ववदिदं प्रणतप्रियोऽसौ ॥ २२ ॥

आपके नाभिकमलरूप भवन से मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूर्ण विश्व आपके उदर में समाया हुआ है। आपकी कृपा से ही मैं त्रिलोकी की रचनारूप उपकार में प्रवृत्त हुआ हूँ । इस समय योगनिद्रा का अन्त हो जानेके कारण आपके नेत्र-कमल विकसित हो रहे हैं, आपको मेरा नमस्कार है ॥ २१ ॥ आप सम्पूर्ण जगत् के एकमात्र सुहृद् और आत्मा हैं तथा शरणागतोंपर कृपा करनेवाले हैं। अत: अपने जिस ज्ञान और ऐश्वर्य से आप विश्वको आनन्दित करते हैं, उसी से मेरी बुद्धि को भी युक्त करें—जिससे मैं पूर्वकल्पके समान इस समय भी जगत् की  रचना कर सकूँ ॥ २२ ॥ 

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शुक्रवार, 27 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

तिर्यङ्‌मनुष्यविबुधादिषु जीवयोनि ।
    ष्वात्मेच्छयात्मकृतसेतुपरीप्सया यः ।
रेमे निरस्तविषयोऽप्यवरुद्धदेहः ।
    तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥ १९ ॥
योऽविद्ययानुपहतोऽपि दशार्धवृत्त्या ।
    निद्रामुवाह जठरीकृतलोकयात्रः ।
अन्तर्जलेऽहिकशिपुस्पर्शानुकूलां ।
    भीमोर्मिमालिनि जनस्य सुखं विवृण्वन् ॥ २० ॥

आप पूर्णकाम हैं, आपको किसी विषयसुखकी इच्छा नहीं है, तो भी आपने अपनी बनायी हुई धर्ममर्यादा की रक्षाके लिये पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आदि जीवयोनियों में अपनी ही इच्छासे शरीर धारण कर अनेकों लीलाएँ की हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान्‌ को मेरा नमस्कार है ॥ १९ ॥ प्रभो ! आप अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश—पाँचों में से किसी के भी अधीन नहीं हैं; तथापि इस समय जो सारे संसार को अपने उदर में लीनकर भयङ्कर तरङ्गमालाओं से विक्षुब्ध प्रलयकालीन जल में अनन्तविग्रह की कोमल शय्या पर शयन कर रहे हैं, वह पूर्वकल्पकी कर्मपरम्परासे श्रमित हुए जीवोंको विश्राम देनेके लिये ही है ॥ २० ॥ 

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गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः ।
    कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।
यस्तावदस्य बलवान् इह जीविताशां ।
    सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै ॥ १७ ॥
यस्माद्बिदभेम्यहमपि द्विपरार्धधिष्ण्यं ।
    अध्यासितः सकललोकनमस्कृतं यत् ।
तेपे तपो बहुसवोऽवरुरुत्समानः ।
    तस्मै नमो भगवतेऽधिमखाय तुभ्यम् ॥ १८ ॥

भगवन् ! आपने अपनी आराधना को ही लोकों के लिये कल्याणकारी स्वधर्म बताया है, किन्तु वे इस ओर से उदासीन रहकर सर्वदा विपरीत (निषिद्ध) कर्मोंमें  लगे रहते हैं। ऐसी प्रमाद की अवस्था में पड़े हुए इन जीवों की जीवन-आशा को जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघ्रता से काटता रहता है, वह बलवान् काल भी आपका ही रूप है; मैं उसे नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥ 
यद्यपि मैं सत्यलोक का अधिष्ठाता हूँ, जो दो परार्धपर्यन्त रहनेवाला और समस्त लोकों का वन्दनीय है, तो भी आपके उस कालरूप से डरता रहता हूँ। उससे बचने और आपको प्राप्त करने के लिये ही मैंने बहुत समयतक तपस्या की है। आप ही अधियज्ञरूपसे मेरी इस तपस्याके साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १८ ॥ 

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बुधवार, 25 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

यस्यावतार गुणकर्मविडम्बनानि ।
    नामानि येऽसुविगमे विवशा गृणन्ति ।
तेऽनैकजन्मशमलं सहसैव हित्वा ।
    संयान्त्यपावृतामृतं तमजं प्रपद्ये ॥ १५ ॥
यो वा अहं च गिरिशश्च विभुः स्वयं च ।
    स्थित्युद्भचवप्रलयहेतव आत्ममूलम् ।
भित्त्वा त्रिपाद्‌ववृध एक उरुप्ररोहः ।
    तस्मै नमो भगवते भुवनद्रुमाय ॥ १६ ॥

जो लोग प्राणत्याग करते समय आपके अवतार, गुण और कर्मोंको सूचित करनेवाले देवकीनन्दन, जनार्दन, कंसनिकन्दन आदि नामोंका विवश होकर भी उच्चारण करते हैं, वे अनेकों जन्मोंके पापों से तत्काल छूटकर मायादि आवरणों से रहित ब्रह्मपद प्राप्त करते हैं। आप नित्य अजन्मा हैं, मैं आपकी शरण लेता हूँ ॥ १५ ॥ भगवन् ! इस विश्ववृक्ष के रूप में आप ही विराजमान हैं। आप ही अपनी मूलप्रकृति को स्वीकार करके जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये मेरे, अपने और महादेवजी के रूप में तीन प्रधान शाखाओं में विभक्त हुए हैं और फिर प्रजापति एवं मनु आदि शाखा-प्रशाखाओं के रूप में फैलकर बहुत विस्तृत हो गये हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १६ ॥ 

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मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

नातिप्रसीदति तथोपचितोपचारैः ।
    आराधितः सुरगणैर्हृदि बद्धकामैः ।
यत्सर्वभूतदययासदलभ्ययैको ।
    नानाजनेष्ववहितः सुहृदन्तरात्मा ॥ १२ ॥
पुंसामतो विविधकर्मभिरध्वराद्यैः ।
    दानेन चोग्रतपसा परिचर्यया च ।
आराधनं भगवतस्तव सत्क्रियार्थो ।
    धर्मोऽर्पितः कर्हिचिद् ध्रियते न यत्र ॥ १३ ॥
शश्वत्स्वरूपमहसैव निपीतभेद ।
    मोहाय बोधधिषणाय नमः परस्मै ।
विश्वोद्भोवस्थितिलयेषु निमित्तलीला ।
    रासाय ते नम इदं चकृमेश्वराय ॥ १४ ॥

भगवन् ! आप एक हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अन्त:करणों में स्थित उनके परम हितकारी अन्तरात्मा हैं। इसलिये यदि देवतालोग भी हृदयमें तरह-तरहकी कामनाएँ रखकर भाँति-भाँतिकी विपुल सामग्रियोंसे आपका पूजन करते हैं, तो उससे आप उतने प्रसन्न नहीं होते जितने सब प्राणियोंपर दया करनेसे होते हैं। किन्तु वह सर्वभूतदया असत् पुरुषोंको अत्यन्त दुर्लभ है ॥ १२ ॥ जो कर्म आपको अर्पण कर दिया जाता है, उसका कभी नाश नहीं होता—वह अक्षय हो जाता है। अत: नाना प्रकारके कर्म—यज्ञ, दान, कठिन तपस्या और व्रतादिके द्वारा आपकी प्रसन्नता प्राप्त करना ही मनुष्यका सबसे बड़ा कर्मफल है; क्योंकि आपकी प्रसन्नता होनेपर ऐसा कौन फल है जो सुलभ नहीं हो जाता ॥ १३ ॥ आप सर्वदा अपने स्वरूपके प्रकाशसे ही प्राणियोंके भेद-भ्रमरूप अन्धकारका नाश करते रहते हैं तथा ज्ञानके अधिष्ठान साक्षात् परमपुरुष हैं; मैं आपको नमस्कार करता हूँ। संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके निमित्तसे जो मायाकी लीला होती है, वह आपका ही खेल है; अत: आप परमेश्वरको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १४ ॥ 

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सोमवार, 23 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

अह्न्यापृतार्तकरणा निशि निःशयाना ।
    नानामनोरथधिया क्षणभग्ननिद्राः ।
दैवाहतार्थरचना ऋषयोऽपि देव ।
    युष्मत् प्रसङ्गविमुखा इह संसरन्ति ॥ १० ॥
त्वं भक्तियोगपरिभावितहृत्सरोज ।
    आस्से श्रुतेक्षितपथो ननु नाथ पुंसाम् ।
यद् यद् धिया ते उरुगाय विभावयन्ति ।
    तत्तद् वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाय ॥ ११ ॥

देव ! औरोंकी तो बात ही क्या—जो साक्षात् मुनि हैं, वे भी यदि आपके कथाप्रसङ्ग से विमुख रहते हैं तो उन्हें संसार में फँसना पड़ता है। वे दिनमें अनेक प्रकार के व्यापारों के कारण विक्षिप्तचित्त रहते हैं, रात्रि में निद्रामें अचेत पड़े रहते हैं; उस समय भी तरह-तरह के मनोरथों के कारण क्षण-क्षणमें उनकी नींद टूटती रहती है तथा दैववश उनकी अर्थसिद्धि के सब उद्योग भी विफल होते रहते हैं ॥ १० ॥ नाथ ! आपका मार्ग केवल गुण-श्रवणसे ही जाना जाता है। आप निश्चय ही मनुष्योंके भक्तियोगके द्वारा परिशुद्ध हुए हृदयकमलमें निवास करते हैं। पुण्यश्लोक प्रभो ! आपके भक्तजन जिस-जिस भावनासे आपका चिन्तन करते हैं, उन साधु पुरुषोंपर अनुग्रह करनेके लिये आप वही- वही रूप धारण कर लेते हैं ॥ ११ ॥ 

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रविवार, 22 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

दैवेन ते हतधियो भवतः प्रसङ्गात् ।
    सर्वाशुभोपशमनाद् विमुखेन्द्रिया ये ।
कुर्वन्ति कामसुखलेशलवाय दीना ।
    लोभाभिभूतमनसोऽकुशलानि शश्वत् ॥ ७ ॥
क्षुत्तृट्‌त्रधातुभिरिमा मुहुरर्द्यमानाः ।
    शीतोष्णवातवर्षैरितरेतराच्च ।
कामाग्निनाच्युत रुषा च सुदुर्भरेण ।
    सम्पश्यतो मन उरुक्रम सीदते मे ॥ ८ ॥
यावत् पृथक्त्वमिदमात्मन इन्द्रियार्थ ।
    मायाबलं भगवतो जन ईश पश्येत् ।
तावन्न संसृतिरसौ प्रतिसङ्क्रमेत ।
    व्यर्थापि दुःखनिवहं वहती क्रियार्था ॥ ९ ॥

जो लोग सब प्रकारके अमङ्गलोंको नष्ट करनेवाले आपके श्रवण-कीर्तनादि प्रसङ्गोंसे इन्द्रियोंको हटाकर लेशमात्र विषय-सुखके लिये दीन और मन-ही-मन लालायित होकर निरन्तर दुष्कर्मों में लगे रहते हैं, उन बेचारोंकी बुद्धि दैव ने हर ली है ॥ ७ ॥ अच्युत ! उरुक्रम ! इस प्रजा को भूख-प्यास, वात, पित्त, कफ, सर्दी, गर्मी, हवा और वर्षासे, परस्पर एक-दूसरे से तथा कामाग्नि और दु:सह क्रोधसे बार-बार कष्ट उठाते देखकर मेरा मन बड़ा खिन्न होता है ॥ ८ ॥ स्वामिन् ! जबतक मनुष्य इन्द्रिय और विषयरूपी मायाके प्रभावसे आपसे अपनेको भिन्न देखता है, तबतक उसके लिये इस संसारचक्रकी निवृत्ति नहीं होती। यद्यपि यह मिथ्या है, तथापि कर्मफल-भोगका क्षेत्र होनेके कारण उसे नाना प्रकारके दु:खोंमें डालता रहता है ॥ ९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 21 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

तद्वा इदं भुवनमङ्गल मङ्गलाय ।
    ध्याने स्म नो दर्शितं त उपासकानाम् ।
तस्मै नमो भगवतेऽनुविधेम तुभ्यं ।
    योऽनादृतो नरकभाग्भिरसत्प्रसङ्गैः ॥ ४ ॥
ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं ।
    जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् ।
भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां ।
    नापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम् ॥ ५ ॥
तावद्भायं द्रविणगेहसुहृन्निमित्तं ।
    शोकः स्पृहा परिभवो विपुलश्च लोभः ।
तावन्ममेत्यसदवग्रह आर्तिमूलं ।
    यावन्न तेऽङ्‌घ्रिमभयं प्रवृणीत लोकः ॥ ६ ॥

हे विश्वकल्याणमय ! मैं आपका उपासक हूँ, आपने मेरे हितके लिये ही मुझे ध्यानमें अपना यह रूप दिखलाया है। जो पापात्मा विषयासक्त जीव हैं, वे ही इसका अनादर करते हैं। मैं तो आपको इसी रूपमें बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥ मेरे स्वामी ! जो लोग वेदरूप वायुसे लायी हुई आपके चरणरूप कमलकोश की गन्ध को अपने कर्णपुटों से ग्रहण करते हैं, उन अपने भक्तजनोंके हृदय-कमल से आप कभी दूर नहीं होते; क्योंकि वे पराभक्तिरूप डोरी से आपके पादपद्मों को बाँध लेते हैं ॥ ५ ॥ जबतक पुरुष आपके अभयप्रद चरणारविन्दों का आश्रय नहीं लेता, तभी तक उसे धन, घर और बन्धुजनों के कारण प्राप्त होनेवाले भय, शोक, लालसा, दीनता और अत्यन्त लोभ आदि सताते हैं और तभीतक उसे मैं-मेरेपनका दुराग्रह रहता है, जो दु:खका एकमात्र कारण है ॥ ६ ॥   

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शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

ज्ञातोऽसि मेऽद्य सुचिरान्ननु देहभाजां
    न ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम् ।
नान्यत्त्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं
    मायागुणव्यतिकराद् यदुरुर्विभासि ॥ १ ॥
रूपं यदेतदवबोधरसोदयेन ।
    शश्वन्निवृत्ततमसः सदनुग्रहाय ।
आदौ गृहीतमवतारशतैकबीजं ।
    यन्नाभिपद्मभवनाद् अहमाविरासम् ॥ २ ॥
नातः परं परम यद्भ्वतः स्वरूपम् ।
    आनन्दमात्रमविकल्पमविद्धवर्चः ।
पश्यामि विश्वसृजमेकमविश्वमात्मन् ।
    भूतेन्द्रियात्मकमदस्त उपाश्रितोऽस्मि ॥ ३ ॥

ब्रह्माजीने कहा—प्रभो ! आज बहुत समय के बाद मैं आपको जान सका हूँ। अहो ! कैसे दुर्भाग्य की बात है कि देहधारी जीव आपके स्वरूप को नहीं जान पाते। भगवन् ! आपके सिवा और कोई वस्तु नहीं है। जो वस्तु प्रतीत होती है, वह भी स्वरूपत: सत्य नहीं है, क्योंकि मायाके गुणोंके क्षुभित होनेके कारण केवल आप ही अनेकों रूपोंमें प्रतीत हो रहे हैं ॥ १ ॥ देव ! आपकी चित्- शक्ति के प्रकाशित रहनेके कारण अज्ञान आपसे सदा ही दूर रहता है। आपका यह रूप, जिसके नाभि-कमलसे मैं प्रकट हुआ हूँ, सैकड़ों अवतारोंका मूल कारण है। इसे आपने सत्पुरुषोंपर कृपा करनेके लिये ही पहले-पहल प्रकट किया है ॥ २ ॥ परमात्मन् ! आपका जो आनन्दमात्र, भेदरहित, अखण्ड तेजोमयस्वरूप है, उसे मैं इससे भिन्न नहीं समझता। इसलिये मैंने विश्वकी रचना करनेवाले होनेपर भी विश्वातीत आपके इस अद्वितीय रूपकी ही शरण ली है। यही सम्पूर्ण भूत और इन्द्रियोंका भी अधिष्ठान है ॥ ३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

ब्रह्माजीकी उत्पत्ति

चराचरौको भगवन् महीध्र
     महीन्द्रबन्धुं सलिलोपगूढम् ।
किरीटसाहस्रहिरण्यश्रृङ्गं
     आविर्भवत्कौस्तुभरत्न गर्भम् ॥ ३० ॥
निवीतमाम्नायमधुव्रतश्रिया
     स्वकीर्तिमय्या वनमालया हरिम् ।
सूर्येन्दुवाय्वग्न्यगमं त्रिधामभिः
     परिक्रमत् प्राधनिकैर्दुरासदम् ॥ ३१ ॥
तर्ह्येव तन्नाभिसरःसरोजं
     आत्मानमम्भः श्वसनं वियच्च ।
ददर्श देवो जगतो विधाता
     नातः परं लोकविसर्गदृष्टिः ॥ ३२ ॥
स कर्मबीजं रजसोपरक्तः
     प्रजाः सिसृक्षन्नियदेव दृष्ट्वा ।
अस्तौद् विसर्गाभिमुखस्तमीड्यं
     अव्यक्तवर्त्मन्यभिवेशितात्मा ॥ ३३ ॥

वे नागराज अनन्तके बन्धु श्रीनारायण ऐसे जान पड़ते हैं, मानो कोई जलसे घिरे हुए पर्वतराज ही हों। पर्वतपर जैसे अनेकों जीव रहते हैं, उसी प्रकार वे सम्पूर्ण चराचरके आश्रय हैं; शेषजीके फणोंपर जो सहस्रों मुकुट हैं वे ही मानो उस पर्वतके सुवर्णमण्डित शिखर हैं तथा वक्ष:स्थलमें विराजमान कौस्तुभमणि उसके गर्भसे प्रकट हुआ रत्न है ॥ ३० ॥ प्रभुके गलेमें वेदरूप भौंरोंसे गुञ्जायमान अपनी कीर्तिमयी वनमाला विराज रही है; सूर्य, चन्द्र, वायु और अग्नि आदि देवताओं की भी आप तक पहुँच नहीं है तथा त्रिभुवन में बेरोक- टोक विचरण करनेवाले सुदर्शनचक्रादि आयुध भी प्रभु के आसपास ही घूमते रहते हैं, उनके लिये भी आप अत्यन्त दुर्लभ हैं ॥ ३१ ॥
तब विश्वरचना की इच्छावाले लोकविधाता ब्रह्माजीने भगवान्‌के नाभिसरोवरसे प्रकट हुआ वह कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर—केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, इनके सिवा और कुछ उन्हें दिखायी न दिया ॥ ३२ ॥ रजोगुणसे व्याप्त ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करना चाहते थे। जब उन्होंने सृष्टिके कारणरूप केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, तब लोकरचनाके लिये उत्सुक होनेके कारण वे अचिन्त्यगति श्रीहरिमें चित्त लगाकर उन परमपूजनीय प्रभुकी स्तुति करने लगे ॥३३॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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बुधवार, 18 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

ब्रह्माजीकी उत्पत्ति

पुंसां स्वकामाय विविक्तमार्गैः
     अभ्यर्चतां कामदुघाङ्‌घ्रिपद्मम् ।
प्रदर्शयन्तं कृपया नखेन्दु
     मयूखभिन्नाङ्गुलिचारुपत्रम् ॥ २६ ॥
मुखेन लोकार्तिहरस्मितेन
     परिस्फुरत् कुण्डलमण्डितेन ।
शोणायितेनाधरबिम्बभासा
     प्रत्यर्हयन्तं सुनसेन सुभ्र्वा ॥ २७ ॥
कदम्बकिञ्जल्कपिशङ्गवाससा
     स्वलङ्कृतं मेखलया नितम्बे ।
हारेण चानन्तधनेन वत्स
     श्रीवत्सवक्षःस्थलवल्लभेन ॥ २८ ॥
परार्ध्यकेयूरमणिप्रवेक
     पर्यस्तदोर्दण्डसहस्रशाखम् ।
अव्यक्तमूलं भुवनाङ्‌घ्रिपेन्द्र
     महीन्द्रभोगैरधिवीतवल्शम् ॥ २९ ॥

अपनी-अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिये भिन्न-भिन्न मार्गों से पूजा करनेवाले भक्तजनों को (पुरुषोत्तम भगवान्‌) कृपापूर्वक अपने भक्तवाञ्छाकल्पतरु चरणकमलोंका दर्शन दे रहे हैं, जिनके सुन्दर अंगुलिदल नखचन्द्र की चन्द्रिका से अलग-अलग स्पष्ट चमकते रहते हैं ॥ २६ ॥ सुन्दर नासिका, अनुग्रहवर्षी भौंहें, कानोंमें झिलमिलाते हुए कुण्डलोंकी शोभा, बिम्बाफलके समान लाल-लाल अधरोंकी कान्ति एवं लोकार्तिहारी मुसकानसे युक्त मुखार- विन्दके द्वारा वे अपने उपासकोंका सम्मान—अभिनन्दन कर रहे हैं ॥ २७ ॥ वत्स ! उनके नितम्बदेश में कदम्बकुसुम की केसर के समान पीतवस्त्र और सुवर्णमयी मेखला सुशोभित है तथा वक्ष:स्थल में अमूल्य हार और सुनहरी रेखावाले श्रीवत्सचिह्न की अपूर्व शोभा हो रही है ॥ २८ ॥ वे अव्यक्तमूल चन्दनवृक्ष के समान हैं। महामूल्य केयूर और उत्तम-उत्तम मणियोंसे सुशोभित उनके विशाल भुजदण्ड ही मानो उसकी सहस्रों शाखाएँ हैं और चन्दन के वृक्षों में जैसे बड़े-बड़े साँप लिपटे रहते हैं, उसी प्रकार उनके कंधों को शेषजी के फणोंने लपेट रखा है ॥ २९ ॥ 

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मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ब्रह्माजीकी उत्पत्ति

कालेन सोऽजः पुरुषायुषाभि
     प्रवृत्तयोगेन विरूढबोधः ।
स्वयं तदन्तर्हृदयेऽवभातं
     अपश्यतापश्यत यन्न पूर्वम् ॥ २२ ॥
मृणालगौरायतशेषभोग
     पर्यङ्क एकं पुरुषं शयानम् ।
फणातपत्रायुतमूर्धरत्नु
     द्युभिर्हतध्वान्तयुगान्ततोये ॥ २३ ॥
प्रेक्षां क्षिपन्तं हरितोपलाद्रेः
     सन्ध्याभ्रनीवेरु रुरुक्ममूर्ध्नः ।
रत्नो्दधारौषधिसौमनस्य
     वनस्रजो वेणुभुजाङ्‌घ्रिपाङ्घ्रेः ॥ २४ ॥
आयामतो विस्तरतः स्वमान
     देहेन लोकत्रयसङ्ग्रहेण ।
विचित्रदिव्याभरणांशुकानां
     कृतश्रियापाश्रितवेषदेहम् ॥ २५ ॥

इस प्रकार पुरुषकी पूर्ण आयुके बराबर कालतक (अर्थात् दिव्य सौ वर्षतक) अच्छी तरह योगाभ्यास करनेपर ब्रह्माजीको ज्ञान प्राप्त हुआ; तब उन्होंने अपने उस अधिष्ठानको, जिसे वे पहले खोजनेपर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अन्त:करणमें प्रकाशित होते देखा ॥ २२ ॥ उन्होंने देखा कि उस प्रलयकालीन जलमें शेषजीके कमलनालसदृश गौर और विशाल विग्रहकी शय्यापर पुरुषोत्तम भगवान्‌ अकेले ही लेटे हुए हैं। शेषजीके दस हजार फण छत्रके समान फैले हुए हैं। उनके मस्तकोंपर किरीट शोभायमान हैं, उनमें जो मणियाँ जड़ी हुई हैं, उनकी कान्तिसे चारों ओर का अन्धकार दूर हो गया है ॥ २३ ॥ वे अपने श्याम शरीर की आभा से मरकतमणि के पर्वत की शोभा को लज्जित कर रहे हैं। उनकी कमर का पीतपट पर्वत के प्रान्त देश में छाये हुए सायंकाल के पीले-पीले चमकीले मेघों की आभा को मलिन कर रहा है, सिर पर सुशोभित सुवर्णमुकुट सुवर्णमय शिखरों का मान मर्दन कर रहा है। उनकी वनमाला पर्वत के रत्न, जलप्रपात, ओषधि और पुष्पों की शोभा को परास्त कर रही है तथा उनके भुजदण्ड वेणुदण्ड का और चरण वृक्षों का तिरस्कार करते हैं ॥ २४ ॥ उनका वह श्रीविग्रह अपने परिमाण से लंबाई-चौड़ाई में त्रिलोकी का संग्रह किये हुए है। वह अपनी शोभा से विचित्र एवं दिव्य वस्त्राभूषणों की शोभा को सुशोभित करनेवाला होने पर भी पीताम्बर आदि अपनी वेष-भूषा से सुसज्जित है ॥ २५ ॥ 

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सोमवार, 16 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ब्रह्माजीकी उत्पत्ति

क एष योऽसौ अहमब्जपृष्ठ
     एतत्कुतो वाब्जमनन्यदप्सु ।
अस्ति ह्यधस्तादिह किञ्चनैतद्
     अधिष्ठितं यत्र सता नु भाव्यम् ॥ १८ ॥
स इत्थमुद्वीक्ष्य तदब्जनाल
     नाडीभिरन्तर्जलमाविवेश ।
नार्वाग्गतस्तत् खरनालनाल
     नाभिं विचिन्वन् तदविन्दताजः ॥ १९ ॥
तमस्यपारे विदुरात्मसर्गं
     विचिन्वतोऽभूत् सुमहांस्त्रिणेमिः ।
यो देहभाजां भयमीरयाणः
     परिक्षिणोत्यायुरजस्य हेतिः ॥ २० ॥
ततो निवृत्तोऽप्रतिलब्धकामः
     स्वधिष्ण्यमासाद्य पुनः स देवः ।
शनैर्जितश्वासनिवृत्तचित्तो
     न्यषीददारूढसमाधियोगः ॥ २१ ॥

वे (आदिदेव ब्रह्माजी) सोचने लगे, ‘इस कमल की कर्णिका पर बैठा हुआ मैं कौन हूँ ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधार के जल में कहाँ से उत्पन्न हो गया ? इसके नीचे अवश्य कोई ऐसी वस्तु होनी चाहिये, जिसके आधारपर यह स्थित है’ ॥ १८ ॥ ऐसा सोचकर वे उस कमलकी नालके सूक्ष्म छिद्रोंमें होकर उस जलमें घुसे। किन्तु उस नालके आधारको खोजते-खोजते नाभिदेशके समीप पहुँच जानेपर भी वे उसे पा न सके ॥ १९ ॥ विदुरजी ! उस अपार अन्धकारमें अपने उत्पत्ति-स्थानको खोजते-खोजते ब्रह्माजीको बहुत काल बीत गया। यह काल ही भगवान्‌ का चक्र है, जो प्राणियोंको भयभीत (करता हुआ उनकी आयुको क्षीण) करता रहता है ॥ २० ॥ अन्त में विफलमनोरथ हो वे वहाँसे लौट आये और पुन: अपने आधारभूत कमलपर बैठकर धीरे-धीरे प्राणवायुको जीतकर चित्तको नि:सङ्कल्प किया और समाधिमें स्थित हो गये ॥ २१ ॥ 

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रविवार, 15 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ब्रह्माजीकी उत्पत्ति

स पद्मकोशः सहसोदतिष्ठत्
     कालेन कर्मप्रतिबोधनेन ।
स्वरोचिषा तत्सलिलं विशालं
     विद्योतयन्नर्क इवात्मयोनिः ॥ १४ ॥
तल्लोकपद्मं स उ एव विष्णुः
     प्रावीविशत्सर्वगुणावभासम् ।
तस्मिन् स्वयं वेदमयो विधाता
     स्वयंभुवं यं स्म वदन्ति सोऽभूत् ॥ १५ ॥
तस्यां स चाम्भोरुहकर्णिकायां
     अवस्थितो लोकमपश्यमानः ।
परिक्रमन् व्योम्नि विवृत्तनेत्रः
     चत्वारि लेभेऽनुदिशं मुखानि ॥ १६ ॥
तस्माद्युगान्तश्वसनावघूर्ण
     जलोर्मिचक्रात् सलिलाद्विरूढम् ।
उपाश्रितः कञ्जमु लोकतत्त्वं
     नात्मानमद्धाविददादिदेवः ॥ १७ ॥

कर्मशक्ति को जाग्रत् करने वाले काल के द्वारा विष्णु भगवान्‌ की नाभि से प्रकट हुआ वह सूक्ष्मतत्त्व कमलकोश के रूप में सहसा ऊपर उठा और उसने सूर्य के समान अपने तेज से उस अपार जलराशि को देदीप्यमान कर दिया ॥ १४ ॥ सम्पूर्ण गुणोंको प्रकाशित करनेवाले उस सर्वलोकमय कमल में वे विष्णुभगवान्‌ ही अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हो गये। तब उसमेंसे बिना पढ़ाये ही स्वयं सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाले साक्षात् वेदमूर्ति श्रीब्रह्माजी प्रकट हुए, जिन्हें लोग स्वयम्भू कहते हैं ॥ १५ ॥ उस कमलकी कर्णिका (गद्दी) में बैठे हुए ब्रह्माजीको जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया, तब वे आँखें फाडक़र आकाशमें चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे, इससे उनके चारों दिशाओंमें चार मुख हो गये ॥ १६ ॥ उस समय प्रलयकालीन पवनके थपेड़ोंसे उछलती हुई जलकी तरङ्गमालाओं के कारण उस जलराशिसे ऊपर उठे हुए कमलपर विराजमान आदिदेव ब्रह्माजी को अपना तथा उस लोकतत्त्वरूप कमलका कुछ भी रहस्य न जान पड़ा ॥ १७ ॥

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शनिवार, 14 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ब्रह्माजीकी उत्पत्ति

उदाप्लुतं विश्वमिदं तदासीत्
     यन्निद्रयामीलितदृङ् न्यमीलयत् ।
अहीन्द्रतल्पेऽधिशयान एकः
     कृतक्षणः स्वात्मरतौ निरीहः ॥ १० ॥
सोऽन्तः शरीरेऽर्पितभूतसूक्ष्मः
     कालात्मिकां शक्तिमुदीरयाणः ।
उवास तस्मिन् सलिले पदे स्वे
     यथानलो दारुणि रुद्धवीर्यः ॥ ११ ॥
चतुर्युगानां च सहस्रमप्सु
     स्वपन् स्वयोदीरितया स्वशक्त्या ।
कालाख्ययाऽऽसादितकर्मतन्त्रो
     लोकानपीतान्ददृशे स्वदेहे ॥ १२ ॥
तस्यार्थसूक्ष्माभिनिविष्टदृष्टेः
     अन्तर्गतोऽर्थो रजसा तनीयान् ।
गुणेन कालानुगतेन विद्धः
     सूष्यंस्तदाभिद्यत नाभिदेशात् ॥ १३ ॥

(श्रीमैत्रेयजी कहते हैं) सृष्टिके पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व जलमें डूबा हुआ था। उस समय एकमात्र श्रीनारायणदेव शेष- शय्यापर पौढ़े हुए थे। वे अपनी ज्ञानशक्तिको अक्षुण्ण रखते हुए ही, योगनिद्राका आश्रय ले, अपने नेत्र मूँदे हुए थे। सृष्टिकर्मसे अवकाश लेकर आत्मानन्दमें मग्न थे। उनमें किसी भी क्रियाका उन्मेष नहीं था ॥ १० ॥ जिस प्रकार अग्नि अपनी दाहिका आदि शक्तियोंको छिपाये हुए काष्ठमें व्याप्त रहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान्‌ ने सम्पूर्ण प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों को अपने शरीर में लीन करके अपने आधारभूत उस जलमें शयन किया, उन्हें सृष्टिकाल आनेपर पुन: जगानेके लिये केवल कालशक्तिको जाग्रत् रखा ॥ ११ ॥ इस प्रकार अपनी स्वरूपभूता चिच्छक्तिके साथ एक सहस्र चतुर्युगपर्यन्त जलमें शयन करनेके अनन्तर जब उन्हींके द्वारा नियुक्त उनकी कालशक्तिने उन्हें जीवोंके कर्मोंकी प्रवृत्तिके लिये प्रेरित किया, तब उन्होंने अपने शरीरमें लीन हुए अनन्त लोक देखे ॥ १२ ॥ जिस समय भगवान्‌ की दृष्टि अपने में निहित लिङ्ग शरीरादि सूक्ष्मतत्त्व पर पड़ी, तब वह कालाश्रित रजोगुण से क्षुभित होकर सृष्टिरचना के निमित्त उनके नाभिदेश से बाहर निकला ॥ १३ ॥ 

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शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ब्रह्माजीकी उत्पत्ति

स्वर्धुन्युदार्द्रैः स्वजटाकलापैः
     उपस्पृशन्तश्चरणोपधानम् ।
पद्मं यदर्चन्त्यहिराजकन्याः
     सप्रेम नानाबलिभिर्वरार्थाः ॥ ५ ॥
मुहुर्गृणन्तो वचसानुराग
     स्खलत्पदेनास्य कृतानि तज्ज्ञाः ।
किरीटसाहस्रमणिप्रवेक
     प्रद्योतितोद्दामफणासहस्रम् ॥ ६ ॥
प्रोक्तं किलैतद्भतगवत्तमेन
     निवृत्तिधर्माभिरताय तेन ।
सनत्कुमाराय स चाह पृष्टः
     साङ्ख्यायनायाङ्ग धृतव्रताय ॥ ७ ॥
साङ्ख्यायनः पारमहंस्यमुख्यो
     विवक्षमाणो भगवद्विभूतीः ।
जगाद सोऽस्मद्गुारवेऽन्विताय
     पराशरायाथ बृहस्पतेश्च ॥ ८ ॥
प्रोवाच मह्यं स दयालुरुक्तो
     मुनिः पुलस्त्येन पुराणमाद्यम् ।
सोऽहं तवैतत्कथयामि वत्स
     श्रद्धालवे नित्यमनुव्रताय ॥ ९ ॥

सनत्कुमार आदि ऋषियों ने मन्दाकिनी के जल से भीगे अपने जटासमूह से उनके (आदिदेव भगवान्‌ सङ्कर्षण के) चरणों की चौकी के रूप में स्थित कमल का स्पर्श किया, जिसकी नागराजकुमारियाँ अभिलषित वर की प्राप्ति के लिये प्रेमपूर्वक अनेकों उपहार-सामग्रियों से पूजा करती हैं ॥ ५ ॥
सनत्कुमारादि उनकी लीलाके मर्मज्ञ हैं। उन्होंने बार-बार प्रेम-गद्गद वाणी से उनकी लीला का गान किया। उस समय शेषभगवान्‌ के उठे हुए सहस्रों फण किरीटों की सहस्र-सहस्र श्रेष्ठ मणियों की छिटकती हुई रश्मियों से जगमगा रहे थे ॥ ६ ॥ भगवान्‌ सङ्कर्षण ने निवृत्तिपरायण सनत्कुमार जी को यह भागवत सुनाया था—ऐसा प्रसिद्ध है। सनत्कुमार जी ने फिर इसे परम व्रतशील सांख्यायन मुनि को, उनके प्रश्न करनेपर सुनाया ॥ ७ ॥ परमहंसों में प्रधान श्रीसांख्यायन जी को जब भगवान्‌ की विभूतियों का वर्णन करने की इच्छा हुई, तब उन्होंने इसे अपने अनुगत शिष्य, हमारे गुरु श्रीपराशरजी को और बृहस्पतिजी को सुनाया ॥ ८ ॥ इसके पश्चात् परम दयालु पराशरजी ने पुलस्त्य मुनि के कहने से वह आदिपुराण मुझसे कहा। वत्स ! श्रद्धालु और सदा अनुगत देखकर अब वही पुराण मैं तुम्हें सुनाता हूँ ॥ ९ ॥

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गुरुवार, 12 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ब्रह्माजीकी उत्पत्ति

मैत्रेय उवाच -
सत्सेवनीयो बत पूरुवंशो
     यल्लोकपालो भगवत्प्रधानः ।
बभूविथेहाजितकीर्तिमालां
     पदे पदे नूतनयस्यभीक्ष्णम् ॥ १ ॥
सोऽहं नृणां क्षुल्लसुखाय दुःखं
     महद्ग्तानां विरमाय तस्य ।
प्रवर्तये भागवतं पुराणं
     यदाह साक्षात् भगवान् ऋषिभ्यः ॥ २ ॥
आसीनमुर्व्यां भगवन्तमाद्यं
     सङ्कर्षणं देवमकुण्ठसत्त्वम् ।
विवित्सवस्तत्त्वमतः परस्य
     कुमारमुख्या मुनयोऽन्वपृच्छन् ॥ ३ ॥
स्वमेव धिष्ण्यं बहु मानयन्तं
     यद् वासुदेवाभिधमामनन्ति ।
प्रत्यग्धृताक्षाम्बुजकोशमीषद्
     उन्मीलयन्तं विबुधोदयाय ॥ ४ ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! आप भगवद्भक्तों में प्रधान लोकपाल यमराज ही हैं; आपके पूरुवंश में जन्म लेने के कारण वह वंश साधुपुरुषों के लिये भी सेव्य हो गया है। धन्य हैं ! आप निरन्तर पद-पदपर श्रीहरिकी कीर्तिमयी मालाको नित्य नूतन बना रहे हैं ॥ १ ॥ अब मैं, क्षुद्र विषय-सुख की कामना से महान् दु:ख को मोल लेने वाले पुरुषों की दु:खनिवृत्ति के लिये, श्रीमद्भागवतपुराण प्रारम्भ करता हूँ—जिसे स्वयं श्रीसङ्कर्षण भगवान्‌ ने सनकादि ऋषियों को सुनाया था ॥ २ ॥ 
अखण्ड ज्ञानसम्पन्न आदिदेव भगवान्‌ सङ्कर्षण पाताललोक में विराजमान थे। सनत्कुमार आदि ऋषियों ने परम पुरुषोत्तम ब्रह्म का तत्त्व जानने के लिये उनसे प्रश्न किया ॥ ३ ॥ उस समय शेषजी अपने आश्रयस्वरूप उन परमात्मा की मानसिक पूजा कर रहे थे। जिनका वेद वासुदेव के नाम से निरूपण करते हैं। उनके कमलकोश-सरीखे नेत्र बन्द थे। प्रश्न करने पर सनत्कुमारादि ज्ञानीजनों के आनन्द के लिये उन्होंने अधखुले नेत्रों से देखा ॥ ४ ॥

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बुधवार, 11 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

विदुरजीके प्रश्न 

पुरुषस्य च संस्थानं स्वरूपं वा परस्य च ।
ज्ञानं च नैगमं यत्तद् गुरुशिष्यप्रयोजनम् ॥ ३८ ॥
निमित्तानि च तस्येह प्रोक्तान्यनघसूरिभिः ।
स्वतो ज्ञानं कुतः पुंसां भक्तिर्वैराग्यमेव वा ॥ ३९ ॥
एतान्मे पृच्छतः प्रश्नान् हरेः कर्मविवित्सया ।
ब्रूहि मेऽज्ञस्य मित्रत्वात् अजया नष्टचक्षुषः ॥ ४० ॥
सर्वे वेदाश्च यज्ञाश्च तपो दानानि चानघ ।
जीवाभयप्रदानस्य न कुर्वीरन् कलामपि ॥ ४१ ॥

श्रीशुक उवाच –

स इत्थं आपृष्टपुराणकल्पः
     कुरुप्रधानेन मुनिप्रधानः ।
प्रवृद्धहर्षो भगवत्कथायां
     सञ्चोदितस्तं प्रहसन्निवाह ॥ ४२ ॥

जीवका तत्त्व, परमेश्वरका स्वरूप, उपनिषत्-प्रतिपादित ज्ञान तथा गुरु और शिष्यका पारस्परिक प्रयोजन क्या है ? ॥ ३८ ॥ पवित्रात्मन् विद्वानोंने उस ज्ञानकी प्राप्तिके क्या-क्या उपाय बतलाये हैं ? क्योंकि मनुष्योंको ज्ञान, भक्ति अथवा वैराग्यकी प्राप्ति अपने-आप तो हो नहीं सकती ॥ ३९ ॥ ब्रह्मन् ! माया-मोहके कारण मेरी विचार-दृष्टि नष्ट हो गयी है। मैं अज्ञ हूँ, आप मेरे परम सुहृद् हैं; अत: श्रीहरिलीलाका ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे मैंने जो प्रश्र किये हैं, उनका उत्तर मुझे दीजिये ॥ ४० ॥ पुण्यमय मैत्रेयजी ! भगवत्तत्त्वके उपदेशद्वारा जीवको जन्म-मृत्युसे छुड़ाकर उसे अभय कर देनेमें जो पुण्य होता है, समस्त वेदोंके अध्ययन, यज्ञ, तपस्या और दानादिसे होनेवाला पुण्य उस पुण्यके सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं हो सकता ॥ ४१ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! जब कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने मुनिवर मैत्रेयजी से इस प्रकार पुराणविषयक प्रश्र किये, तब भगवच्चर्चा के लिये प्रेरित किये जानेके कारण वे बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराकर उनसे कहने लगे ॥ ४२ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 10 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

विदुरजीके प्रश्न 

धर्मार्थकाममोक्षाणां निमित्तान्यविरोधतः ।
वार्ताया दण्डनीतेश्च श्रुतस्य च विधिं पृथक् ॥ ३२ ॥
श्राद्धस्य च विधिं ब्रह्मन् पितॄणां सर्गमेव च ।
ग्रहनक्षत्रताराणां कालावयवसंस्थितिम् ॥ ३३ ॥
दानस्य तपसो वापि यच्चेष्टापूर्तयोः फलम् ।
प्रवासस्थस्य यो धर्मो यश्च पुंस उतापदि ॥ ३४ ॥
येन वा भगवान् तुस्तुष्येद् धर्मयोनिर्जनार्दनः ।
सम्प्रसीदति वा येषां एतत् आख्याहि मेऽनघ ॥ ३५ ॥
अनुव्रतानां शिष्याणां पुत्राणां च द्विजोत्तम ।
अनापृष्टमपि ब्रूयुः गुरवो दीनवत्सलाः ॥ ३६ ॥
तत्त्वानां भगवन् तेषां कतिधा प्रतिसङ्क्रमः ।
तत्रेमं क उपासीरन् क उ स्विदनुशेरते ॥ ३७ ॥

ब्रह्मन् ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिके परस्पर अविरोधी साधनोंका, वाणिज्य, दण्डनीति और शास्त्रश्रवणकी विधियोंका, श्राद्धकी विधिका, पितृगणोंकी सृष्टिका तथा कालचक्रमें ग्रह, नक्षत्र और तारागणकी स्थितिका भी अलग-अलग वर्णन कीजिये ॥ ३२-३३ ॥ दान, तप तथा इष्ट और पूर्त कर्मों का क्या फल है ? प्रवास और आपत्तिके समय मनुष्यका क्या धर्म होता है ? ॥ ३४ ॥ निष्पाप मैत्रेयजी ! धर्मके मूल कारण श्रीजनार्दन भगवान्‌ किस आचरणसे सन्तुष्ट होते हैं और किनपर अनुग्रह करते हैं, यह वर्णन कीजिये ॥ ३५ ॥ द्विजवर ! दीनवत्सल गुरुजन अपने अनुगत शिष्यों और पुत्रोंको बिना पूछे भी उनके हितकी बात बतला दिया करते हैं ॥ ३६ ॥ भगवन् ! उन महदादि तत्त्वोंका प्रलय कितने प्रकारका है ? तथा जब भगवान्‌ योगनिद्रामें शयन करते हैं, तब उनमेंसे कौन-कौन तत्त्व उनकी सेवा करते हैं और कौन उनमें लीन हो जाते हैं ? ॥ ३७ ॥


सोमवार, 9 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

विदुरजीके प्रश्न 

एतेषामपि वंशांश्च वंशानुचरितानि च ।
उपर्यधश्च ये लोका भूमेर्मित्रात्मजासते ॥ २६ ॥
तेषां संस्थां प्रमाणं च भूर्लोकस्य च वर्णय ।
तिर्यङ्‌मानुषदेवानां सरीसृप पतत्त्रिणाम् ।
वद नः सर्गसंव्यूहं गार्भस्वेदद्विजोद्‌भिदाम् ॥ २७॥
गुणावतारैर्विश्वस्य सर्गस्थित्यप्ययाश्रयम् ।
सृजतः श्रीनिवासस्य व्याचक्ष्वोदारविक्रमम् ॥ २८ ॥
वर्णाश्रमविभागांश्च रूपशीलस्वभावतः ।
ऋषीणां जन्मकर्माणि वेदस्य च विकर्षणम् ॥ २९ ॥
यज्ञस्य च वितानानि योगस्य च पथः प्रभो ।
नैष्कर्म्यस्य च साङ्ख्यस्य तंत्रं वा भगवत्स्मृतम् ॥ ३० ॥
पाषण्डपथवैषम्यं प्रतिलोमनिवेशनम् ।
जीवस्य गतयो याश्च यावतीर्गुणकर्मजाः ॥ ३१ ॥

(विदुरजी कहरहे हैं) मैत्रेयजी ! उन मनुओं के वंश और वंशधर राजाओं के चरित्रों का, पृथ्वी के ऊपर और नीचे के लोकों तथा भूर्लोक के विस्तार और स्थिति का भी वर्णन कीजिये तथा यह भी बताइये कि तिर्यक्, मनुष्य, देवता, सरीसृप (सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु) और पक्षी तथा जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्ज—ये चार प्रकारके प्राणी किस प्रकार उत्पन्न हुए ॥ २६-२७ ॥ श्रीहरिने सृष्टि करते समय जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहारके लिये अपने गुणावतार ब्रह्मा, विष्णु और महादेवरूपसे जो कल्याणकारी लीलाएँ कीं, उनका भी वर्णन कीजिये ॥ २८ ॥ वेष, आचरण और स्वभावके अनुसार वर्णाश्रमका विभाग, ऋषियोंके जन्म- कर्मादि, वेदोंका विभाग, यज्ञोंका विस्तार, योगका मार्ग, ज्ञानमार्ग और उसका साधन सांख्यमार्ग तथा भगवान्‌ के कहे हुए नारदपाञ्चरात्र आदि तन्त्रशास्त्र, विभिन्न पाखण्डमार्गों के प्रचार से होनेवाली विषमता, नीचवर्ण के पुरुष से उच्चवर्ण की स्त्रीमें  होनेवाली सन्तानों के प्रकार तथा भिन्न-भिन्न गुण और कर्मोंके  कारण जीव की जैसी और जितनी गतियाँ, होती हैं, वे सब हमें सुनाइये ॥ २९—३१ ॥

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रविवार, 8 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

विदुरजीके प्रश्न 

सृष्ट्वाग्रे महदादीनि सविकाराणि अनुक्रमात् ।
तेभ्यो विराजं उद्‌धृत्य तमनु प्राविशद्विभुः ॥ २१ ॥
यमाहुराद्यं पुरुषं सहस्राङ्घ्र्यूरुबाहुकम् ।
यत्र विश्व इमे लोकाः सविकाशं समासते ॥ २२ ॥
यस्मिन् दशविधः प्राणः सेन्द्रियार्थेन्द्रियः त्रिवृत् ।
त्वयेरितो यतो वर्णाः तद्‌विभूतीर्वदस्व नः ॥ २३ ॥
यत्र पुत्रैश्च पौत्रैश्च नप्तृभिः सह गोत्रजैः ।
प्रजा विचित्राकृतय आसन्याभिरिदं ततम् ॥ २४ ॥
प्रजापतीनां स पतिः चकॢपे कान् प्रजापतीन् ।
सर्गांश्चैवानुसर्गांश्च मनून् मन्वन्तराधिपान् ॥ २५ ॥

(विदुरजी कहते हैं) भगवन् ! आपने कहा कि सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान्‌ ने क्रमश: महदादि तत्त्व और उनके विकारों को रचकर फिर उनके अंशों से विराट्को  उत्पन्न किया और इसके पश्चात् वे स्वयं उसमें प्रविष्ट हो गये ॥ २१ ॥ उन विराट्के हजारों पैर, जाँघें और बाँहें हैं; उन्हींको वेद आदिपुरुष कहते हैं; उन्हीं में ये सब लोक विस्तृतरूप से स्थित हैं ॥ २२ ॥ उन्हीं में इन्द्रिय, विषय और इन्द्रियाभिमानी देवताओंके सहित दस प्रकार के प्राणों का—जो इन्द्रियबल, मनोबल और शारीरिक बलरूप से तीन प्रकार के हैं— आपने वर्णन किया है और उन्हीं से ब्राह्मणादि वर्ण भी उत्पन्न हुए हैं। अब आप मुझे उनकी ब्रह्मादि विभूतियोंका वर्णन सुनाइये—जिनसे पुत्र, पौत्र, नाती और कुटुम्बियोंके सहित तरह-तरहकी प्रजा उत्पन्न हुई और उससे यह सारा ब्रह्माण्ड भर गया ॥ २३-२४ ॥ वह विराट् ब्रह्मादि प्रजापतियोंका भी प्रभु है। उसने किन-किन प्रजापतियोंको उत्पन्न किया तथा सर्ग, अनुसर्ग और मन्वन्तरोंके अधिपति मनुओंकी भी किस क्रमसे रचना की ? ॥ २५ ॥ 

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शनिवार, 7 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

विदुरजीके प्रश्न 

यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः ।
तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ॥ १७ ॥
अर्थाभावं विनिश्चित्य प्रतीतस्यापि नात्मनः ।
तां चापि युष्मच्चरण सेवयाहं पराणुदे ॥ १८ ॥
यत्सेवया भगवतः कूटस्थस्य मधुद्विषः ।
रतिरासो भवेत्तीव्रः पादयोर्व्यसनार्दनः ॥ १९ ॥
दुरापा ह्यल्पतपसः सेवा वैकुण्ठवर्त्मसु ।
यत्रोपगीयते नित्यं देवदेवो जनार्दनः ॥ २० ॥

इस संसार में दो ही प्रकार के लोग सुखी हैं—या तो जो अत्यन्त मूढ़ (अज्ञानग्रस्त) हैं, या जो बुद्धि आदि से अतीत श्रीभगवान्‌ को प्राप्त कर चुके हैं। बीच की श्रेणीके संशयापन्न लोग तो दु:ख ही भोगते रहते हैं ॥ १७ ॥ भगवन् ! आपकी कृपा से मुझे यह निश्चय हो गया कि ये अनात्म पदार्थ वस्तुत: हैं नहीं, केवल प्रतीत ही होते हैं । अब मैं आपके चरणों की सेवा के प्रभाव से उस प्रतीति को भी हटा दूँगा ॥ १८ ॥ इन श्रीचरणों की सेवा से नित्यसिद्ध भगवान्‌ श्रीमधुसूदन के चरणकमलों में  उत्कट प्रेम और आनन्द की वृद्धि होती है, जो आवागमन की यन्त्रणा का नाश कर देती है ॥ १९ ॥ महात्मा लोग भगवत्प्राप्ति के साक्षात् मार्ग ही होते हैं, उनके यहाँ सर्वदा देवदेव श्रीहरि के गुणों का गान होता रहता है; अल्पपुण्य पुरुष को उनकी सेवा का अवसर मिलना अत्यन्त कठिन है ॥ २० ॥

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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

विदुरजीके प्रश्र

यदेन्द्रियोपरामोऽथ द्रष्ट्रात्मनि परे हरौ ।
विलीयन्ते तदा क्लेशाः संसुप्तस्येव कृत्स्नशः ॥ १३ ॥
अशेषसङ्क्लेशशमं विधत्ते
     गुणानुवादश्रवणं मुरारेः ।
किं वा पुनस्तच्चरणारविन्द
     परागसेवारतिरात्मलब्धा ॥ १४ ॥

विदुर उवाच -

सञ्छिन्नः संशयो मह्यं तव सूक्तासिना विभो ।
उभयत्रापि भगवन् मनो मे सम्प्रधावति ॥ १५ ॥
साध्वेतद् व्याहृतं विद्वन् आत्ममायायनं हरेः ।
आभात्यपार्थं निर्मूलं विश्वमूलं न यद्ब हिः ॥ १६ ॥

जिस समय समस्त इन्द्रियाँ विषयों से हटकर साक्षी परमात्मा श्रीहरि में निश्चलभावसे स्थित हो जाती हैं, उस समय गाढ़ निद्रा में सोये हुए मनुष्य के समान जीव के राग-द्वेषादि सारे क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ॥ १३ ॥ श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन एवं श्रवण अशेष दु:खराशि को शान्त कर देता है; फिर यदि हमारे हृदय में उनके चरणकमल की रज के सेवन का प्रेम जग पड़े, तब तो कहना ही क्या है ? ॥ १४ ॥
विदुरजीने कहा—भगवन् ! आपके युक्तियुक्त वचनोंकी तलवारसे मेरे सन्देह छिन्न-भिन्न हो गये हैं। अब मेरा चित्त भगवान्‌ की स्वतन्त्रता और जीव की परतन्त्रता—दोनों ही विषयों में खूब प्रवेश कर रहा है ॥ १५ ॥ विद्वन् ! आपने यह बात बहुत ठीक कही कि जीवको जो क्लेशादिकी प्रतीति हो रही है, उसका आधार केवल भगवान्‌ की माया ही है। वह क्लेश मिथ्या एवं निर्मूल ही है; क्योंकि इस विश्वका मूल कारण ही मायाके अतिरिक्त और कुछ नहीं है ॥ १६ ॥ 

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गुरुवार, 5 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

विदुरजीके प्रश्न 

श्रीशुक उवाच –

स इत्थं चोदितः क्षत्त्रा तत्त्वजिज्ञासुना मुनिः ।
प्रत्याह भगवच्चित्तः स्मयन्निव गतस्मयः ॥ ८ ॥

मैत्रेय उवाच –

सेयं भगवतो माया यन्नयेन विरुध्यते ।
ईश्वरस्य विमुक्तस्य कार्पण्यमुत बन्धनम् ॥ ९ ॥
यदर्थेन विनामुष्य पुंस आत्मविपर्ययः ।
प्रतीयत उपद्रष्टुः स्वशिरश्छेदनादिकः ॥ १० ॥
यथा जले चन्द्रमसः कम्पादिस्तत्कृतो गुणः ।
दृश्यतेऽसन्नपि द्रष्टुः आत्मनोऽनात्मनो गुणः ॥ ११ ॥
स वै निवृत्तिधर्मेण वासुदेवानुकम्पया ।
भगवद्भिक्तियोगेन तिरोधत्ते शनैरिह ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—तत्त्वजिज्ञासु विदुरजी की यह प्रेरणा प्राप्तकर अहंकारहीन श्रीमैत्रेयजी ने भगवान्‌ का स्मरण करते हुए मुसकराते हुए कहा ॥ ८ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—जो आत्मा सब का स्वामी और सर्वथा मुक्तस्वरूप है, वही दीनता और बन्धन को प्राप्त हो—यह बात युक्तिविरुद्ध अवश्य है; किन्तु वस्तुत: यही तो भगवान्‌ की माया है ॥ ९ ॥ जिस प्रकार स्वप्न देखने वाले पुरुष को अपना सिर कटना आदि व्यापार न होने पर भी अज्ञान के कारण सत्यवत् भासते हैं, उसी प्रकार इस जीव को बन्धनादि न होते हुए भी अज्ञानवश भास रहे हैं ॥ १० ॥ यदि यह कहा जाय कि फिर ईश्वर में इनकी प्रतीति क्यों नहीं होती, तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जलमें होनेवाली कम्प आदि क्रिया जलमें दीखनेवाले चन्द्रमाके प्रतिबिम्बमें न होनेपर भी भासती है, आकाशस्थ चन्द्रमामें नहीं, उसी प्रकार देहाभिमानी जीवमें ही देहके मिथ्या धर्मोंकी प्रतीति होती है, परमात्मा में नहीं ॥ ११ ॥ 
निष्कामभावसे धर्मोंका आचरण करनेपर भगवत्कृपासे प्राप्त हुए भक्ति-योगके द्वारा यह प्रतीति धीरे-धीरे निवृत्त हो जाती है ॥ १२ ॥ 

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बुधवार, 4 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

विदुरजीके प्रश्न 

श्रीशुक उवाच -
एवं ब्रुवाणं मैत्रेयं द्वैपायनसुतो बुधः ।
प्रीणयन्निव भारत्या विदुरः प्रत्यभाषत ॥ १ ॥

विदुर उवाच ।
ब्रह्मन् कथं भगवतः चिन्मात्रस्याविकारिणः ।
लीलया चापि युज्येरन् निर्गुणस्य गुणाः क्रियाः ॥ २ ॥
क्रीडायां उद्यमोऽर्भस्य कामश्चिक्रीडिषान्यतः ।
स्वतस्तृप्तस्य च कथं निवृत्तस्य सदान्यतः ॥ ३ ॥
अस्राक्षीत् भगवान् विश्वं गुणमय्याऽऽत्ममायया ।
तया संस्थापयत्येतद् भूयः प्रत्यपिधास्यति ॥ ४ ॥
देशतः कालतो योऽसौ अवस्थातः स्वतोऽन्यतः ।
अविलुप्तावबोधात्मा स युज्येताजया कथम् ॥ ५ ॥
भगवानेक एवैष सर्वक्षेत्रेष्ववस्थितः ।
अमुष्य दुर्भगत्वं वा क्लेशो वा कर्मभिः कुतः ॥ ६ ॥
एतस्मिन्मे मनो विद्वन् खिद्यतेऽज्ञानसङ्कटे ।
तन्नः पराणुद विभो कश्मलं मानसं महत् ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—मैत्रेयजी का यह भाषण सुनकर बुद्धिमान् व्यासनन्दन विदुरजी ने उन्हें अपनी वाणी से प्रसन्न करते हुए कहा ॥ १ ॥
विदुरजी ने पूछा—ब्रह्मन् ! भगवान्‌ तो शुद्ध बोधस्वरूप, निर्विकार और निर्गुण हैं; उनके साथ लीला से भी गुण और क्रिया का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? ॥ २ ॥ बालक में तो कामना और दूसरों के साथ खेलने की इच्छा रहती है, इसी से वह खेलने के लिये प्रयत्न करता है; किन्तु भगवान्‌ तो स्वत: नित्यतृप्त—पूर्णकाम और सर्वदा असङ्ग हैं, वे क्रीडा के लिये भी क्यों सङ्कल्प करेंगे ॥ ३ ॥ भगवान्‌ ने अपनी गुणमयी माया से जगत् की रचना की है, उसीसे वे इसका पालन करते हैं और फिर उसी से संहार भी करेंगे ॥ ४ ॥ जिनके ज्ञान का देश, काल अथवा अवस्था से, अपने-आप या किसी दूसरे निमित्त से भी कभी लोप नहीं होता, उनका मायाके साथ किस प्रकार संयोग हो सकता है ॥ ५ ॥ एकमात्र ये भगवान्‌ ही समस्त क्षेत्रों में  उनके साक्षीरूप से स्थित हैं, फिर इन्हें दुर्भाग्य या किसी प्रकारके कर्मजनित क्लेशकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ॥ ६ ॥ भगवन् ! इस अज्ञानसङ्कट में पडक़र मेरा मन बड़ा खिन्न हो रहा है, आप मेरे मनके इस महान् मोह को कृपा करके दूर कीजिये ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०८)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

एतत् क्षत्तर्भगवतो दैवकर्मात्मरूपिणः ।
कः श्रद्दध्यादुपाकर्तुं योगमायाबलोदयम् ॥ ३५ ॥
तथापि कीर्तयाम्यङ्ग यथामति यथाश्रुतम् ।
कीर्तिं हरेः स्वां सत्कर्तुं गिरमन्याभिधासतीम् ॥ ३६ ॥
एकान्तलाभं वचसो नु पुंसां
     सुश्लोकमौलेर्गुणवादमाहुः ।
श्रुतेश्च विद्वद्‌भिरुपाकृतायां
     कथासुधायां उपसम्प्रयोगम् ॥ ३७ ॥
आत्मनोऽवसितो वत्स महिमा कविनाऽऽदिना ।
संवत्सरसहस्रान्ते धिया योगविपक्वया ॥ ३८ ॥
अतो भगवतो माया मायिनामपि मोहिनी ।
यत्स्वयं चात्मवर्त्मात्मा न वेद किमुतापरे ॥ ३९ ॥
यतोऽप्राप्य न्यवर्तन्त वाचश्च मनसा सह ।
अहं चान्य इमे देवाः तस्मै भगवते नमः ॥ ४० ॥

विदुरजी ! यह विराट् पुरुष काल, कर्म और स्वभावशक्तिसे युक्त भगवान्‌की योगमायाके प्रभावको प्रकट करनेवाला है। इसके स्वरूपका पूरा-पूरा वर्णन करनेका कौन साहस कर सकता है ॥ ३५ ॥ तथापि प्यारे विदुरजी ! अन्य व्यावहारिक चर्चाओंसे अपवित्र हुई अपनी वाणीको पवित्र करनेके लिये, जैसी मेरी बुद्धि है और जैसा मैंने गुरुमुखसे सुना है वैसा, श्रीहरिका सुयश वर्णन करता हूँ ॥ ३६ ॥ महापुरुषोंका मत है कि पुण्यश्लोकशिरोमणि श्रीहरिके गुणोंका गान करना ही मनुष्योंकी वाणीका तथा विद्वानोंके मुखसे भगवत्कथामृतका पान करना ही उनके कानोंका सबसे बड़ा लाभ है ॥ ३७ ॥ वत्स ! हम ही नहीं, आदिकवि श्रीब्रह्माजीने एक हजार दिव्य वर्षोंतक अपनी योगपरिपक्व बुद्धिसे विचार किया; तो भी क्या वे भगवान्‌की अमित महिमाका पार पा सके ? ॥ ३८ ॥ अत: भगवान्‌ की माया बड़े-बड़े मायावियोंको भी मोहित कर देनेवाली है। उसकी चक्कर में डालनेवाली चाल अनन्त है; अतएव स्वयं भगवान्‌ भी उसकी थाह नहीं लगा सकते, फिर दूसरों की तो बात ही क्या है ॥ ३९ ॥ जहाँ न पहुँचकर मनके सहित वाणी भी लौट आती है तथा जिनका पार पाने में अहंकार के अभिमानी रुद्र तथा अन्य इन्द्रियाधिष्ठाता देवता भी समर्थ नहीं हैं, उन श्रीभगवान्‌ को हम नमस्कार करते हैं ॥ ४० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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सोमवार, 2 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

मुखतोऽवर्तत ब्रह्म पुरुषस्य कुरूद्वह ।
यस्तून्मुखत्वाद् वर्णानां मुख्योऽभूद् ब्राह्मणो गुरुः ॥ ३० ॥
बाहुभ्योऽवर्तत क्षत्रं क्षत्रियस्तदनुव्रतः ।
यो जातस्त्रायते वर्णान् पौरुषः कण्टकक्षतात् ॥ ३१ ॥
विशोऽवर्तन्त तस्योर्वोः लोकवृत्तिकरीर्विभोः ।
वैश्यस्तदुद्भतवो वार्तां नृणां यः समवर्तयत् ॥ ३२ ॥
पद्भ्यां  भगवतो जज्ञे शुश्रूषा धर्मसिद्धये ।
तस्यां जातः पुरा शूद्रो यद्‌वृत्त्या तुष्यते हरिः ॥ ३३ ॥
एते वर्णाः स्वधर्मेण यजन्ति स्वगुरुं हरिम् ।
श्रद्धया आत्मविशुद्ध्यर्थं यज्जाताः सह वृत्तिभिः ॥ ३४ ॥

(श्रीमैत्रेयजी कहते हैं) विदुरजी ! वेद और ब्राह्मण भगवान्‌ के मुखसे प्रकट हुए। मुखसे प्रकट होने के कारण ही ब्राह्मण सब वर्णों में श्रेष्ठ और सब का गुरु है ॥ ३० ॥ उनकी भुजाओं से क्षत्रियवृत्ति और उसका अवलम्बन करनेवाला क्षत्रिय वर्ण उत्पन्न हुआ, जो विराट् भगवान्‌ का अंश होने के कारण जन्म लेकर सब वर्णों की चोर आदि के उपद्रवों से रक्षा करता है ॥ ३१ ॥ भगवान्‌ की दोनों जाँघों से सब लोगोंका निर्वाह करने वाली वैश्यवृत्ति उत्पन्न हुई और उन्हींसे वैश्य वर्ण का भी प्रादुर्भाव हुआ। यह वर्ण अपनी वृत्तिसे सब जीवोंकी जीविका चलाता है ॥ ३२ ॥ फिर सब धर्मोंकी सिद्धिके लिये भगवान्‌के चरणोंसे सेवावृत्ति प्रकट हुई और उन्हीं से पहले-पहल उस वृत्ति का अधिकारी शूद्रवर्ण भी प्रकट हुआ, जिसकी वृत्ति से ही श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं [*] ॥ ३३ ॥ ये चारों वर्ण अपनी-अपनी वृत्तियोंके सहित जिनसे उत्पन्न हुए हैं, उन अपने गुरु श्रीहरिका अपने-अपने धर्मोंसे चित्तशुद्धिके लिये श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं ॥ ३४ ॥ 
.......................................................
 [*] सब धर्मोंकी सिद्धिका मूल सेवा है, सेवा किये बिना कोई भी धर्म सिद्ध नहीं होता। अत: सब धर्मोंकी मूलभूता सेवा ही जिसका धर्म है, वह शूद्र सब वर्णोंमें महान् है। ब्राह्मणका धर्म मोक्षके लिये है, क्षत्रियका धर्म भोगके लिये है, वैश्यका धर्म अर्थके लिये है और शूद्रका धर्म धर्मके लिये है। इस प्रकार प्रथम तीन वर्णोंके धर्म अन्य पुरुषार्थोंके लिये हैं, किन्तु शूद्रका धर्म स्वपुरुषार्थके लिये है; अत: इसकी वृत्तिसे ही भगवान्‌ प्रसन्न हो जाते हैं।

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रविवार, 1 दिसंबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

शीर्ष्णोऽस्य द्यौर्धरा पद्भ्यांप खं नाभेरुदपद्यत ।
गुणानां वृत्तयो येषु प्रतीयन्ते सुरादयः ॥ २७ ॥
आत्यन्तिकेन सत्त्वेन दिवं देवाः प्रपेदिरे ।
धरां रजःस्वभावेन पणयो ये च ताननु ॥ २८ ॥
तार्तीयेन स्वभावेन भगवन् नाभिमाश्रिताः ।
उभयोरन्तरं व्योम ये रुद्रपार्षदां गणाः ॥ २९ ॥

इस विराट् पुरुष के सिर से स्वर्गलोक, पैरों से पृथ्वी और नाभि से अन्तरिक्ष (आकाश) उत्पन्न हुआ। इनमें क्रमश: सत्त्व, रज और तम—इन तीन गुणों के परिणामरूप देवता, मनुष्य और प्रेतादि देखे जाते हैं ॥ २७ ॥ इनमें देवतालोग सत्त्वगुण की अधिकता के कारण स्वर्गलोक में, मनुष्य और उनके उपयोगी गौ आदि जीव रजोगुण की प्रधानता के कारण पृथ्वी में तथा तमोगुणी स्वभाववाले होने से रुद्र के पार्षदगण (भूत, प्रेत आदि) दोनों के बीच में स्थित भगवान्‌ के नाभिस्थानीय अन्तरिक्षलोक में रहते हैं ॥ २८-२९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७) हिरण्याक्ष-वध सूत उवाच – इति कौषारवाख्यातां आश्रु...